पति की हार को देख उभय भारती ने शंकराचार्य से कह दिया कि ये तो उनकी आधी जीत है। भारती ने कहा, ‘मैं मंडन मिश्र की अर्धांगिनी हूं, अभी आपने आधे को ही हराया है। आपको मुझसे भी शास्त्रार्थ करना होगा। पहले भारती ने शंकराचार्य के सभी सवालों का सटीक जवाब दिया। जब शास्त्रार्थ के 21 वें दिन भारती को ये लगने लगा कि अब वे हार जाएंगी तो उन्होंने शंकराचार्य के सामने कामशास्त्र के सवाल रख दिए। उन्होंने पूछ लिया कि काम क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है और इससे संतानें कैसे पैदा होती है? ब्रह्मचर्य के घोर साधक शंकराचार्य इन सवालों के आगे नतमस्तक हो गए और उन्होंने उसी वक्त हार मान ली। इस तरह भारती ने शंकराचार्य को परास्त कर दिया।कामशास्त्र के बारे में जानने के लिए शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी से छह महीने का समय मांगा। ऐसा कहा जाता है कि शंकराचार्य ने योग के जरिए एक मृत राजा की देह में प्रवेश किया और उस राजा की पत्नी के साथ कई दिन बिताने के बाद उन्होंने कामशास्त्र को जाना। इसके बाद वे फिर मंडन के पास पहुंचे और उन्होंने उनकी पत्नी को सारे सवालों का जवाब देते हुए उन्हें हराया। इसके बाद मंडन मिश्र शंकराचार्य के शिष्य बन गए।
देवी भारती व पंडित मंडन मिश्र से आदिगुरू शंकराचार्य का शास्त्रार्थ
प्राचीन भारत में ज्ञान की लौ जलाने वाले अद्वैत वेदांत के महान आचार्य आदि शंकराचार्य एक विलक्षण बालक के रूप में प्रसिद्ध हुए। मात्र आठ वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था और जीवन का परम सत्य खोजने निकल पड़े थे। उनका लक्ष्य था – अद्वैत ब्रह्मज्ञान का प्रचार, और वेदांत की सर्वोच्चता को स्थापित करना। वे देश-भर में भ्रमण करते हुए विभिन्न स्थानों पर पांडित्य से संपन्न विद्वानों से संवाद और शास्त्रार्थ करते हुए धर्म का मर्म स्पष्ट कर रहे थे।
उन्हीं दिनों मिथिला नगरी में पंडित मंडन मिश्र का नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। वे वेदों के कर्मकांड के कट्टर अनुयायी थे और पूर्व मीमांसा दर्शन के समर्थक थे। उनका मत था कि मोक्ष की प्राप्ति केवल विधिपूर्वक किए गए यज्ञ, कर्म और अनुष्ठानों से ही संभव है। वे विद्वानों में श्रेष्ठ माने जाते थे, और उनके साथ कोई शास्त्रार्थ करने से भी हिचकता था।
शास्त्रार्थ की चुनौती
जब आदि शंकराचार्य मिथिला पहुंचे, तो उन्होंने मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ की चुनौती दी। यह केवल दो विद्वानों का वाद-विवाद नहीं था, बल्कि ज्ञान और कर्म के बीच एक वैचारिक युद्ध था। मंडन मिश्र ने चुनौती स्वीकार की, और दोनों पक्षों की सहमति से यह निर्णय हुआ कि जो तर्कों से पराजित होगा, वह अपने मत का परित्याग करेगा और विजेता के विचार को स्वीकार करेगा।
न्यायाधीश के रूप में चुनी गईं मंडन मिश्र की पत्नी – देवी भारती, जो स्वयं एक परम विदुषी, निष्पक्ष और न्यायप्रिय थीं।
शास्त्रार्थ का आरंभ
शास्त्रार्थ का शुभारंभ हुआ। दोनों विद्वानों ने अपने-अपने दर्शन के समर्थन में उपनिषदों, वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों और स्मृतियों से उद्धरण देते हुए सशक्त तर्क प्रस्तुत किए। मंडन मिश्र ने कर्मकांड की अनिवार्यता और गृहस्थ धर्म की महत्ता पर जोर दिया, वहीं शंकराचार्य ने ब्रह्म की निराकार सत्ता और आत्मज्ञान की सर्वोच्चता पर प्रकाश डाला।
सभा में उपस्थित लोगों को प्रतीत हो रहा था जैसे यह कोई मानवों का संवाद नहीं, बल्कि ब्रह्मा और शंकर स्वयं शास्त्रार्थ कर रहे हों। दोनों की वाणी में कटाक्ष नहीं था, किंतु तर्कों में अपूर्व गहराई और तेज था।
यह शास्त्रार्थ सोलह दिनों तक अनवरत चलता रहा। कोई निर्णय करना कठिन हो गया।
अनूठा निर्णय
एक दिन देवी भारती को किसी आवश्यक कार्य से सभा से कुछ समय के लिए बाहर जाना पड़ा। उन्होंने जाते समय एक सूझबूझ भरा उपाय किया। उन्होंने दोनों विद्वानों को ताजे फूलों की मालाएं पहनाते हुए कहा,
“मेरी अनुपस्थिति में यही मालाएं मेरी आंखें होंगी। जो माला ताजगी बनाए रखेगी, वही विजेता सिद्ध होगा।”
सभा में सभी आश्चर्यचकित थे, परंतु इस निर्णय में गहरा संकेत छिपा था।
अंतिम निर्णय
जब देवी भारती लौटीं, तो उन्होंने दोनों विद्वानों की मालाएं देखीं। शंकराचार्य की माला अभी भी ताजगी से खिली थी, जबकि मंडन मिश्र की माला मुरझा चुकी थी।
सभा की उत्सुक निगाहें देवी भारती पर टिक गईं। उन्होंने शांत स्वर में कहा,
“विजयी शंकराचार्य हैं।”
भीड़ में कुछ लोग चकित हुए। किसी ने साहस कर पूछा –
“माता, आपने यह निर्णय किस आधार पर लिया?”
देवी भारती मुस्कुराईं और बोलीं –
“जब कोई व्यक्ति तर्कों में कमजोर पड़ता है, तो वह भीतर से अस्थिर और क्रोधित होने लगता है। क्रोध की गर्मी मन को जलाती है और उसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। मंडन मिश्र का मन कई बार अस्थिर हुआ, जिससे माला सूख गई। शंकराचार्य धैर्य और संयम के साथ अपने तर्क रखते रहे, इसलिए उनकी माला ताजी रही। यही प्रमाण है उनकी मानसिक स्थिरता और विजय का।”
परिणाम और शिक्षा
मंडन मिश्र ने शंकराचार्य की श्रेष्ठता स्वीकार की और उन्हें गुरु मानकर उनके शिष्य बन गए। उन्होंने अपना कर्ममार्ग छोड़कर ज्ञानमार्ग को अपनाया। देवी भारती ने भी शंकराचार्य से प्रश्न किया –
“यदि संन्यास ही अंतिम सत्य है, तो गृहस्थ जीवन की भूमिका क्या है?”
इस पर शंकराचार्य ने उनसे भी गहन शास्त्रार्थ किया और उन्हें इस तथ्य से संतुष्ट किया कि हर आश्रम की अपनी भूमिका है, और गृहस्थ आश्रम भी मोक्ष की ओर एक पवित्र मार्ग है – यदि वह धर्म, संयम और विवेक से जिया जाए।