कोलकाता । अग्रज कवि आलोक शर्मा हमारे बीच नहीं रहे । उन्होंने 10 मार्च को उन्होंने अंतिम सांस ली । आलोक जी के कविता संकलनों के फ्लैप की सूचना के अनुसार उनकी पहली रचना सन् 1947 में प्रकाशित हुई थी, और हमारी अपनी जानकारी के अनुसार ,अंत के बीमारी के चंद दिनों को छोड़ दें तो लगभग उम्र की अंतिम घड़ी तक रचनारत रहें । लगभग 75 सालों के इस रचनाशील जीवन के प्राणों की ज्योति आज बुझ गई, इससे अधिक दुखजनक भला और क्या हो सकता है । आलोक जी का जन्म सन् 1936 में कोलकाता में ही हुआ था जबकि परिवार मूलतः उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ का था । कोलकाता विश्वविद्यालय से ही स्नात्तोतकर पढ़ाई के बाद 1963 में उन्होंने पंडितराज जगन्नाथ के जीवन पर शोध किया था । लेखन का संस्कार उन्हें अपनी मां से मिला । 1959 में ही उनका एक उपन्यास ‘उसे क्षमा करना’ प्रकाशित हो गया था । शुरू में उनकी कहानियां धर्मयुग, सारिका, नई कहानियां, कहानी, लहर, तरंगिनी, नई धारा, तथा अणिमा आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थी । उनका पहला कविता संकलन आयाम 1965 में प्रकाशित हुआ, समुद्र का एकान्त 1981 में और आजादी का हलफनामा (लंबी कविता) 1984 में । 1967 में ‘चेहरों का जंगल’ एक संवादहीन नाटक छपा । उन्होंने देश-विदेश की काफी यात्राएँ कीं और उनके यात्रा संस्मरण भी समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं । वे कोलकाता के दूरदर्शन और आकाशवाणी केंद्रों से भी जुड़े रहे । आलोक जी के बारे में उपरोक्त सीमित सूचनाएं हमने हमारे पास उपलब्ध उनके कविता संकलन ‘समुद्र का एकान्त’ और उनकी एक लंबी कविता ‘आजादी का हलफनामा’ से ली है । उनके बाद के संकलनों को तो हमें देखने का मौका नहीं मिला, पर विगत कई सालों से फेसबुक पर उनकी कविताएँ पढ़ा करता था और मैसेंजर पर उनकी कविताओं के संदर्भ में ही उनसे नियमित संपर्क भी बना रहता था । निजी तौर पर आलोक जी की हमारी स्मृतियां लगभग पचास साल से भी पुरानी है । तभी से उनके बात करने के अंदाज का एक बिंब तो हमारे मस्तिष्क पर हमेशा से अटका रहा है । सन् ’70 का वक्त था । हमारे पिता सेंट्रल एवेन्यू के कॉफी हाउस में हर शाम जाया करते थे । वहीं पर आलोक जी भी अपने मित्रों शंकर माहेश्वरी, नवल जी, कृष्णबिहारी मिश्र आदि के साथ एक टेबुल पर नियमित बैठते थे । एक बार इसराइल साहब के साथ हमें भी उनकी टेबुल पर बैठने का मौका मिला । वहां आधुनिक Abstract Art (अमूर्त कला) के बारे में बात चल रही थी । आलोक जी बड़ी गहराई से यथार्थवादी कला में थोथे अलंकरण की आलोचना करते हुए कह रहे थे कि जैसे कमीज में कॉलर की कोई उपयोगिता नहीं होती है, वैसे ही यथार्थवादी कला का अधिकांश निरर्थक और अनुपयोगी कहा जा सकता है । अनुभूति किसी समग्र, अलंकृत आकृति के बजाय रंगों, रेखाओं, आकारों और बनावटों के माध्यम से ही व्यक्त होती है । बाकी सब अनुभूतियों को छिपाते हैं ।
तब हमारी उम्र काफी कम थी । कॉलेज के बाद पार्टी आफिस जाना शुरू ही किया था । हम काफी उत्साहित रहते थे । कॉफी हाउस की उस छोटी सी चर्चा से ही एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में मन में आलोक जी की जो छवि बनी, वह आज भी कायम है । पिछले कुछ सालों से वे हमें मैसेंजर पर अपनी कविताएं भेजा करते थे । काफी अच्छी लगती थी । बीच-बीच में हम उन पर टिप्पणियां भी करते थे । पांच साल पहले 2020 में उन्होंने अपनी एक बहुचर्चित थोड़ी लंबी कविता ‘संस्कार’ का एक अंश ‘आस्था’ शीर्षक लगा कर भेजा था । यह कविता उनके संकलन ‘समुद्र का एकान्त’ में संकलित है जो हमारे पास मौजूद थी । उसके फ्लैप पर नामवर जी ने ‘संस्कार’ पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि “कविता ‘संस्कार’ के बारे में क्या कहूं ? कहने के लिए बस इस समय सिर्फ इतना ही है कि यह कविता “एक अनुभव है” । मैंने इसे पढ़ा और आज का दिन सार्थक हुआ। बस – एक चित्र आंखों के सामने है “ऐसे वक्त सुबह की हल्की हवा में और ढलती हुई चांदनी में जैसे हमने किसी सफेद फूल को हँसते हुए देख लिया हो”… ” आलोक जी ने हमें ‘आस्था’ शीर्षक के साथ इस कविता का जो अंश भेजा उसमें सहारे की तलाश में बोगनबेलिया की काँटेदार शाखाओं को ही अनायास पकड़ते रहने की जीवन में दोहराव की मजबूरियों, “दिगन्त का सूनापन”, “मसीहा की तलाश”. “थकी हुई साँस”, “नीली रिक्तता” के बिंबों से प्रेषित आंतरिक बेचैनी अंततः यही कहती है कि ‘आस्था’ कोई बाहरी देन नहीं, बल्कि व्यक्ति की अपनी आंतरिक शक्ति और सतत संघर्ष से प्राप्त स्वीकृति है।
इसी प्रकार आलोक जी ने अपनी ‘फाग’ के तीन रंगों, काला, लाल और हरा पर अपनी अद्भुत तीन कविताएं पढ़वाई थी । इन कविताओं में ‘फाग’ के रंगों को पारंपरिक उल्लास से निकालकर संघर्ष, प्रतिरोध और सामाजिक न्याय के संदर्भ में स्थापित किया गया था । काला रंग अनोखे ढंग से सहानुभूति और इतिहासबोध का विस्तार लिए हैं, लाल रंग में विद्रोह और परिवर्तन की आकांक्षा है, तो हरा रंग धैर्य, आशा और भविष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।
प्रसिद्ध विचारक प्रोफेसर पी. लाल ने आलोक जी की कविताओं के बारे में बिल्कुल सही लिखा था कि वे “वेधक प्रतिबिम्बों से भरी हुई हैं।” वे एक कविता पर तो यहां तक लिख जाते हैं कि वह “मेरे सपनों में भी निरन्तर मेरा पीछा करती रहेगी । यह कविताएं, एक प्रयोगवादी मस्तिष्क को उजागर करती हैं…” । यही कवि और लेखक आलोक शर्मा जी का सच था ।
(फेसबुक के सौजन्य से अरुण माहेश्वरी द्वारा रचित)