गंगोत्री ग्लेशियर में हो रहा ये बड़ा बदलाव

 

ग्लेशियरों के खिसकने के चिंताजनक तथ्यों के बीच एक अच्छी खबर है। वैज्ञानिकों के मुताबिक गंगोत्री ग्लेशियर के खिसकने की दर कम हुई है। एक दशक पहले तक यह ग्लेशियर हर वर्ष करीब 12 मीटर खिसक रहा था लेकिन इसके खिसकने की गति अब 10 मीटर पर आ गई है। गंगोत्री ग्लेशियर पर साल 1999 से अध्ययन कर रहे जीबी पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान कोसी कटारमल के वैज्ञानिकों ने यह परिवर्तन पाया है।

संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक इंजीनियर किरीट कुमार ने बताया कि 2004-05 के दौरान गंगोत्री ग्लेशियर के पीछे खिसकने की दर करीब 12 मीटर प्रति वर्ष थी। लेकिन दस वर्षों के भीतर इस ग्लेशियर के पीछे जाने की दर में कमी आई है। अब यह हर साल करीब 10 मीटर पीछे खिसक रहा है। ऐसा इस सीजन में वहां हुई अधिक बर्फबारी और इंसानी गतिविधियों को नियंत्रित करने की वजह से हुआ है।
बता दें कि गंगोत्री ग्लेशियर, गोमुख का मूल स्वरूप पिघलने और टूटने के कारण खो गया है। जीबी पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान कोसी कटारमल के वैज्ञानिक 1999 से गंगोत्री ग्लेशियर पर अध्ययन कर रहे हैं।

वैज्ञानिक अगले तीन साल तक धौलीगंगा नदी के उद्गम क्षेत्र में स्थित बालिंग और नेवला ग्लेशियरों का अध्ययन करेंगे। अध्ययन के अंतर्गत ग्लेशियरों के पीछे खिसकने और पिघलने की दर, ग्लेशियरों से डिस्चार्ज होने वाले पानी की मात्रा, वेग आदि के बारे में आंकड़े जुटाए जाएंगे। वैज्ञानिकों ने इन दोनों ग्लेशियरों के सर्वेक्षण का कार्य शुरू कर दिया है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक कुमाऊं में स्थित पिंडारी, मिलम, कफनी, सुंदरढूंगा, रालम आदि ग्लेशियर भी हर साल पीछे खिसक रहे हैं। पिंडारी ग्लेशियर के सिकुड़ने की दर ज्यादा तेज है। भौगोलिक परिस्थितियों के कारण पिंडारी ग्लेशियर को बीते वर्षों में काफी नुकसान पहुंचा है और यह ग्लेशियर काफी टूट भी चुका है। यह हर साल औसतन 22-23 मीटर पीछे खिसक रहा है। पिथौरागढ़ जिले में स्थित मिलम ग्लेशियर के पीछे खिसकने की दर 17-18 मीटर प्रति वर्ष है। कुमाऊं में स्थित अन्य ग्लेशियर भी औसतन 10 से 15 मीटर पीछे खिसक रहे हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के कुछ कारण प्राकृतिक तो कई मानवजनित हैं। पृथ्वी का तापमान बढ़ना भी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का एक कारण है। मानवजनित कारणों में प्रदूषण, ग्लेशियरों के निकट इंसानी गतिविधियों का बढ़ना है जिनपर रोकथाम से नुकसान को कम किया जा सकता है।

 

 

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