Monday, October 27, 2025
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डियर युवाओं, परिवार से अच्छा सहयात्री कोई नहीं

मन में विचार आता है कि आज के दौर में स्त्री होने का क्या मतलब है….स्त्री एवं पुरुष के लिए परिवार की परिभाषा कैसे इतनी संकीर्ण हो गयी। बात जब छठ की है तो छठ तो स्वयं ही एक प्रकार से भाई-बहन का पर्व है क्योंकि छठी मइया तो खुद ही सूर्यदेव की बहन हैं…भाई दूज में यम और यमुना भाई – बहन हैं और दीपावली में नरकासुर के वध के बाद जो सुभद्रा कृष्ण के माथे पर तिलक लगाती हैं, वह भी उनकी बहन हैं। इससे पीछे देखिए तो शक्ति नारायण की बहन हैं औऱ सरस्वती शिव की बहन हैं। अशोक सुन्दरी गणेश और कार्तिकेय की बहन हैं और शांता श्रीराम की बहन हैं। कहने का तात्पर्य तो यही है कि हमारे पुराणों में तो भाई-बहन के सम्बन्धों का उल्लेख है मगर सोचने वाली बात यह भी है कि ऐसा क्या हो गया कि बहनों को हाशिये पर रखकर समस्त देवी-देवताओं को पत्नी और बच्चों तक समेटकर बांध दिया गया। शक्ति, शिव, सरस्वती और लक्ष्मी में गहरा सम्बन्ध है, सब के सब एक दूसरे के पूरक हैं, फिर ऐसा किसने किया होगा कि पारिवारिक अवधारणा को अपने स्वार्थ के लिए पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित कर दिया जबकि श्रीकृष्ण तो राधा के साथ सुभद्रा और द्रौपदी को भी सिर आँखों पर रखते हैं। वस्तुतः देखा जाए तो शिव परिवार हो राम दरबार या फिर श्रीकृष्ण का परिवार एक संयुक्त परिवार की अवधारणा को सामने रखता है। ये जानना जरूरी है कि वैदिक काल से चली आ रही इस अवधारणा को तहस-नहस कर स्त्री व पुरुष के जीवन से अन्य सभी संबंधों को निकालकर नितांत एकाकी बनाने वाले कौन लोग रहे होंगे और इनमें उनका क्या स्वार्थ रहा होगा। खास बात यह है कि सुभद्रा को कृष्ण से कुछ कहना या मांगना नहीं पड़ता, वह स्वयं ही उसे समझकर उसकी इच्छा पूरी कर देते हैं तो कृष्ण को पूजने वालों के मन में इतनी संवेदनशीलता क्यों नहीं है? छठी मइया ने तो आपको नहीं कहा कि आप अपने माता – पिता समान सास-ससुर से अपने पति को दूर कर दें क्योंकि वह आपकी गृहस्थी के साम्राज्य को फिट नहीं करते। आपको बुरा लगता है जब मायके में बहन के रूप में आपको भाभी जितना सम्मान नहीं मिलता मगर अपनी ससुराल में आप खुद बर्दाश्त नहीं कर पातीं कि आपको छोड़कर आपका पति किसी और की बात सुनें, करें। पता नहीं…लड़के और लड़कियों को यह अहंकार का रोग कहां से लग गया। पता नहीं क्यों कई बार सास-ससुर भी अपनी बहू-बेटे को नहीं समझना चाहते। मैं नहीं समझ पाती कि अनायास सामंजस्य से चलने वाला परिवार वैमनस्य और वर्चस्व का अखाड़ा कैसे बन जाता है? परिवार से दूर रहना और कई बार मायके वालों के कहने में आकर अपनी गृहस्थी बना लेना पहले -पहल बहुत अच्छा लगता है मगर चुनौतियां वहाँ कम नहीं होतीं, बढ़ जाती हैं। आपको ताने कसने वाले कम नहीं होते बल्कि बढ़ जाते हैं। एक समय के बाद आप थक जाती हैं क्योंकि अंततः हम सभी मनुष्य हैं। ससुराल में जो काम आपके साथ चार लोग करते थे, वह सारे काम अब आपको अकेले करने होते हैं, जो खर्च मिल-बांट कर उठा लिया जाते थे…वह सारे खर्च अब आपको खुद करने होते हैं। आपको सुनने वाला कोई नहीं होता, आप किसी के कंधे पर सिर रखकर नहीं रो पाते। पहले वाला प्यार अब खीझ में बदलकर द्वेष और कलह बन जाता है। जिम्मेदारियों के बोझ से दबी आप ठीक से रहना भूल जाती हैं। जिन्होंने आपका घर तोड़ा, गौर से देखिएगा, वह अपने घर नहीं टूटने देते। समझदारी और वैयक्तिता को महत्व देने की जरूरत है और दोनों ओर से दिये जाने की जरूरत है। आप नहीं जानते कि एक पीढ़ी जब साथ रहती है और जुड़ी रहती है तो वह आपका सुरक्षा कवच रहती है, सपोर्ट सिस्टम बनी रहती है। परिवार से दूर रहना सपोर्ट सिस्टम खो देना होता है। बुजुर्गों को थोड़ा सा आदर चाहिए और उनकी जरूरतों को पूरा करते रहने की जरूरत है। आज आपको यह खटक सकता है लेकिन कल्पना कीजिए कि कल आप दोनों भी बूढ़े होंगे और आपके बच्चे आपको ताने मारेंगे। हाथ उठा सकते हैं और आप अपना बचाव भी नहीं कर सकेंगे क्योंकि शरीर और मन से आप थक चुके होंगे। आज जिस तरह से अपने भाई -बहनों से जुड़े रहने के लिए आप अपने पति को कोसती हैं, कल को आपके बेटे को आपकी बहू कोसेगी..तब क्या आपके पास कोई जवाब होगा। मगर भाई या देवर व जेठ ननद, जेठानी, देवरानी, बहन और बुआ के साथ रहते हुए ऐसा करने में वह दस बार सोचेगा…..लिहाज न हो तो भी लिहाज बड़ी चीज है। हिंदू संस्कृति अत्यंत पुरातन होते हुए भी चिर नूतन है, इसकी मान्यताएं आज के वैज्ञानिक युग में भी हमारे जीवन को सार्थक दिशा दिखाती हैं। जीवन मूल्य और संस्कार हमें पुरातन संस्कृति से ही प्राप्त होते हैं ,तथा इस संस्कृति के मूल आधार हैं हमारे सनातन परिवार। अतः सनातन संस्कृति को जागृत और चैतन्य रखने का दायित्व हमारे परिवारों पर ही है। परिवार केवल व्यक्तियों के एकत्र रहने की व्यवस्था का नाम नहीं है, यह समाज की आधारभूत सांस्कृतिक, आध्यात्मिक तथा आर्थिक इकाई है ।प्रत्येक परिवार उत्तम मनुष्य निर्माण की पाठशाला है। भारतीय संस्कृति में परिवार की परिभाषा में तीन-चार पीढ़ियों का समावेश होता था। कल आज और कल का समन्वय ही परिवार कहलाता था। दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, भाई- भाभी, बहन- बहनोई ये सब एक ही छत के नीचे एक परिवार का हिस्सा होते थे। यहां तक कि घर में काम करने वाले सेवक, कर्मचारी, पड़ोसी इन सब से भी पारिवारिक संबंध होते थे। इतना ही नहीं हम तो पशु -पक्षी, पेड़- पौधे, प्रकृति को भी परिवार मानते हैं- तुलसी माता, गौ माता, गंगा मैया आदि।
आपके अहंकार में बच्चों ने रिश्ते नहीं देखे, निभाना नहीं सीखा, झुकना नहीं सीखा। लाड़ -दुलार ने उनको जिद्दी और स्वार्थी बना दिया है । जो बात आज आपको कूल लग रही है, कल वही जी का जंजाल भी बन सकती है क्योंकि कल को अगर कोई भी उल्टा- सीधा कदम उठाता है तो लोग आप पर ताने कसेंगे..कैसे रोकेंगे आप दोनों।
वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा हमारी ही संस्कृति की उपज है, अर्थात पूरा विश्व ही हमारा परिवार है, सभी हमारे अपने हैं।
परिवार समाज और देश का अस्तित्व नारी से ही है नारी के बिना परिवार की कल्पना भी नहीं कर सकते। मां ,बहन, पत्नी अथवा बेटी के बिना कोई घर घर नहीं लगता।कहावत है -बिन घरनी घर भूत का डेरा। जिस घर में परिवार के सदस्यों को महिला के हाथ का बना भोजन प्राप्त नहीं होता, जहां मां की कोमल वाणी नहीं गूंजती, जहां बहन का स्नेह सिक्त स्पर्श नहीं मिलता वह घर तो सोने का महल हो तो भी वीरान ही लगता है। आज के सन्दर्भ में देखा जाए तो खाना बनाने का काम महिला-पुरुष मिलकर कर सकते हैं। जिन लड़कियों ने संयुक्त परिवार की मिठास नहीं देखी, जो अपने पारिवारिक यूटोपिया में रहती आ रही हैं, परिवार उनको ही खतरा लगता है। सच तो यह है कि अगर ऐसी स्थिति है तो आपको विद्रोह भी उसी व्यवस्था के भीतर रहकर करना होता है, वरना सोचिए आप कितने तालाब खोद सकती हैं।
ईश्वर ने आपको क्षमता दी है कि आप परिवार को साथ लेकर चल सकें तो आपको यह दायित्व तो निभाना होगा। पेशेवर जगत के लिहाज से देखा जाए तो पूछा जा सकता है कि क्या आप दिक्कत होने पर अपने पति को लेकर ससुराल से अलग हो गयीं, क्या कल को अपनी कम्पनी में दिक्कत होने पर उससे अलग हो जाएंगी या सबको साथ लेकर चलने का प्रयास करेगी। जो प्रयास आप बाहर की दुनिया में करती हैं, वह अपने घर में क्यों नहीं कर सकतीं? आप आर्थिक मामलों में सुझाव देकर सहभागिता कर सकती है। घर की छोटी से छोटी तथा बड़ी से बड़ी समस्याओं से परिवार को बाहर निकालने की हिम्मत और क्षमता हर महिला में होती है। घर में एक महिला जाने अनजाने अनेकों दायित्वों का वहन खुशी-खुशी अपने परिवार के लिए करती है। एक अच्छी भोजन विशेषज्ञा, सेविका, शिक्षिका, चिकित्सक ,समय प्रबंधक, वित्त प्रबंधक आदि के जन्मजात गुण ईश्वर ने उसे दिए हैं। जिसने अपने मां -पिता और बड़ी मां या बड़े बाबूजी या चाचा को साथ देखा है। सुख-दुःख बांटते देखा है, वह कभी इस तरह की वाहियात बातें नहीं करेगा। आप अपने पापा के भाई को चाचा कहने में शर्माती हैं, पति के भाई को देवर कहने में शरमाती हैं तो सबसे पहले तो आपको अपना आकलन और विश्लेषण खुद करना होगा।
यहां एक बात जरूरी है कि सारी भूमिकाओं के निर्वहन की उम्मीद सिर्फ एक महिला से नहीं की जानी चाहिए। घर के बड़े बुजुर्ग जिम्मेदारियां बांट सकते हैं। निष्पक्ष होकर बात सुन सकते हैं और बहुत ज्यादा उम्मीद के बगैर भी अच्छी तरह जी सकते हैं।
इस बात को दिमाग से निकालिए कि स्त्री कोई देवी है। वह मानवी है, उसकी संवेदनाओं का ख्याल रखिए और उसे भी सबकी संवेदनाओं के बारे में सोचना चाहिए। प्यार और आदर दोनों हाथों से बजने वाली ताली है। यह लड़कों और लड़कियों के हाथ में है कि अपने जीवनसाथी को अपने रिश्तों के बीच में किसी कीमत पर नहीं आने दें। यह उम्मीद छोड़ दीजिए कि आपके आने से आपके साथी का जीवन बदल जाएगा। अगर आप 25-30 साल रहकर, सब कुछ छोड़कर आई हैं तो आपकी सास और ननद ने भी अपने जीवन की पूंजी आपको सौंपी है। योगदान दोनों तरफ से है तो अहंकार किसी एक में क्यो और किसलिए? आप क्यों अपने साथी को समंदर से बाहर लाकर कुएं में रखना चाहती हैं। आप अपने पति को साथ रखना चाहती हैं तो उसका एक ही तरीका है, उनको अपने परिवार से और अपने बच्चों को उनके दादा-दाद, चाचा-चाची, बुआ-फूफा या भाई -बहनों से अलग मत करें। बच्चे स्ट्रेस बस्टर होते हैं। आपको उनको भौतिक तौर पर अलग कर भी लें मगर अन्दर ही अन्दर आप अपने साथी को खो रही होती हैं। जीवन की गाड़ी अकड़ से नहीं, संतुलन से चलती है। यही बात सास-ससुर, देवर-देवरानी, ननद- जेठ -जेठानी पर लागू होती है….आप अपनी संतानों की गृहस्थी का सीमेंट बनिए…जहाँ जरूरी हो, वहां हस्तक्षेप जरूर कीजिए मगर उनकी मजबूरियों को समझिए….फिर भी सबसे बड़ी जिम्मेदारी युवाओं की है और उनको यह समझना होगा कि शादी उनकी जिन्दगी का हिस्सा है, पूरी जिन्दगी नहीं है।
परिवार है तो स्वावलंबन है बशर्ते परिवार सामंजस्य की कसौटी पर खरा उतरे। आप घर में ही कोई काम अपने परिवार के सदस्यों के साथ कर सकती हैं या अगर नौकरी भी करती हैं तो निश्चित होकर अपने बच्चों को घर में छोड़ सकती हैं। हम यह नहीं कहते कि मामा-मामी या मौसा-मौसी प्यार नहीं करते मगर वह आपके साथ हमेशा नहीं रह पाएंगे, यह भी सच है। ऐसी स्थिति में आपके जेठ, देवर, देवरानी, ननद जैसे रिश्ते खड़े रहेंगे, याद रखएभले ही आप दोनों को साथ चलना है मगर सफर को आसान बनाना हो तो सहयात्रियों की जरूरत पड़ती है और परिवार से अच्छा सहयात्री कोई नहीं हो सकता। यही बात हमारे हर पर्व-त्योहार सिखाते हैं।

 

 

 

 

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