Friday, August 15, 2025
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जन्माष्टमी विशेष : श्रीकृष्ण हैं शाश्वत एवं प्रभावी सृष्टि संचालक

भगवान श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के ऐसे अद्वितीय हैं, जिनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक ऊँचाई, लोकनायकत्व, व्यावहारिक बुद्धिमत्ता और कुशल प्रबंधन का अद्भुत संगम दिखाई देता है। वे केवल एक धार्मिक देवता नहीं, बल्कि सृष्टि के महाप्रबंधक, समय के श्रेष्ठ रणनीतिकार और जीवन के महान शिक्षक-संचालक भी हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन इस बात का प्रमाण है कि सही प्रबंधन के बिना न तो राष्ट्र का संचालन संभव है, न ही व्यक्ति का उत्थान। उन्होंने यह सिखाया कि प्रबंधन केवल योजनाओं और नीतियों का नाम नहीं, बल्कि भावनाओं, विवेक, नीति और समय के सामंजस्य का विज्ञान है। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे। श्रीकृष्ण के आदर्शों से ही देश एवं दुनिया में शांति स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त होगा। श्रीकृष्ण के प्रबंधन रहस्य को समझना होगा कि उन्होंने किस प्रकार आदर्श राजनीति, व्यावहारिक लोकतंत्र, सामाजिक समरसता, एकात्म मानववाद और अनुशासित सैन्य एवं युद्ध संचालन किया। राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए किस तरह की नीति और नियत चाहिए- इन सब प्रश्नों के उत्तर श्रीकृष्ण के प्रभावी प्रबंधन सूत्रों से मिलते हैं, आधुनिक शासक-नायक यदि श्रीकृष्ण के मैनेजमेंट को प्रेरणा का माध्यम बनाये तो दुनिया में युद्ध, आतंक एवं अराजकता की स्थितियां समाप्त हो जाये एवं एक आदर्श समाज-निर्माण को आकार दिया जा सके। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व एवं कृतित्व नेतृत्व एवं प्रबंधन की समस्त विशेषताओं को समेटे बहुआयामी एवं बहुरंगी है, यानी राजनीतिक कौशल, बुद्धिमत्ता, चातुर्य, युद्धनीति, आकर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, सुख, दुख और न जाने और क्या? एक देश-भक्त के लिए श्रीकृष्ण भगवान तो हैं ही, साथ में वे जीवन जीने की कला एवं सफल नागरिकता भी सिखाते है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय-संस्कृति में उच्च महाप्रबंधक का पद प्राप्त किया। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित थे। धार्मिक, राजनैतिक एवं सामाजिक जगत् में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया। अपनी योग्यताओं के आधार पर वे युगपुरुष थे, जो आगे चलकर युवावतार के रूप में स्वीकृत हुए। उन्हें हम एक महान् क्रांतिकारी नायक के रूप में स्मरण करते हैं। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक थे। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में भी हम इन्हीं प्रबंधकीय विशेषताओं का दर्शन करते है, क्योंकि श्रीकृष्ण के जीवन-आदर्शों को आत्मसात करते हुए वे एक कुुशल प्रबंधक के रूप में सशक्त भारत-नया भारत निर्मित कर रहे हैं।

श्रीकृष्ण ने द्वारका के शासक होते हुए भी कभी अपने को ‘राजा’ कहलाने में रुचि नहीं दिखाई। वे ब्रज के नंदलाल थे, ग्वालों के सखा, गोपियों के प्रियतम, और साथ ही धर्म के रक्षक भी। उनका जीवन दर्शाता है कि एक सच्चा नेता पद और सत्ता से नहीं, अपने कर्म और दृष्टिकोण से पहचाना जाता है। उन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच अद्भुत संतुलन साधा-एक ओर वे महाभारत जैसे महायुद्ध के नीति निर्देशक थे, तो दूसरी ओर रास की मधुर लीलाओं में प्रेम और आनंद के स्वर बिखेरते थे। उनका प्रबंधन कौशल इस बात में स्पष्ट झलकता है कि अत्याचारी कंस को पराजित करने से पहले उन्होंने उसकी आर्थिक शक्ति को कमजोर किया। यह आधुनिक रणनीति की दृष्टि से भी सर्वाेत्तम तरीका था, पहले प्रतिद्वंद्वी की संसाधन शक्ति को समाप्त करो, फिर निर्णायक प्रहार करो। यही व्यावहारिक सोच उन्हें आदर्श मैनेजमेंट गुरु बनाती है। महाभारत के युद्ध में वे स्वयं अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाते, लेकिन रथसारथी बनकर अर्जुन के मानसिक संकट को दूर करते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि एक श्रेष्ठ प्रबंधक स्वयं अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर मार्गदर्शन देता है, लेकिन अपनी टीम को ही सफलता का श्रेय देता है। गीता का उपदेश वास्तव में प्रबंधन का अमरसूक्त है, कर्तव्य के साथ कर्म में निष्ठा, परिणाम से अनासक्ति, समय पर निर्णय लेने की क्षमता और परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बदलने की लचीलापन। उन्होंने सिखाया कि असफलता का भय और परिणाम की चिंता व्यक्ति को कमजोर करती है, जबकि कर्तव्यपरायणता और आत्मसंयम सफलता की गारंटी है। श्रीकृष्ण की दृष्टि में इच्छाओं का त्याग, मन की स्थिरता, और विवेकपूर्ण कार्य-ये जीवन प्रबंधन के मूल सूत्र हैं। उनके व्यक्तित्व में असंख्य भूमिकाएं समाहित थीं, एक ओर वे सुदामा के लिए अद्वितीय मित्र हैं, तो दूसरी ओर दुष्ट शिशुपाल के वध में धर्म के कठोर संरक्षक। वे नंदगांव में माखन चुराने वाले नटखट बालक हैं, लेकिन वही आगे चलकर कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध के नीति निर्माता भी हैं। यही विरोधाभासों का संतुलन उन्हें अद्वितीय बनाता है। उन्होंने दिखाया कि कब करुणामय होना है और कब कठोर, कब प्रेम करना है और कब दुष्टता का दमन करना है, यह निर्णय केवल वही कर सकता है जो परिस्थितियों को भलीभांति समझता हो और समय का सदुपयोग जानता हो। श्रीकृष्ण एक आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृजवासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं। उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वैश्वर्य सम्पन्न थे। धर्म की साक्षात् मूर्ति थे। कुशल राजनीतिज्ञ थे। सृष्टि संचालक के रूप में एक महाप्रबंधक थे।  श्रीकृष्ण की समय-नियोजन क्षमता अद्भुत थी। 64 दिन में 64 कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना इस बात का प्रमाण है कि जीवन में सीखने की गति और बहुआयामी दक्षता ही नेतृत्व की असली पहचान है। वे संगीत, नृत्य, युद्धकला, राजनीति, कूटनीति और दर्शन-हर क्षेत्र में पारंगत थे। एक श्रेष्ठ प्रबंधक की तरह उन्होंने न केवल अपनी क्षमताओं का विकास किया, बल्कि अपने समय और संसाधनों का सर्वाेत्तम उपयोग भी किया। श्रीकृष्ण की राजनीतिक दृष्टि इतनी सूक्ष्म थी कि वे राजसत्ता को धर्मसत्ता के अधीन रखना चाहते थे। उनके जीवन में राष्ट्रहित सर्वाेपरि था। उन्होंने विषमताओं को समाप्त करने, शत्रुता मिटाने और समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए हर संभव प्रयास किया। उनके लिए सत्ता कोई व्यक्तिगत लाभ का साधन नहीं, बल्कि लोककल्याण का माध्यम थी। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने सत्ता का त्याग करने में भी संकोच नहीं किया। उनका ग्रामीण संस्कृति के प्रति प्रेम भी उल्लेखनीय है। माखनचोर की उनकी छवि केवल बाललीला नहीं, बल्कि उस समय की निरंकुश कर-व्यवस्था का प्रतिकार और ग्रामीण स्वावलंबन का समर्थन भी थी।

(साभार – प्रभासाक्षी)

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