मेरी पत्रकारिता की नौकरी का पहला साल था और मैं एक इवनिंगर अखबार में काम करती थी। ईवनिंगर यानी वो अखबार जो सुबह छपता है और दोपहर बाद लोगों के हाथ में आ जाता है। दिसंबर का महीना था, 17 तारीख को इस अखबार की सालगिरह थी और हम पार्टी मूड में ही थे।
सुबह 7 बजे ऑफिस पहुंचे कि क्राइम रिपोर्टर ने कहा, ‘मैडम (हमारी एडिटर) एक रेप केस है, बड़ा मामला है, इसे ही लीड लीजिए।’ ईवनिंगर अखबार में वैसे भी क्राइम ज्यादा चलता है तो हम भी चुप हो गए। सुबह नहीं पता था कि क्या हुआ है, पर दोपहर तक आते-आते हर टीवी चैनल की लीड यही ‘बलात्कार की घटना’ बन चुकी थी। ये साल था 2012 और ये घटना थी, निर्भया गैंग रेप. कॉलेज से निकलते ही ये मेरी पहली नौकरी थी और मुझे सिखाया गया था, एक अच्छे रिपोर्टर को हर इवेंट, घटना हमेशा ऑब्जेक्टिव होकर ही कवर करनी चाहिए पर मुझे इस घटना के दौरान ऐसा नहीं हुआ। 17 तारीख के पूरे दिन जैसे-जैसे समय बढ़ता गया, इस घटना से जुड़ी डिटेल न्यूज चैनलों पर आने लगीं और हर नई डिटेल के बाद मेरे पेट में अजीब सा दर्द, गले में खसखसाहट, आंखों में पानी, हाथों में बेचैनी सी बढ़ने लगी। सड़कों पर चल रहे आंदोलनों से लेकर दिल्ली की बसों में इस घटना पर अचानक शुरू होती बहस तक, मैंने सब कवर किया और यकीन मानिए हर बार उस दर्द की बात करते हुए शरीर में सिरहन महसूस की ।
आज 15 अगस्त है. साल है 2024. मैं अब एक बच्चे की मां बन गई हूं, अब भी पत्रकार हूं और एक मीडिया संस्थान में काम करती हूं। पिछले कुछ दिनों से कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में ट्रेनी डॉक्टर से रेप और हत्या की घटना की खबरें सोशल मीडिया में छाई हुई हैं। इस घटना के खिलाफ बुधवार की रात लड़कियां और महिलाएं कलकत्ता की सड़कों पर उतर आईं. निर्भया कांड के बाद भी लड़कियां, महिलाएं, कॉलेज स्टूडेंट सड़कों पर उतरे थे। 2012 से 2024 तक, देश की सरकार बदली है, कानून में बदलाव हुए हैं, व्यवस्थाएं बदली हैं. बहुत बदलाव हुए हैं। सबसे बड़ा बदलाव कि इस बार दिल्ली नहीं बल्कि कोलकाता में ये घटना हुई है. इन 12 सालों में मैंने जमीनी तौर पर यही बदलाव देखा है कि बलात्कार की जगह बदल रही हैं, बाकी कुछ नहीं बदला. बाकी सब वही का वही है. सालों से मैं लड़कियों के लिए यही ताने सुन रही हूं कि ‘ऐसे कपड़ें पहनेंगी तो क्या होगा, रात में घर से बाहर जाने की क्या जरूरत है… अब बॉयफ्रेंड बनाओगी तो यही होगा… किसने कहा था, वहां जाने के लिए…’. इन तानों में भी बदलाव नहीं आया है।
आज आजादी की 78वीं सालगिरह पर, एक महिला होने के नाते मेरे दिल में हजारों सवाल उमड़ रहे हैं. मेरे आसपास कई सारे लोग पारंपरिक परिधान पहनकर इस दिन का जश्न मना रहे हैं. लेकिन आप मुझे आजादी कम देंगे। मैं चलती बस में, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में, अपने ऑफिस में या अपने घर में… मैं अपना स्वतंत्रता दिवस कहां मनाऊँ? मेरी आजादी कहां बंद है आखिर? सालों से हम अपनी बेटियों को ‘दूसरे घर के लिए’ तैयार करते आ रहे हैं, पर क्यों हम अपने बेटों को सड़कों पर चलने के लिए, ऑफिसों में काम करने के लिए तैयार नहीं कर पा रहे… क्यों हम उन्हें नहीं सिखा पा रहे एक ‘आजाद औरत’ का सम्मान करना…? चोरी, डकैती या हत्या की तरह ‘बलात्कार’ सिर्फ एक क्रिमिनल एक्टिविटी नहीं है बल्कि ये सोशल सिस्टम के फेलियर का नंगा सच है। आप सालों से औरतों को ‘सही तरीके से बिहेव कैसे किया जाए’, ‘क्या पहनना है’ जैसी भतेरी चीजें सिखा रहे हैं, पर एक समाज में ऐसे मर्द क्यों हमें नजर नहीं आते जो बलात्कार की इस भयावह घटना को अंजाम देने से पहले सालों तक अपनी पत्नी या मां को मार रहे हैं। कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग में पीजी सेकेंड ईयर की स्टूडेंट रही ट्रेनी की रेप करने से पहले आरोपी संजय रॉय के खिलाफ भी मामले दर्ज थे। पुलिस के बयान के अनुसार इस आदमी के मोबाइल में हिंसक सेक्शुअल सामग्री मिली है. पुलिस का कहना है कि ऐसी सामग्री किसी का देखना सामान्य बात नहीं है. जब ये सामान्य नहीं था, तो इस असामान्य व्यक्ति को पहले क्यों कोई पहचान नहीं पाया?
पीएम मोदी ने आज लाल किले की प्राचीर से कहा, ‘मैं आज लाल क़िले से अपनी पीड़ा व्यक्त करना चाहता हूं. हमें गंभीरता से सोचना होगा। हमारी माताओं, बहनों, बेटियों के प्रति जो अत्याचार हो रहे हैं, उसके प्रति जन सामान्य का आक्रोश है. इसे देश को, समाज को, हमारी राज्य सरकारों को गंभीरता से लेना होगा।’ दरअसल इन सवालों के पीछे भी हमारा सोशल फेलियर ही है. ‘तेज आवाज’ में बोलती औरत पर चारों तरफ से आवाज उठ जाती है. लेकिन गालियां देकर, एक-दूसरे से बात करते, गुस्से में पत्नी पर हाथ उठाते, चीखते हुए, नाराजगी में या गुस्से में चीजें फेंकते मर्द ‘नॉर्मल’ हैं। ‘हिंसक पोर्नोग्राफी देखना…’ अब ये काम लड़के नहीं करेंगे तो कौन करेगा… यही वो मर्द हैं या कहें काफी हद तक इस बिहेवियर को ‘नॉर्मल’ मानने वाली औरतें भी, जिन्हें सिनेमाई पर्दे पर हीरो से थप्पड़ खाती हीरोइन, या हीरो का जूता चाटने को मजबूर होती लड़की पसंद आती हैं। एक दलील ये भी है कि Not All Men… हां बिलकुल सही है. सभी मर्द ऐसे नहीं हैं, पर मैं कैसे पहचानूं… मैं कैसे अपनी बेटी या खुद अस्पताल में, ऑफिस में या ऐसी ही किसी जगह ड्यूटी करने रात में जाऊं ? काश, मैं और मेरे देश की बेटियां भी अपनी आजादी का जश्न मना सकें जो शायद किसी डिब्बे में बंद है… आप सब को आजादी की सालगिरह मुबारक हो.
(साभार – न्यूज 18)