गोपाल दास नीरज : मौन हुई ‘हिंदी की वीणा’

नयी दिल्ली : कवि और गीतकार गोपाल दास नीरज शब्दों के ऐसे चितेरे कि उनके व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना मुश्किल, वाचिक परंपरा के ऐसे सशक्त हस्ताक्षर कि मंच पर उनकी मौजूदगी लोगों को गीत और कविता सुनने का शऊर सिखा दे, जिंदादिली ऐसी कि शोखियों में फूलों का शबाब घोल दें और मिजाज ऐसा मस्तमौला कि कारवां गुजर जाने के बाद लोग गुबार देखते रहें।उनके जाने से हिंदी साहित्य का एक भरा भरा सा कोना यकायक खाली हो गया। वह अपने चाहने वालों के ऐसे लोकप्रिय और लाड़ले कवि थे जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा से हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया और उनके बाद उभरे बहुत से गीतकारों में जैसे उनके ही शब्दों का अक्स नजर आता है।
गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ का जन्म 4 जनवरी 1924 को इटावा जिले के पुरावली गांव में हुआ। मात्र छह साल की उम्र में पिता ब्रजकिशोर सक्सेना नहीं रहे और उन्हें एटा में उनके फूफा के यहां भेज दिया गया। नीरज ने 1942 में एटा से हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और परिवार की जिम्मेदारी संभालने इटावा वापस चले आए। गोपाल दास रोजी रोटी की तलाश में निकले तो शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर भी नौकरी की। कुछ समय बाद वह भी जाती रही तो छोटे मोटे काम करके जैसे तैसे मां और तीन भाइयों के लिए दो रोटी का जुगाड़ किया।
कुछ समय बाद नीरज को दिल्ली के सप्लाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी मिली तो कुछ राहत हो गई। नौकरी के दौरान पढ़ने लिखने का सिलसिला चलता रहा और इसी दौरान कलकत्ता में एक कवि सम्मेलन में शामिल होने का मौका मिला। उनके गीतों की खूश्बू अब फैलने लगी थी और इसी के चलते ब्रिटिश शासन में सरकारी कार्यक्रमों का प्रचार प्रसार करने वाले एक महकमे में नौकरी पा गए। नीरज को जब यह लगने लगा था कि जिंदगी पटरी पर लौट रही है तभी उनके लिखे एक गीत के कारण उन्हें नौकरी गंवानी पड़ी और वह कानपुर वापस लौट आए। बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट की नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर उन्होंने 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बीए और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एमए किया।
1955 में उन्होंने मेरठ कॉलेज में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य किया, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये । कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को फिल्मी दुनिया ने गीतकार के रूप में ‘नई उमर की नई फसल’ के गीत लिखने का न्यौता दिया और वह खुशी खुशी अपने सपनों में रंग भरने के लिए बम्बई रवाना हो गए। उनका लिखा एक गीत ‘कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे’ जैसे उनके नाम का पर्याय बन गया और जीवनपर्यंत देश विदेश का ऐसा कोई कवि सम्मेलन नहीं था, जिसमें उनके चाहने वालों ने उनसे वह गीत सुनाने की फरमाइश न की हो।
उनके गीतों की चमक ऐसी बिखरी कि लगातार तीन बरस तक उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवार्ड मिला। 60 और 70 के दशक में उन्होंने फिल्मी दुनिया के गीतों को नये मायने दिए और फिर बंबई से मन ऊब गया तो 1973 में अलीगढ़ वापस चले आए। बाद में बहुत इसरार पर फिल्मों के लिए कुछ गीत लिखे । गोपालदास नीरज के व्यक्तित्व और उनकी लेखनी के जादू को युवा कवि कुमार विश्वास कुछ इन शब्दों में ब्यां करते हैं, ‘‘जैसे किसी सात्विक उलाहने के कारण स्वर्ग से धरा पर उतरा कोई यक्ष हो। यूनानी गठन का बेहद आकर्षक गठा हुआ किंतु लावण्यपूर्ण चेहरा, पनीली आंखें, गुलाबी अधर, सुडौल गर्दन, छह फुटा डील डौल, सरगम को कंठ में स्थायी विश्राम देने वाला मंद-स्वर, ये सब अगर भाषा के खांचे में डालकर सम्मोहन की चांदनी में भू पर उतरें तो जैसे नीरज जी कहलाएं।’’

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