भोपाल : जिन्दगी भर सपनों और अपनों के साथ जीने वाले जिन्दगी के आखिरी सोपान में परायों के बीच अपनों को तलाशते हुए खुशियों को सहेजने की कोशिश कर रहे हैं। जिन्दगी में जहां उन्हें बहुत खुशियां दीं वहीं बहुत गम भी दिए हुए हैं। शायद इसीलिए वह लोग अब जिन्दगी के उस पूरे हिस्से को बिसार कर नया जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं। शहर में बुजुर्गों के लिए बने अनेक वृद्धाश्रमों में दीपावली के मौके पर लगभग यही नजारा दिखाई पड़ा।
कोलार रोड पर बने वृद्धाश्रम ‘अपने घर’ का नजारा कुछ अलग ही दिखाई पड़ रहा था। यहां पर सभी बुजुर्ग त्यौहार के अवसर पर गुझियों सहित पकवान बनाने में लगे थे। मानो इस घर और इसमें रहने वालों के अलावा वे किसी को जानते ही नहीं। इनमें से जब चेरहों और उनके पीछे छिपे दर्द को जानना चाहा तो ऐसी कहानियां उभर कर सामने आईं जिन्हें सुन पत्थर दिल भी पिघल जाए।
अंजनी श्रीवास्तव– भोपाल शहर रहने वाली हैं। इनके पति पोस्ट आॅफिस में थे, वैसे तो यह इनका दूसरा विवाह था। बिन के हो जाने पर तीनों बच्चों की मां बनकर आईं। यही बच्चे उनकी जिन्दगी बन गए। पढ़ाया लिखाया और विवााह भी किए। उनके बच्चों को भी लोरी सुना बड़ा किया अब इनकी आवश्यकता नहीं रह गई थी इसलिए बच्चों को इनके अन्दर सौतेलापन दिखने लगा। एक मंदिर पर छोड़ दिया गया। फिर कुछ दिन बाद अपना घर का पता चलने पर यहां लेकर आए कि अगले गुरूवार को ही इन्हें घर ले जाएंगे। लेकिन तीन वर्ष बीत गए, गुरुवार नहीं आया और न ही बच्चे देखने आए। तब से यही इनका घर के अलावा सब कुछ।
आशा गोप- जबलपुर की रहने वाली आशा गोप के खुद के कोई संतान नहीं थी। अत: भाई के बच्चे को गोद लिया था। उसी में अपनी जिन्दगी देखने लगीं। सब कुछ ठीक चल रहा था। पति की मृत्यु के बाद उस गोद ली हुई संतान का भी रंग बदलना शुरू हो गया। घर की मरम्मत के नाम पर होटल में कुछ दिन के लिए कमरा किराए से लिया कि आठ-दस दिन में किराए से घर लेकर रहेंगे। मरम्मत के बाद अपने घर में वापस आ जाएंगे। वहां छोड़कर जो गया फिर वापस ही नहीं आया। मोबाइल नं. बदल चुका था। पल्ले पड़ा सिर्फ इंतजार। होटल वाले के द्वारा किराया मांगे जाने पर कान के टॉप्स और गले में पहनी चैन को बेचकर होटल का किराया चुका जब वापस अपने घर पहुंची, तो वहां जाकर मालुम हुआ कि यह घर तो उनका रहा ही नहीं। इसका मालिक तो अब कोई और है। पेपर आदि में कभी ‘अपने घर’ की छपने वाली खबरें पढ़कर दूसरों के लिए दु:ख होता था, उसी की राह पकड़ यहां आ गईं।
शीला ठाकुर- इनकी कहानी भी एक अलग ही कहानी गढ़ती है। दो बेटे हैं, पति छोटा बेटा जब सवा माह का हुआ तो कहीं चले गए तो वापस नहीं आए। उनके साधु बन जाने और कभी वापस न आने की खबर के साथ इंतजार खत्म हुआ। पुस्तैनी संपत्ति पर जेठ ने कब्जा कर लिया। किसी तरह बच्चोंं को पाला। जेठ को डर लग गया कि कहीं यह संपत्ति का हिस्सेदार न बन जाए तो उसे अपने साथ थोड़ी-थोड़ी शराब पिलाने लगे, दूसरा छोटा बेटा बहुत सीधा था उसे डरा-धमका कर भगा दिया। बड़ा बेटा अब मां से शराब के लिए पैसे मांगने लगा, नहीं देने पर इतना मारा कि आंख फोड़ दी। पिपरिया पर खड़ी ट्रेन में बैठ गईं, हबीबगंज उतर गईं। अंधेरा होते देख आंखों के सामने और जिन्दगी में छाए अंधेरे से घबरा चुपचाप रो रहीं थी। जी.आर.पी. पुलिस की निगाह पड़ी उन्होंने ‘अपना घर’ फोन किया और तब से इस घर की सदस्य हैं।
ग्वालियर की साधना पाठक – शादी के एक साल के अन्दर ही जिन्दगी पर पहाड़ टूट पड़ा। बेटी के जन्म की खुशियां मना रहे थे। पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाईं कि डेंगू बुखार में चली गई। कुछ दिनों बाद पति की भी डेंगू बुखार में मृत्यु हो गई। प्राइवेट स्कूल होने से कुछ नहीं मिला। ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। तब से वृद्धाश्रम ही उनका घर है, यहां रहने वाले ही उनका परिवार, बाकी किसी को अब वे जानती ही नहीं।
निर्मला अय्यर- पति एम.पी.ई.व्ही. में थे, दो बेटों के जन्म ने मानो उन्हें स्वर्ग दे दिया था। ठाठ-बाट से ब्याह कर बहुएं आईं। बेटों की विदेश में नौकरी लग गई। सब ठीक चल रहा था, अचानक पति की मृत्यु हो गई। बेटे आए पर मां को लेने नहीं, यहां की संपत्ति को बेचकर अपना-अपना हिस्सा लेने। चुपचाप मकान बेच दिया, मां को कानोकान खबर भी नहीं हो पाई साइन भी करा लिए। वापस जाने के आठ-दस दिन पूर्व से मां को खिड़के से बांध मुंह में कपड़ा ठूंस मारा जाता। कान और नाक में पहने सोने की चीजों को खींच कर उतारा गया कि उनके कान और नाक फट गए, खून बह कर सूख चुका था। मां को खिड़की से बंधा और मकान को खुला छोड़ कब चले गए किसी को पता नहीं चला। खाली मकान में पड़ोस के बच्चों द्वारा छुपन-छुपाई खेलने पर वह बंधी मिली। पुलिस ने ‘अपने घर’ फोन कर पहुंचाया।
राममोहिनी – जज बन कई जिन्दगियों के फैसले किए। पर उनका खुद का फैसला ही गलत हो गया। नाक पर गुस्सा रहता था। फिर किसी के द्वारा बोले गए अपशब्द कैसे सहन कर पातीं। कोर्ट में किसी कर्मचारी के द्वारा कुछ कह देने पर पेपरबेट फेंक कर मारा। नौकरी गई, पर समझौता नहीं किया। उस वक्त तक विवाह हुआ नहीं था। बीमार होने पर परिवार के लोग हॉस्पिटल की बैंच पर बैठाकर गायब हो गए। किसी के फोन करने पर अपना घर के सदस्य उन्हें लेकर आए। आज तो मानसिक स्थिति ही खराब हो गई। अब वे गंदगी कर उसे पैरों से उचाट देती हैं। उनके लिए एक सफाई कर्मी को लगाना पड़ा है। यह खर्चा उनकी बहन आकर वहन करती है।
चांद भाई (कश्मीर के)- यह भी लगभग आठ-दस साल से यहीं हैं। वे भी किसी को नहीं जानते, बस यह उनका घर है और इसमें रहने वाले सभी सदस्य उनका परिवार।
किशन बत्रा – विवाह भी नहीं हो पाया था कि माता-पिता चल बसे। बड़े भाईयों के मन में लालच आ गया। उन्हें कमरे में भूखा-प्यासा बंद रखा जाता था। उन्हें पागल करने के लिए इंजेक्शन दिए जाते थे। महीनों इस कहर को सहने के बाद एक दिन मौका मिलने पर भाग निकले। दूर शहर में एक डेयरी पर काम करने लगे लेकिन हर समय डरे और सहमे रहते थे। डेयरी मालिक ने प्यार से कारण पूछा। सुन वह भी दंग रह गए, उनकी सुरक्षा की दृष्टि से यहां पहुंचाया।
इनके अलावा कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनों के दर्द को छुपाए तो हैं लेकिन जुबां पर नहीं आने दे रहे। भीग रही आंखों से आंसुओं को रोक रहे हैं, रुंधे गले की आवाज में उत्साह और उमंग घोलने की कोशिश कर रहे हैं। पर मुंह से बच्चों के लिए आशीश देते हुए यह कह रहे हैं कि नहीं हमारे बच्चे बेहद अच्छे हैं, हम उन्हें परेशान नहीं करना चाहते। हम आजाद पंछी हैं इससे उन्हें परेशानी होगी। हम सुबह पांच बजे उठकर उनकी नींद खराब नहीं करना चाहते। हमारे बच्चे दिन भर व्यस्त रहते हैं ऐसे में हम कैसे उन्हें परेशान करें। हमारे बच्चे हमारे लिए रोते हैं, जब इच्छा होती है वे यहां आ जाते हैं और जब हमारी इच्छा होती है हम वहां जाकर जब तक मन करता है, रहकर आते हैं। यह कितना सच है यह तो सुनने पर ही आभास हो जाता है। इनमें कोई जज है तो कोई आईपीएस अधिकारी रहा है तो कोई अन्य महत्वपूर्ण पद पर। लेकिन आज इन सबके साथ आज कोई दीपावली का पहला दीपक जला रहा था तो कोई अपना जन्मदिन भी इन्हीं अपनों के बीच मना रहा था तो कोई इस त्यौहार पर इन सबको नए कपड़े पहना कर खुद पहनना चाह रहा था। इन्हीं में पीपुल्स थिएटर ग्रुप भोपाल की सिन्धु धौलपुरे ने अपने अन्य साथियों के साथ इन बुजुर्गों का आशीर्वाद ले अपने जन्मदिन का केक काटा तो वहीं भोपाल की समाज सेवी समता अग्रवाल जो हर त्यौहार इन बुजुर्गों और स्लम एरिया के बच्चों के साथ ही मनाती हैं। दीपावली पांच दिन के त्यौहार में धनतेरस का पहला दीपक इन बुजुर्गों के साथ ही मनाया तो वहीं अगला दिन वे स्लम एरिया के बच्चों में पटाखे और मिठाई के साथ डांस कर खुशियों को बांटा।