नयी दिल्ली । झुग्गी-झोपड़ी के बच्चे चांदनी को ‘चांदनी दी’ के नाम से जानते हैं। वह आज ‘वॉयस ऑफ स्लम’ की संस्थापक हैं। 2016 में 18 साल की उम्र में उन्होंने इस संस्था की शुरुआत की थी। यह एनजीओ झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चों की शिक्षा के लिए काम करता है। चांदनी इन बच्चों के दर्द को दूसरों की तुलना में कहीं ज्यादा महसूस कर सकती हैं। वजह है कि चांदनी ने कभी खुद यह जिंदगी जी है। उनका ताल्लुक सड़क पर तमाशा दिखाने वाले परिवार से था। छह साल की उम्र में पिता के साथ वह गांव-गांव शहर-शहर यह काम करती थीं। किसी तरह पेट पल जाता था। दुख का पहाड़ तब टूटा जब अचानक चांदनी के सिर से पिता का साया उठ गया। तब वह 10 साल की भी नहीं थीं। उनके दो और छोटे भाई-बहन थे। पिता के गम में मां का हाल बुरा हो गया था। परिवार का पेट पालने की जिम्मेदारी चांदनी पर आ गई थी। उन्होंने कूड़ा बीनना शुरू कर दिया। फूल और भुट्टे बेचे। उन्होंने वह समय देखा है जब उनसे लोगों ने ‘ऐ लड़की!’ ‘ओ!’ ‘कितने पैसे लेगी तू मेरे साथ चलने के…’ यहां तक कहा। लेकिन, चांदनी इन सबको सहकर आगे बढ़ती गईं और कारवां बनता गया। आज अपनी संस्था के जरिये वह न केवल सैकड़ों बच्चों को पढ़ा रही हैं, बल्कि उनकी सशक्त आवाज भी हैं।
बहुत छोटी उम्र से चांदनी झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्चों के लिए काम कर रही हैं। 10 साल की उम्र में वह ‘बढ़ते कदम’ नाम के संगठन से जुड़ गई थीं। यह संगठन गरीब बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी जरूरतें पूरी करता है। चांदनी के कड़वे अनुभव उन्हें इस संस्था के पास तक लेकर गए। चांदनी का जन्म 1997 में हुआ था। पिता सड़क पर तमाशा दिखाया करते थे। छह साल की उम्र में वह भी पिता के काम का हिस्सा बनी गई थीं। लेकिन, अचानक एक दिन पिता नहीं रहे। घर पर चूल्हा जलना बंद हो गया। करीब एक साल तक परिवार ने भरपेट खाना नहीं खाया। परिवार का पेट पालने के लिए चांदनी मां के साथ कूड़ा बीनने लगीं। घर में उनके दो और छोटे भाई-बहन भी थे।
सुबह तड़के कूड़ा बीनने निकल पड़ती थीं
चांदनी सुबह तीन बजे तड़के सड़क पर कूड़ा बीनने निकलती थीं। वह ऐसा बिल्कुल करना नहीं चाहती थीं। लेकिन, परिवार चलाने के लिए यह जरूरी था। फिर कूड़ा बीनना छोड़ उन्होंने फूल बेचना शुरू किया। लोग बहुत गंदी तरीके से बात करते थे। इसी दौरान उन्होंने ध्यान दिया कि कुछ लोग सड़कों पर बच्चों को पढ़ाने के लिए आते हैं। वह वहां जाकर पढ़ने लगीं। उन्हें एहसास था कि बस यही एक चीज है जिससे जिंदगी को बदला जा सकता है। फूल बेचने का काम बंद करके उन्होंने भुट्टे बेचने का काम शुरू कर दिया। भुट्टा खरीदने के लिए उन्हें नोएडा से दिल्ली जाना पड़ता था। वह करीब 50 किलो भुट्टा लेकर आती थीं। इसके लिए उन्हें सुबह 4 बजे मंडी पहुंचना पड़ता था। कारण यह था कि समय बढ़ने के साथ मंडी में भाव बढ़ते जाते थे। गाड़ी भी नहीं मिलती थी। इसी तरह एक भयावह हादसे के कारण वह कई दिनों तक घर से नहीं निकली ।
झुग्गी में रहने वाले बच्चों की बन गईं आवाज
चांदनी ने सोचा इस तरह से तो काम नहीं चलेगा। वह घर में बंद रहकर कैसे रह सकती हैं। उनका घर कैसे चलेगा। और लोग भी तो काम करते हैं। उन्हें क्या-क्या नहीं सहना पड़ता होगा। बाल अधिकार के बारे में उन्होंने और जानकारी हासिल की। जब चांदनी 18 साल की हुईं तो देव प्रताप सिंह के साथ ‘वॉयस ऑफ स्लम’ की शुरुआत की। 2016 में शुरू हुआ यह एनजीओ झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्चों के लिए काम करता है। यह उन्हें अपनी बात कहने के लिए मंच भी मुहैया करता है। ‘बालकनामा’ के जरिये भी चांदनी इन गरीब बच्चों की बातों को सामने लाती हैं। ‘बालकनामा’ दिल्ली से प्रकाशित होने वाला अखबार है जो सड़क पर रहने वाले बच्चे निकालते हैं। इसमें उस तरह के सभी विषय उठाए जाते हैं जिनसे सड़क पर रहने वाले बच्चों की जिंदगी पर असर पड़ता है। चांदनी ने इस अखबार में रिपोर्टर से सम्पादक तक का सफर तय किया है।