राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हो गयी है और इसे ध्यान में रखकर नये सिरे से पाठ्यक्रम बनाया जाने लगा है । उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अगर कलकत्ता विश्वविद्यालय की बात की जाए तो स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर पाठ्यक्रम तैयार करने की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है । इस परिप्रेक्ष्य में प्राध्यापकों को शामिल किया जा रहा है और हिन्दी के पाठ्यक्रम, पठन – पाठन को लेकर कार्यशालाएं आयोजित की जा रही हैं । ऐसी ही एक कार्यशाला गत 13 जुलाई को कलकत्ता गर्ल्स कॉलेज में आयोजित की गयी थी । हिन्दी पठन – पाठन और पाठ्यक्रम को नये सिरे से संवारना इतना आसान नहीं है मगर समय की माँग को देखते हुए अब हिन्दी के पाठ्यक्रम में डिजिटल शिक्षा और रोजगार पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है । शुभजिता ने हिन्दी पठन -पाठन, पाठ्यक्रम समेत कई अन्य मसलों को लेकर कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी स्नातक अध्ययन बोर्ड की अध्यक्ष डॉ. राजश्री शुक्ला से बातचीत की । शुभजिता के पाठकों के लिए साक्षात्कार के महत्वपूर्ण बिन्दु प्रस्तुत हैं –
प्र. राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर आप क्या कहना चाहेंगी और इसका हिन्दी पाठ्यक्रम पर क्या प्रभाव पड़ सकता है ?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, मुझे लगता है कि काफी अच्छे तरीके से सोच – विचार कर बनायी गयी है और इसमें विद्यार्थियों के बहुमुखी विकास का सुझाव है । सीमाएं सभी जगह रहती हैं तो अपनी सीमाओं के साथ ही आगे बढ़ना होगा लेकिन बहुमुखी विकास का उपाय हैं इसके अन्तर्गत, जैसे विद्यार्थी एक साल पढ़कर तय करेगा कि कौन से विषय सबसे ज्यादा उसकी मति और गति है, तब जाकर के वह ऑनर्स चुनेगा ।
दूसरी बात यह है कि बहुत अच्छा हिस्सा यह है सीवीएसी..कॉमन वैल्यू ऐडेड कोर्स, इस कोर्स का होना उन सभी कमियों को दूर करेगा जिसकी चर्चा बार – बार सभी शिक्षाशास्त्री, खासकर हम जैसे शिक्षा से जुड़े हुए लोग कर रहे थे कि विद्यार्थियों को किताबी शिक्षा मिल जाती है, ज्ञान मिल जाता है लेकिन जीवन मूल्य नहीं मिल पाते । भारतीय पारम्परिक जीवन मूल्य जैसे – समावेशीकरण..अर्थात विभिन्नता में एकता, देखने में बाहरी विभिन्नता दिखने के बावजूद आन्तरिक जो एकात्मकता के जो सूत्र हैं, वह सूत्र, पर्यावरण अध्ययन । तो इस तरह के जो विषय शामिल किए गये हैं, वे बहुत स्वागत योग्य हैं ।
प्र. नये पाठ्यक्रम को लेकर किस तरह की चुनौतियाँ हैं ?
शुरुआत में सभी को थोड़ी मुश्किल लगती है क्योंकि पेपर का नाम बदल गया है, प्रश्नपत्रों के कोड बदले हैं और तीन साल के लिए पढ़ने वाला बी.ए. 4 साल के लिए हो गया है । इसमें एक खूबी यह है मुझे जो समझ में आती है कि तीन साल में भी बी.ए. पढ़कर भी लोग निकल सकते हैं । रोजगार की दृष्टि से सोचें तो बहुत सकारात्मक कदम है कि बी.ए. एक साल में पढ़कर भी विद्यार्थी को एक साल की डिग्री मिल जाएगी बी.ए. की, वह जहाँ कहीं भी जरूरत होगी, देकर रोजगारपरक कार्य में शामिल सकता है और तीन साल में भी पढकर निकल सकता है और उसकी बी.ए. की डिग्री तीन साल की बी.ए. की डिग्री होगी लेकिन जिन लोगों की उच्च शिक्षा में रुचि होगी, सिर्फ वह लोग 4 साल का बी.ए. करेंगे और उसके आगे एम.ए. करेंगे तो मैं व्यक्तिगत रूप से हमेशा यह सोचती थी कि भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भीड़ बहुत है और गुणवत्ता की कमी है । यहाँ बी.ए. में ही गुणवत्ता की दृष्टि से विद्यार्थी समझ जाएगा कि उच्च शिक्षा की दिशा में उसकी रुचि है या इसकी रुचि रोजगारपरक दूसरे क्षेत्रों में है, तो वह 2 -3 साल में निकलकर दूसरे क्षेत्र अपना लेगा ।
जिनकी रुचि में शोध में, नये अनुसंधानों में, ज्ञान – विज्ञान को गहराई से पढ़ने में है, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में है, वह लोग चौथे साल बी.ए. पढ़ेंगे और उसके बाद एम.ए. पढ़ेंगे । चौथे साल में बी.ए. में रिसर्च करना, यह भी सकारात्मक कदम है क्योंकि 3 साल पढ़ते – पढ़ते विद्यार्थी यह समझ जाता है कि रिसर्च कैसे करना चाहिए, उसे थोड़ा अन्दाज हो जाएगा कि शोध कैसे किया जाएगा । इससे एम. ए. के बाद पी.एच.डी. में जो शोध किया जाता है, उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होगी क्योंकि एक बार वह सीख चुका रहेगा कि शोध कैसे करना है, और तब वह इसके बाद गुणवत्ता की दृष्टि से पी.एच.डी. के शोध में ज्यादा सकारात्मक योगदान कर सकेगा ।
प्र. क्या हिन्दी पाठ्यक्रम में डिजिटल शिक्षा को स्थान दिया जाने वाला है ?
यह जो हिन्दी वाला पाठ्यक्रम बना है, विशेषकर कलकत्ता विश्वविद्यालय ने जो पाठ्यक्रम बनाया है विद्यार्थियों के लिए और सभी विद्यार्थियों के लिए, इसमें डिजिटल लिटरेसी के नाम पेपर ही बना रहे हैं । डिजिटल लिटरेसी का पेपर पढ़ना – पढ़ाना आज की डिजिटल दुनिया और उसके बढ़ते महत्व को देखते हुए अत्यंत स्वागत योग्य है । आजकल विद्यार्थी सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं, साथ ही यूपीआई का उपयोग कर रहे हैं, विभिन्न डिजिटल माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं । इनसे लाभ तो हैं मगर इसके साथ ही इसके खतरे भी हैं, साइबर अपराध बढ़ रहे हैं, जानकारी के अभाव में विद्यार्थी ठगी का शिकार हो जाते हैं । डिजिटल साक्षरता के अध्ययन से विद्यार्थी को पता रहेगा कि सोशल मीडिया का प्रयोग करते हुए उसको कितनी दूर तक किस सीमा में रहना है, कितनी दूर तक जाना है । इन विचारों को ध्यान में रखते हुए कलकत्ता विश्वविद्यालय ने डिटिटल लिटरेसी के नाम से कोर्स बनाया है और हिन्दी के पाठ्यक्रम में भी डिजिटल साक्षरता के नाम से एक पेपर तैयार किया गया है । यह नया बनाया गया पेपर है जो हमारे हिन्दी के विद्यार्थियों को डिजिटलाइजेशन की दृष्टि से, डिजिटल दुनिया को समझने में बहुत मदद करेगा ।
प्र. पाठ्यक्रम को रोजगारपरक बनाने के लिए किस तरह के प्रयास किये जा रहे हैं ?
दूसरी बात यह है कि रोजगारपरक कार्यक्रमों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो पत्रकारिता तो अब हिन्दी के विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में अब यूँ ही पढ़ाई जा रही है लेकिन प्रयोजनमूलक हिन्दी, अनुवाद, पत्रकारिता, इस प्रकार के विषय हैं जो विद्यार्थियों को रोजगार के क्षेत्र में ले जाते हैं । उन विषयों पर अलग – अलग पेपर का पढ़ाया जाना और उनमें व्यावहारिक शिक्षा को ज्यादा बढ़ाया जाना, यह इस बार के पाठ्यक्रम में किया जा रहा है । पिछले कुछ वर्षों का उदाहरण दूँ तो कलकत्ता विश्वविद्यालय के एम. ए. के विद्यार्थी अब जिस संख्या में अध्यापक बनने के लिए आगे बढ़ते हैं तो करीब – करीब, उतनी ही संख्या या उससे अधिक अनुवादक, राजभाषा अधिकारी बनने के लिए इस प्रकार रोजगारपरक कार्यक्रमों की ओर बढ़ जा रहे हैं । अब ये विद्यार्थी जब बी.ए. से एम.ए. में आते हैं तो तब उनको यह समझ में आ जाता है कि अनुवाद पढ़कर वे रोजगार के क्षेत्र में सीधे आगे जा सकते हैं । शिक्षक बनने में जो समय लगता है, उस समय को छोटा करते हुए वे इस तरह के क्षेत्रों में आगे जा सकते हैं तो इन विषयों पर ज्यादा महत्व दिया जा रहा है, ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है ।
दूसरी बात यह है कि अभी हम लोगों ने अनुवाद वाले पेपर में दुभाषिया, बहुभाषिकता को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया है तो बहुभाषिकता को शामिल करने से, दुभाषिये का कोर्स शामिल करने से बहुत लाभदायक हो रहा है ।आज भारत पर्यटन की दृष्टि से आगे बढ़ रहा है और इस क्षेत्र में दुभाषिये की बड़ी उपयोगिता है । दूसरी तरफ विश्व बाजार में भी भारत एक बहुत बड़े बाजार के रूप में उभर रहा है तो मल्टीनेशनल कम्पनियों में इस तरह की योग्यता रखने वाले लोगों की बहुत जरूरत पड़ रही है जो एक से अधिक या ज्यादा भाषाएं जानते हों । ऐसा लगता है कि विद्यार्थी रोजगार की दृष्टि से थोड़ा आगे बढ़ पाएंगे । कुछ सुविधाएं तो कम से कम जरूर होंगी ।
प्र. पारम्परिक पाठ्यक्रम क्या पूरी तरह बदलने जा रहा है ?
पारम्परिक पाठ्यक्रम को हम छोड़ेंगे नहीं बल्कि पारम्परिक पाठ्यक्रम में जो विषय कम हो रहे थे, जैसे व्याकरण का ज्ञान जरूरी है । पिछले कुछ वर्षों से हमने गौर किया कि व्याकरण में बहुत ज्यादा त्रुटियाँ विद्यार्थियों से बहुत ज्यादा हो रही थीं तो हमने अब उच्च शिक्षा में, बी.ए. की कक्षा में भी व्याकरण को शामिल किया जो पिछले कई वर्षों से, लंबे समय से कम हो गया था । इस विचार से कि स्कूल से विद्यार्थी व्याकरण पढ़कर आएंगे तो बार – बार व्याकरण उन्हें क्यों पढ़ाया जाए? लेकिन विद्यार्थियों के जीवन को देखकर, विद्यार्थियों की व्यावहारिक स्थिति को देखकर यह तय किया गया कि व्याकरण को स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम में लाया जाए । इस प्रकार पारम्परिक शिक्षा तो दी जा रही है लेकिन चूंकि सेमेस्टर हो गया है, पेपर बढ़ गये हैं, पेपर की संख्या बढ़ा दी गयी है तो पारम्परिक शिक्षा के कोर्स को भी थोड़ा कम किया गया है और उन जगहों पर व्यावहारिक शिक्षा को लाया जा रहा है, लागू किया जा रहा है ।
प्र. पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया में प्राध्यापकों और विद्यार्थियों को किस तरह शामिल किया जा रहा है ?
बी.ए. में तो इस वर्ष से नया पाठ्यक्रम लागू हो गया । इस वर्ष दाखिला लेने वाले विद्यार्थी नया पाठ्यक्रम ही पढ़ेंगे । शिक्षकों से राय मशवरा तो आजकल लिया ही जाता है, आधिकारिक रूप से भी और अनौपचारिक रूप से शिक्षकों की राय मानकर के, चुनकर और सुनकर ही । राय -परामर्श चूंकि अधिक नहीं हो पाया था इसलिए हमने सिर्फ एक वर्ष का यानी दो सत्रों का ही पाठ्यक्रम बनाया और बाकी सारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना अभी बाकी है और इसमें शिक्षकों की पूरी राय लोकतांत्रिक पद्धति से ली जा सके, इसके लिए हिन्दी का सहायक शिक्षा बोर्ड, उच्च शिक्षा बोर्ड, उसने यह तय किया कि इस प्रकार की कई कार्यशालाएं आयोजित की जाएं, जैसी कि कलकत्ता गर्ल्स कॉलेज में आयोजित की गयी जिससे अध्यापक अपनी ओर से अपनी राय तो बताएं ही कि कौन सा विषय रखना है, किन – किन विषयों में, किसको – किसको शामिल करना है, साथ ही प्रश्न कैसे बनेंगे, इसको लेकर हम लोगों की एक योजना है कि हम एक विस्तृत प्रश्न बैंक तैयार करेंगे तो प्रश्न बैंक होने पर अध्यापकों को पढ़ाने में सुविधा होगी, प्रश्न तैयार करने वालों को प्रश्नपत्र तैयार करने में सुविधा होगी, परीक्षकों को कॉपी देखने में सुविधा होगी और विद्यार्थियों को पढ़ने में सबसे अधिक सुविधा होगी ।
प्र. आमतौर पर पाठ्यक्रम में महिला रचनाकारों को समुचित स्थान नहीं मिल पाता, नये पाठ्यक्रम में क्या कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे ?
यह योजना तो है कि महिला लेखन में सिर्फ एक महिला को शामिल कर लिया जाए, पूरे पाठ्यक्रम के अंत में, और वहाँ जाकर खुद को संतुष्ट कर लेना है तो इस भावना को छोड़कर आगे बढ़ना है क्योंकि यह पाठ्यक्रम ऐसे समय में बन रहा है जब स्त्री विमर्श अपनी परिपक्वता के दौर में आ चुका है । पुराने समय की भी अनेक विस्मृत कवयित्रियाँ, विस्मृत लेखिकाएं, इनका परिचय हमें प्राप्त हो रहा है । अभी हमने जितने पेपर बनाये हैं, उसके अन्तर्गत तो यह कार्य नहीं हो सका क्योंकि हमने मध्यकालीन काव्य तक, और आधुनिक युग में छायावादी काव्य तक ही पहुँच पाए हैं । फिर हमें भी अपनी सीमा का ध्यान रखना पड़ता है कि अगर हम अपने पाठ्यक्रम में 4-5 कवियों या लेखकों को ही स्थान दे सकते हैं तो उन रचनाकारों को गुणवत्ता की दृष्टि से, रचनात्मक संतुलन की दृष्टि से और आलोचकों के विचार से, सभी कसौटियों पर कसकर यह देखना होगा कि किसी एक स्थापित रचनाकार के स्थान पर किसी एक महिला रचनाकार को अगर रखने जाते हैं तो उनका प्रामाणिक ग्रन्थ उपलब्ध होना चाहिए । सिर्फ छिटपुट रचनाओं के आधार पर हम उन्हें पाठ्यक्रम में स्थान दे दें, ये करने की स्थिति में हम अभी नहीं हो पाए हैं लेकिन निश्चय ही हम लोगों ने इस बात पर विचार किया है कि स्त्री लेखन को, स्त्री रचनाकार को, पूरी धारा के बाद अन्त में एक पैराग्राफ में छोड़ा जाता है, उससे स्त्री को कहें, दलित को कहें, हाशिए के विमर्श को, आदिवासी के विमर्श को कहें, इनको हम एक पैराग्राफ में सीमित रखकर नहीं छोड़ेंगे बल्कि जिन रचनाकारों की चर्चा आज चल रही है, जिनकी प्रामाणिक रचनाएं उपलब्ध हैं, उनको हम पाठ्यक्रम में स्थान देंगे ।