नयी दिल्ली । सुधा मूर्ति एक उद्यमी, एजुकेटर, लेखिका और समाज सुधारक होने के साथ-साथ इन्फोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन भी हैं। उन्हें ‘भारत की फेवरेट ग्रैनी’ भी कहा जाता है। लेकिन इस सबके अलावा सुधा मूर्ति, भारतीय परिवहन उद्योग के एक बड़े बदलाव से भी जुड़ी हैं।
सुधा मूर्ति टाटा मोटर्स की पहली महिला इंजीनियर थीं। लेकिन उन्हें यह पोजिशन हासिल होने के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। यह वह वक्त था, जब भारत की सबसे बड़ी वाहन निर्माता कंपनी टेल्को महिलाओं की नियुक्ति नहीं करती थी। लेकिन सुधा मूर्ति ने तस्वीर बदल दी और कंपनी में पहली महिला इंजीनियर बन गईं।
साल 1974 का वक्त….जब सुधा, सुधा कुलकर्णी थीं। बात साल 1974 की है। उस वक्त सुधा, सुधा कुलकर्णी थीं और बेहद बोल्ड हुआ करती थीं। वह IISc बेंगलुरु से कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स के अंतिम वर्ष में थीं। तब वह इंस्टीट्यूट टाटा इंस्टीट्यूट (Tata Institute) के नाम से जाना जाता था। सुधा पोस्ट ग्रेजुएट विभाग में अकेली लड़की थीं और लेडीज हॉस्टल में रहती थीं। अन्य लड़कियां विज्ञान के विभिन्न विभागों में रिसर्च कर रही थीं। सुधा को अमेरिका में पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप मिली हुई थी और वह वहां जाने की तैयारी कर रही थीं। उन्हें भारत में नौकरी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। https://www.tata.com/ पर उपलब्ध साल 2019 में जेआरडी टाटा (JRD Tata) के लिए सुधा मूर्ति द्वारा लिखे गए एक लेख के मुताबिक, 1974 का शायद अप्रैल महीना था। एक दिन सुधा को लेक्चर-हॉल परिसर से अपने हॉस्टल के रास्ते में, नोटिस बोर्ड पर एक विज्ञापन दिखा। विज्ञापन प्रसिद्ध ऑटोमोबाइल कंपनी टेल्को [अब टाटा मोटर्स] में एक अच्छी नौकरी को लेकर था। इसमें कहा गया था कि कंपनी को युवा, होनहार, मेहनती और उत्कृष्ट शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले इंजीनियरों की जरूरत है। लेकिन विज्ञापन के नीचे एक लाइन भी लिखी थी- ‘महिला उम्मीदवारों को आवेदन करने की आवश्यकता नहीं है ( लेडी कैंडिडेट्स नीड नॉट अप्लाई)।’
ठान ली कि आवाज उठानी है
सुधा को नौकरी में दिलचस्पी नहीं थी लेकिन उन्हें यह लाइन पढ़कर बेहद गुस्सा आया और उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने की सोची। यह पहली बार था, जब सुधा लैंगिक भेदभाव के खिलाफ खड़ी हो रही थीं। दिलचस्पी न होने के बावजूद उन्होंने इसे एक चुनौती की तरह देखा। सुधा अपनी पढ़ाई में अधिकांश पुरुष साथियों की तुलना में काफी अच्छी थीं लेकिन तब उन्हें यह पता नहीं था कि जीवन में सफल होने के लिए केवल अकादमिक योग्यता पर्याप्त नहीं है। नौकरी की वह नोटिस पढ़ने के बाद सुधा ने तय कर लिया था कि वह टेल्को के प्रबंधन के सर्वोच्च व्यक्ति को कंपनी द्वारा किए जा रहे अन्याय के बारे में सूचित करेंगी।
सीधा जेआरडी टाटा को लिख डाला खत
लेकिन उन्हें पता नहीं था कि टेल्को किसकी अगुवाई में चल रही है। लेकिन उन्होंने सोचा कि यह टाटा परिवार में से ही कोई व्यक्ति होगा। हालांकि उन्हें यह पता था कि जेआरडी टाटा, टाटा समूह के प्रमुख हैं। ये और बात है कि उस वक्त टेल्को के चेयरमैन सुमंत मूलगांवकर थे। लेकिन चूंकि सुधा को इस बारे में नहीं पता था तो उन्होंने जेआरडी टाटा को पत्र लिखने का फैसला किया। उन्होंने एक पोस्टकार्ड लिया और लिखा, ‘महान टाटा (टाटा परिवार) हमेशा अग्रणी रहे हैं। वे, वे लोग हैं जिन्होंने भारत में बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर उद्योग जैसे लोहा व इस्पात, रसायन, कपड़ा और लोकोमोटिव को शुरू किया। उन्होंने 1900 से भारत में उच्च शिक्षा की देखभाल की है और उन्होंने ही इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस को स्थापित किया। सौभाग्य से मैं वहां पढ़ती हूं, लेकिन मुझे आश्चर्य है कि टेल्को जैसी कंपनी कैसे लिंग के आधार पर भेदभाव कर रही है।’
जब 10 दिनों के अंदर ही आ गया जवाब
सुधा ने यह पत्र को पोस्ट कर दिया और इसके बारे में भूल गईं। 10 दिनों के अंदर ही, उन्हें एक टेलिग्राम मिला जिसमें कहा गया था कि उन्हें कंपनी के खर्च पर टेल्को की पुणे फैसिलिटी में एक इंटरव्यू के लिए उपस्थित होना है। यह टेलिग्राम पाकर सुधा हैरान रह गईं। उनके हॉस्टल के साथियों ने उन्हें फ्री में पुणे जाने और सस्ते में पुणे की प्रसिद्ध साड़ियां खरीदने के मौके का फायदा लेने को कहा। जिन्हें साड़ी चाहिए थी, उन सभी ने सुधा को 30 रुपये भी दिए। जैसा कि सुधा को कहा गया था, वह इंटरव्यू के लिए पिंपरी कार्यालय में पहुंचीं। पैनल में छह लोग थे और उन्हें एहसास हुआ कि यह इंटरव्यू वास्तव में गंभीरता से किया जा रहा है। जैसे ही सुधा कमरे में घुसीं, उन्होंने किसी को धीरे से यह कहते हुए सुना कि यह वही लड़की है जिसने जेआरडी को लिखा था। तब तक सुधा इस बात को मन ही मन पक्का कर चुकी थीं कि उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी और इस एहसास ने उनके दिमाग से सारे डर को खत्म कर दिया।
फिर शुरू हुआ इंटरव्यू
इंटरव्यू शुरू होने से पहले ही सुधा यह मान चुकी थीं कि पैनल पक्षपाती है, इसलिए उन्होंने अशिष्टता से कहा, ‘मुझे आशा है कि यह केवल एक तकनीकी साक्षात्कार है।’ सुधा की इस बद्तमीजी से वे लोग हैरान रह गए। लेकिन फिर इंटरव्यू शुरू हुआ। पैनल ने तकनीकी प्रश्न पूछे और सुधा ने उन सभी का उत्तर दिया। तभी एक बुजुर्ग सज्जन ने स्नेही स्वर में सुधा से कहा, ‘क्या आप जानती हैं कि हमने क्यों कहा कि महिला उम्मीदवारों को आवेदन करने की जरूरत नहीं है? इसका कारण यह है कि हमने कभी भी शॉप फ्लोर पर किसी महिला को नियुक्त नहीं किया है। यह को-ऐड कॉलेज नहीं है, यह एक फैक्ट्री है। जहां तक अकादमिक योग्यता की बात है, तो आप पहले स्थान पर हैं। हम इसकी सराहना करते हैं, लेकिन आप जैसे लोगों को प्रयोगशालाओं में काम करना चाहिए।’
‘कहीं से तो शुरुआत करनी होगी…’
सुधा एक छोटे शहर हुबली की एक युवा लड़की थीं, लिहाजा उन्हें बड़े कारपोरेट घरानों के तरीकों और उनकी मुश्किलों के बारे में पता नहीं था। उन्होंने उस बुजुर्ग सज्जन को जवाब दिया, ‘लेकिन आपको कहीं से तो शुरुआत करनी होगी, नहीं तो कोई भी महिला कभी भी आपकी फैक्ट्रियों में काम नहीं कर पाएगी।’ आखिरकार एक लंबे इंटरव्यू के बाद सुधा को नौकरी दी गई और उनकी जिंदगी बदल गई। उन्होंने डेवलपमेंट इंजीनियर के तौर पर पुणे में कंपनी को जॉइन किया और उसके बाद मुंबई व जमशेदपुर में भी काम किया। पुणे में ही सुधा की मुलाकात नारायण मूर्ति से हुई और वह सुधा कुलकर्णी से सुधा मूर्ति बन गईं। उन्होंने 1982 में टेल्को को छोड़ा।
जेआरडी को मानती हैं महान व्यक्ति
आज इंजीनियरिंग कॉलजों में लड़के और लड़कियों की संख्या बराबर ही है। साथ ही कई इंडस्ट्री सेगमेंट्स में शॉप फ्लोर पर महिलाएं काम करती हैं। जब भी सुधा यह बदलाव देखती हैं तो उन्हें जेआरडी टाटा याद आते हैं। सुधा मूर्ति, जेआरडी टाटा को महान व्यक्तियों में रखती हैं। उनका कहना है कि बेहद व्यस्त व्यक्ति होने के बावजूद, उन्होंने न्याय की मांग करने वाली एक युवा लड़की द्वारा लिखे गए एक पोस्टकार्ड को महत्व दिया। जबकि उन्हें रोज हजारों पत्र मिलते होंगे। वह उनके भेजे पत्र को फेंक सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने एक ऐसी अनजान लड़की के इरादों का सम्मान किया, जिसके पास न तो प्रभाव था और न ही पैसा। साथ ही उसे अपनी कंपनी में मौका दिया। जेआरडी टाटा ने ओनली मेल इंप्लॉइज पॉलिसी यानी सिर्फ पुरुष कर्मचारी नीति को बदला।