Tuesday, April 8, 2025
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डिंगल काव्य धारा की सशक्त मगर उपेक्षित कवयित्री झीमा चारिणी

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, हिंदी के आदिकालीन साहित्य में प्रचुर परिमाण में चारण काव्य लिखा गया था। साहित्य के सुधी पाठक जानते हैं कि चारण कवि प्राय: राजा के दरबार या उनके संरक्षण में रहते थे, बहुधा उनके साथ युद्ध में भी भाग लेते थे और अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में काव्य रचना किया करते थे। इन्हें बंदी या भाट कहकर भी संबोधित किया जाता था। कालांतर में चारणों की पहचान एक विशेष जाति या वर्ग के रूप में भी बनी। उन्होंने आश्रयदाताओं के प्रशस्ति गायन के अतिरिक्त अन्य कार्य भी किए। चारण काव्य के रचनाकारों के रूप में प्राय: पुरुष रचनाकारों के नाम ही मिलते हैं लेकिन अपवादस्वरूप कुछ स्त्रियों ने भी चारण काव्य लिखा जैसे- झीमा चारिणी, पद्मा चारिणी आदि। इनकी चुनिंदा कविताओं अथवा पदों को संपादित पुस्तकों में संकलित किया गया है और कुछ रचनाएँ इन्टरनेट पर भी उपलब्ध हैं। जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह द्वारा संपादित “स्त्री काव्य धारा” में भी आदिकालीन एवं मध्यकालीन विस्मृत लेकिन महत्वपूर्ण कवयित्रियों की रचनाओं को सहेजा गया है जिन्हें साहित्य के इतिहास ग्रंथों में अमूमन जगह नहीं मिली है। सखियों, आज मैं आपको झीमा चारिणी से मिलवाऊंगी, जिनका नाम भी बहुत से लोगों ने नहीं सुना होगा।

झीमा कच्छ देश के अंजार नगर के निवासी मालव जी चारण, जिनका संबंध बरसड़ा शाखा से था, की कनिष्ठ पुत्री थीं। पिता तो व्यापारी थे लेकिन पुत्री ने अपनी जाति की वास्तविक पहचान या गुणों के अनुरूप काव्य रचना की। कहा जाता है कि एक चारण युवक ने इनका अपमान किया था और उन्होंने शपथ ली थी कि वह किसी चारण युवक से विवाह नहीं करेंगी। अत: इनका विवाह जैसलमेर के तणोट निवासी भाटी बुध के साथ हुआ था। इनके जन्म वर्ष या मृत्यु काल के बारे में तो ठीक से जानकारी नहीं मिलती लेकिन इतना पता अवश्य मिलता है कि इनका रचनाकाल संवत १४८० के आस -पास था। आलोचकों के अनुसार इनकी लेखनी बहुत सशक्त और प्रेरक थी। जिस तरह महाकवि बिहारी ने अन्योक्तिपरक दोहा, “नहिं पराग नहिं मधुर मधु…” लिखकर नवोढ़ा पत्नी के प्रेम में आपादमस्तक डूबे राजा जयसिंह को चेताया था, ठीक उसी तरह झीमा ने भी अपनी प्रेरक कविता द्वारा गागरोण गढ़ के राजा अचलदास खींची जो लालादे के प्रति अनुरक्त थे, को समझाइश दी और वे हमेशा के लिए अपनी पत्नी उमा दे सांखली के प्रति समर्पित हो गये। वह पद आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-

“धिन ऊमादे साँखली, तें पिव लियो भुलाय । 

 

सात बरसरो बीछड्या, ता किम रैन विहाय ।। 

 

किरती माथे ढल गई, हिरनी लूँवा खाय । 

 

हार सटे पिय आणियो, हँसे न सामो थाय ।। 

 

चनण काठरो टालिया, किस्तूरियाँ अवास । 

 

धण जागे पिय पौढयो, बालू औधर बास ।। 

 

लालाँ लाल मेवाड़ियॉ, उमा तीज बल भार । 

 

अचल ऐराक्यॉ ना चढ़ै, रोढ़ाँ रो असवार ।। 

 

काले अचल मोलावियो, गज घोडाँ रे मोल । 

 

देखत ही पीतल हुओ, सो कडल्याँ रे बोल ।। 

 

धिन्य दिहाडो धिन घड़ी, मैं जाण्यो थो आज । 

 

हार गयो पिव सो रह्यो, कोइ न सिरियो काज ।। 

 

निसि दिन गर्ई पुकारताँ, कोइ न पूगी दाँव । 

 

सदा बिलखती धण रही, तोहि न चेत्यो राव ।। 

 

ओढ़न झीणा अंवरा, सूतो खूँटी ताण । 

 

ना तो जाग्या बालमो, ना धन मूक्यो माँण ।। 

तिलकन भागो तरुणि को, मुखे न बोल्यो बैण । 

 

माण कलड़ छूटी नहीं, आजेस काजल नैण ।। 

 

खीची से चाँहे सखी, कोई खीची लेहु । 

 

काल पचासाँ में लियो, आज पचीसाँ देहु ।। 

 

हार दियाँ छेदो कियो, मूक्यो माण मरम्म । 

 

ऊँमाँ पीवन चक्णियो, आडो लेख करम्म ।।”

झीमा के पदों में ह्रदय के सघन भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है जो पाठकों को सहजता से बाँध लेती है। इनकी कविता का भावपक्ष और कलापक्ष दोनों अंत्यंत समृद्ध है। डिंगल काव्य धारा में उनका अवदान महत्वपूर्ण है लेकिन इसके बावजूद  इनका उल्लेख बहुत कम पुस्तकों में मिलता है। झीमा की कविता का एक उदाहरण देखिए जिसमें एक बार पुनः उमा का प्रसंग उपस्थित हैं।

“लाला मेवाड़ी करे बीजो करे न काय । 

 

गायो झीमा चारिणी, ऊमा लियो गुलाय ।। 

 

पगे बजाऊँ गूधरा, हाथ बजाऊँ तुंब । 

 

ऊमा अचल मुलावियो, ज्यूँ सावन की लुंब ।। 

 

आसावरी अलापियो, धिनु झीमा धण जाण । 

 

धिण आजूणे दीहने, मनावणे महिराण ।।”

विरहिणी नायिका का दुख वर्णित करते हुए झीमा ने अपनी कलम को मानो दर्द की स्याही में डुबो दिया है। भारतीय दांपत्य जीवन की परंपरा में पत्नी का पति के अलावा और कोई अवलंबन नहीं होता था। अगर पति रूठ जाए या किसी अन्य स्त्री के प्रति अनुरक्त हो जाए  तो पत्नी का सारा संसार ही सूना हो जाता है, भले ही वह रानी हो या साधारण स्त्री। विरहिणी स्त्री की पीड़ा का अत्यंत मर्मस्पर्शी वर्णन प्रस्तुत पद में हुआ है-

” माँग्या लाभे जब चरण, मौजी लभे जुवार । 

 

माँग्या साजन किमि मिल, गहली मूढ गँवार ।। 

 

पहो फाटी पगडो हुओ, विछरण री है बार । 

 

ले सकि थारो बालमो, उरदे म्हारो हार ।।”

सावित्री सिन्हा ने अपनी पुस्तक “मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ” में झीमा चारिणी के साहित्यिक अवदान को रेखांकित करते हुए लिखा है- 

“झीमा की कहानी उस अंधकारमय नारी के इतिहास में जुगनू की चमक की भाँति दिखाई देती है. कई युद्धों के अवसर पर उसने चारिणी का कार्य किया। कला और सौन्दर्य की कोमलता में राजनीति और युद्ध की कटुता मिलाकर उसने एक नई भावना को जन्म दिया।”

सखियों, इसके बावजूद हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने झीमा चारिणी की बहुत उपेक्षा की है। उनके प्रति साहित्यकारों की यह उपेक्षा वस्तुतः  हमारे समाज की या उस युग विशेष की मानसिकता को स्पष्ट करती है जिसके तहत स्त्री का कार्यक्षेत्र अत्यंत सीमित होता है और इसका अतिक्रमण करके किये गये हर कार्य की, वह कितना भी महत्वपूर्ण क्यों ना हो, अवमानना या उपेक्षा ही की जाती है। आइए, इस उपेक्षा के घाव को समादर के मलहम से भरने का प्रयास करें। झीमा चारिणी जैसी विस्मृत कवयित्रियों की कविताओं को जन- जन तक पहुँचाकर ही हम इनके प्रति हुए अन्याय का प्रतिरोध कर सकते हैं।

 

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