जब तक विकल्प की तलाश रहेगी तब तक लघु पत्रिकाएँ जीवित रहेंगी

 

कोलकाता : अच्छा संपादक वही हो सकता है जो अच्छा साहित्यकार होता है। ई-पत्रिकाएँ नई रचनाशीलता की देन हैं। प्रतिरोध से बड़ी चीज सहयोग, प्रेम और आदर है। ये बातें आज भारतीय भाषा में आयोजित दो दिवसीय साहित्यिक पत्रिका सम्मेलन के दूसरे दिन ‘ई-साहित्यिक पत्रिकाओं की दशा और दिशा’ विषय पर पहले सत्र के अध्यक्ष और ‘प्राची’ पत्रिका के संपादक भारत यायावर ने कही। इस आयोजन में देश भर के लगभग 50 से भी अधिक साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों ने हिस्सा लिया। सभागार में साहित्यिक प्रेमियों की उपस्थिति भी अच्छी-खासी रही।  इसी सत्र के दूसरे अध्यक्ष मृत्युंजय कुमार सिंह ने कहा कि आने वाले दिनों में ई माध्यमों की बाढ़ आने वाली है। हमें तय करना होगा कि इस बाढ़ को कहाँ बांधें और कहाँ रोकें। इसमें सब कुछ बह न जाए।
‘शायरी’ के संपादक सहाब अख्तर ने ई-पत्रिकाओं पर बातें करते हुए कहा कि मुद्रित पत्रिका हमेशा आपके पास रहती है। यह लाइफ टाइम इन्वेस्टमेंट की तरह है। ई-पत्रिका आपको दिगभ्रमित करने वाली हैं क्यों यहाँ 30 प्रतिशत से अधिक बातें ऐसी हैं जो होकर भी नहीं होती हैं। इस सत्र में ई-वेब ‘भारती भारती’ के लोकार्पण करते हुए इसके संपादक मृत्युंजय ने कहा कि आज सबसे बड़ा व्यवसाय शब्दों का है। हम कोलाहल के दौर में जी रहे हैं जहाँ हमें कुछ सुनाई नहीं दे रहा। सोशल मीडिया पर आप बड़ा प्रतिरोध पैदा नहीं कर सकते पर विद्रोह फैला सकते हैं।
ई-पत्रिका ‘अनहद’ के संपादक विमलेश त्रिपाठी ने कहा कि अभी ई-पत्रिकाओं का शैशव काल चल रहा है। अगले 20 सालों में वह वक्त आएगा जब पूरी पीढ़ी किंडर वर्सन में बदल जाएगी। बनास जन से जुड़े गणपत तेली ने कहा कि समय के बदलने के साथ तकनीक ने भी अपना रूप बदला है। जब भी कोई नई चीज आती है पीढ़ी का टकराव होता ही है। इन्होंने प्रोजेक्टर के माध्यम से ई-पत्रिकाओं का एक विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया।
इस सत्र का संचालन राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता के अनुवादक विनोद यादव ने किया। धन्यवाद ज्ञापन परिषद के अध्यक्ष कुसुम खेमानी ने दिया।
दूसरे सत्र के अध्यक्ष प्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने ‘साहित्यिक पत्रिकाओं का भविष्य’ विषय पर कहा कि जब तक विकल्प की तलाश जारी रहेगी, लघुपत्रिकाएँ जीवित रहेंगी। लघु पत्रिकाएँ तब तक निकलती रहेंगी जब तक सौंदर्य की भूख बनी रहेगी। साहित्यिक मूल्यों का निर्माण लघु पत्रिकाएँ ही करती हैं। इस सत्र के दूसरे अध्यक्ष ‘परिकथा’ के संपादक शंकर ने कहा कि साहित्य की दुनिया में जितने लोग बचे हुए हैं वे सबसे अधिक संवेदनशील हैं। इन 20 वर्षों का दौर लघु पत्रिका के शिथिल होने का दौर है। ई-पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है और लघु पत्रिका के पाठक वर्ग ही विभाजित होकर ई पत्रिकाओं के पाठक बने हैं। आज का पाठक वर्ग साहित्यिक पत्रिका के माध्यम से राजनीति, अर्थनीति जैसी बातों को भी समझने की अपेक्षा रखते हैं। वक्ताओं में ‘अनहद’ के संपादक रविकांत ने कहा कि लघु-पत्रिकाओं को आज की युवा पीढ़ी से जोड़ना होगा। उनके जुड़े बिना चौतरफे हमले से बचना मुश्किल है। ‘चौपाल’ के संपादक कामेश्‍वर प्रसाद सिंह ने कहा कि संपादक को सबसे पहले स्वयं को नकारात्मकता के भाव से निकलना होगा, क्योंकि बिना सकारात्मकता के पत्रिका निकालना संभव नहीं है। ‘मुक्तांचल’ की संपादक मीरा सिन्हा ने कहा कि पत्रिका का कार्य संवाद तैयार करना है। संवादों की निरंतरता बनाए रखने के लिए लघु पत्रिका पढ़ना बेहद जरूरी है। पत्रिका को पत्रिका रहने दें, बाजार के लालच में न पड़े। ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज ने कहा कि वर्तमान रहकर उसे समझते हुए भविष्य से जुड़ना होगा। आज का समय संवदेनाविहीन है, इसमें पत्रिका निकालना थेथरई करना है। जब तक मन है, साहित्य भी रहेगा और संवेदना भी रहेगी।
सत्र का संचालन युवा कवि संजय राय ने किया। धन्यवाद ज्ञापन सुशील पांडेय ने दिया। तीसरे सत्र में ‘पढ़ने की संस्कृति : पाठक कहाँ हैं?’ विषय पर अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने की। प्रधान वक्ता के तौर पर श्रीप्रकाश शुक्ल, ‘वसुधा’ के संपादक राजेंद्र शर्मा, ‘आलोचक’ के संपादक जीवन सिंह, ‘वरिमा’ के संपादक नलिनरंजन सिंह, कवि और पत्रकार अभिज्ञात, ‘बस्तर पाति’ के संपादक सनत कुमार जैन, ‘सोच विचार’ के संपादक नरेंद्रनाथ मिश्र एवं ‘जनपथ’ के संपादक सुधीर सुमन जी ने अपनी सारगर्भित विचारों से श्रोताओं का समृद्ध किया।
संचालन खिदिरपुर कॉलेज की प्रोफेसर इतु सिंह ने किया, धन्यवाद ज्ञापन शोधार्थी मधु सिंह ने किया।
इसके पूर्व संगोष्ठी के पहले दिन ‘साहित्यिक पत्रिका सम्मेलन’ के प्रथम सत्र में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ विषय पर प्रसार भारती के पूर्व सीइओ जवहर सरकार ने विचार रखे। वागर्थ के सम्पादक डॉ. शम्भुनाथ ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि पढ़ने की संस्कृति लुप्त हुई लेकिन इसके इतर ई-पत्रिका के माध्यम से कई ग्लोबल पाठक भी तैयार हुए हैं। कार्यक्रम में इतनी बड़ी संख्या में लोगों के शामिल होने का मतलब है कि अभी भी पत्रिका की उस दीर्घ परंपरा में विश्‍वास बचा हुआ है जो साहस का संचार करता है। सांस्कृतिक जागरूकता के बिना राजनीतिक जागरूकता संभव नहीं है। पत्रिकाओं में मतभेद हो मगर आपसी संवाद बना रहना चाहिए। प्रथम सत्र के मुख्य वक्ता वैभव सिंह ने कहा कि आज अगर कोई अपनी असहमति व्यक्त कर रहा है तो वह लघु पत्रिकाएँ ही हैं। इन दिनों विचारों पर व्यवसायीकरण का एक बड़ा खतरा दिख रहा है। आज विचारों के तौर पर लोगों को रूढ़िवादी बनाए रखने की कोशिश चल रही है। अगर ये साहित्यिक पत्रिकाएँ बंद हो जाएँ तो बहुत सारी साहित्यिक विधाएँ खत्म हो जाएंगी। ‘वर्तमान साहित्य’ के पूर्व संपादक विभूतिनारायण राय ने कहा कि आज का कार्यक्रम एक रुकी हुई यात्रा को आगे बढ़ाने का कार्यक्रम है। पश्‍चिम की तरफ से मुँह मोड़कर सिर्फ अपने भीतर सीमित रहकर विचार करना संभव नहीं है। कार्यक्रम के अध्यक्ष खगेंद्र ठाकुर ने कहा कि जो व्यावसायिक पत्रिकाएँ नहीं हैं वही साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं। लेकिन व्यवसाय को ध्यान में रखे बिना पत्रिका निकालना मुश्किल है। यह हमारा समय नहीं है, यह उनका समय है जिनका शासन चल रहा है।
पहले सत्र का स्वागत भाषण देते हुए परिषद की अध्यक्ष कुसुम खेमानी ने कहा कि आज पत्रिका निकालना कितना श्रमसाध्य और अर्थसाध्य काम है। सत्र का संचालन पीयूषकांत ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन परिषद के मंत्री नंदलाल शाह ने दिया।
दूसरे सत्र में ‘लघु पत्रिकाओं के समक्ष वर्तमान चुनौतियाँ’ विषय पर बोलते हुए ‘किरण वार्ता’ के संपादक शैलेंद्र राकेश ने कहा कि आज साधन के अभाव में पत्रिकाएँ बंद हो रही हैं अतः पत्रिकाओं का आपसी लेन-देन बहुत महत्वपूर्ण है। कई पत्रिकाओं के संपादक आज ऐसी पहल कर भी रहे हैं। ‘अक्सर’ पत्रिका के सहायक संपादक सुभाष चंद्र ने कहा कि विमर्श की जमीन तैयार करने का काम लघु पत्रिकाओं ने ही किया है। पत्रिकाओं को गुणवत्ता से समझौता नहीं करनी चाहिए। आज महिला संपादकों का अभाव दिखता है। इस पर ध्यान देने की जरूरत है। ‘डहर’ पत्रिका के संपादक अनुज लुगुन ने लघु पत्रिकाओं पर हो रहे सरकारी दमन की बात की। कुछ पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है, इसका अर्थ है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना तथा उस समुदाय को खत्म करना जो उस पत्रिका का समर्थन करते हैं।
‘पक्षधर’ पत्रिका के संपादक विनोद तिवारी ने कहा कि सोशल मीडिया के आने पर रचनाशीलता तो बढ़ी है लेकिन अच्छी रचनाओं की कमी दिखती है। लघु पत्रिकाएँ हमें अपसंस्कृति से निकाल कर संस्कृति की ओर ले जाती हैं। ‘अक्सर’ पत्रिका के संपादक हेतु भारद्वाज ने कहा कि लघु पत्रिकाओं की सबसे बड़ी चुनौती साहस की है। सोशल मीडिया तो एक शगल है। लघु पत्रिका कई चुनौतियों को लेकर चलती है। पत्रिकाओं का संपादन करना खुद को स्वाह कर देने जैसा है। अध्यक्षीय भाषण देते हुए ‘कथन’ के संपादक रमेश उपाध्याय ने कहा कि हस्तक्षेप और पक्षधरता के बिना पत्रिका निकालने की कल्पना नहीं की जा सकती है। लघु पत्रिका का उद्देश्य नई रचनाशीलता को लाना है। युवाओं को इस कार्य से जोड़ना भी लघु पत्रिका का लक्ष्य रहा है।इस सत्र का संचालन विद्यासागर विश्‍वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर संजय जायसवाल ने किया। धन्यवाद ज्ञापन सुशील कान्ति ने किया। तीसरे सत्र में ‘सोशल मीडिया : संभावनाएँ और दिशाएँ’ विषय पर वक्ता के रूप में ‘दिशाबोध’ के संपादक राजाराम भादू, ‘अक्सर’ के उप संपादक गोविंद माथुर, ‘कथानक’ के संपादक अनुज, ‘कथादेश’ के संपादक हरिनारायण ने अपने विचार प्रकट किए। संचालन ‘सदीनामा’ के संपादक जितेंद्र जीतांशु ने किया।

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