गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वर:।

गुरु: साक्षात्परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:।।

गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।

गुरु शब्द में है अंधकार और प्रकाश का महत्व

गुरु की पूजा से परब्रह्म की प्राप्ति होती है। ज्ञान की प्राप्ति होती है और जीवन के सार से साक्षात्कार होता है। इसलिए धर्मशास्त्रों में गुरु-शिष्य परंपरा की विशेष महत्ता बताई गई है। शास्त्रों के अनुसार ‘गुरु’ शब्द में उसका महत्व छिपा हुआ है। ‘गु’ शब्द का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ शब्द का अर्थ है प्रकाश। यानी गुरु मानव को अंधकार से प्रकाश की और ले जाते हैं। अपने शिष्य के जीवन में ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं और अपने शिष्य के सफल जीवन के लिए उचित मार्गदर्शन करते हैं।

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाए जाने के कई ऐतिहासिक पौराणिक कारण हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार हजारों वर्ष पहले इसी तिथि पर आदि गुरु शिव ने सप्तऋषियों को ब्रह्म के बारे में ज्ञानोपदेश देना आरंभ किया था तबसे आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाने लगा। इसी तिथि को गौतम बुद्ध तथा जैन तीर्थंकर महावीर ने अपने प्रथम शिष्य बनाए और गुरु के रूप में अपने कार्य की शुरुआत की। यह दिन बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र है।

महर्षि वेदव्यास का हुआ था जन्म
मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही ब्रह्मसूत्र, महाभारत, श्रीमद्भागवत और 18 पुराण जैसे अद्भुत साहित्यों की रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। इसलिए इस पर्व को गुरु व व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। हमें अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। ज्योतिषाचार्य पंडित राजनाथ झा के मुताबिक सदियों से चली आ रही गुरु शिष्य की परंपरा का निवर्हन गुरु पूर्णिमा पर देखने को मिलता है। शिष्य देश-विदेश में कहीं भी हो इस मौके पर गुरु पूजन के लिए अवश्य पहुंचते हैं। राजधानी पटना के गुरु बलराम के शिष्य देशभर में हैं। पर गुरु पूर्णिमा पर उनके शिष्य गुरु पूजन को पटना स्थित मातृउदबोधन आश्रम जरूर पहुंचते हैं। हालांकि गुरु बलराम ब्रह्मलीन हो चुके हैं।  चार भागों में वेदों को विभक्त किया  महर्षि वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास तीनों कालों के ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देख कर यह जान लिया था कि कलियुग में धर्म के प्रति लोगों की रुचि कम हो जाएगी। मनुष्य ईश्वर में विश्वास न रखने वाला, कर्तव्य से विमुख और कम आयु वाला हो जाएगा। एक बड़े और सम्पूर्ण वेद का अध्ययन करना उसके बस की बात नहीं होगी। इसलिये महर्षि व्यास ने वेद को चार भागों में बांट दिया। व्यास ने वेदों को अलग-अलग खण्डों में बांटने के बाद उनका नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद रखा। वेदों का इस प्रकार विभाजन करने के कारण ही वह वेद व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद का ज्ञान अपने प्रिय शिष्यों वैशम्पायन, सुमन्तुमुनि, पैल और जैमिन को दिया।