सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, राजस्थान के राजघरानों में साहित्य- संवर्धन की सुदीर्घ गौरवमय परंपरा रही है। राज- काज के साथ साहित्य, कला और संगीत को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करने में यहाँ के राजा-महाराजों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। राजघराने की रानियाँ भी इस मामले में पीछे नहीं रहीं। पुरूषों में जहाँ जोधपुर के महाराजा मानसिंह, तख्तसिंह आदि समेत कई नाम गिनाए जा सकते हैं वहीं रानियों में तीजण भटियाणी अर्थात प्रताप कुंवरि बाई सहित कई ऐसी रानियों के नाम लिए जा सकते हैं जिन्होंने साहित्य- साधना में अपना जीवन न्योछावर दिया। भले ही साहित्य सृजन का रास्ता भक्ति की राह से होकर निकला लेकिन इससे न रचयिता का महत्व कम करके आंका जा सकता है ना रचना का। कुछ राम को अपना आराध्य देव मानती थीं तो कुछ कृष्ण को। रामभक्ति के प्रति समर्पित कुछ रानियों का जिक्र मैं पहले कर चुकी हूं। आज मैं एक कृष्ण भक्त कवयित्री से आपको परिचित करवाऊंगी जो इतिहास के पन्नों पर बहुत ज्यादा स्थान तो नहीं घेरतीं लेकिन साहित्य के प्रति इनके समर्पण को अनदेखा नहीं किया जा सकता। सखियों, मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि ऐश्वर्य के सागर में डूबी रानियों का जीवन बहुधा बहुत से मानसिक कष्टों से घिरा होता था। साथ ही राजमहल में बहुत तरह के षडयंत्र भी हुआ करते थे। शायद इनसे मुक्ति का मार्ग भक्ति में ही दिखाई देता था। संभवतः इसीलिए राजकुल की रानियों ने राम और कृष्ण के प्रति स्वयं को समर्पित करते हुए उनसे अपने उद्धार की विनती बार- बार की है। मुक्ति कामना का स्वर इन रानियों की रचनाओं में प्रमुखता से गुंजरित होता है। सुख -समृद्धि के बीच आखिर वह कौन सी ऐसी छटपटाहट या वेदना थी जो भौतिक सुखों को त्यागकर रानियों को आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर करती थी, इसके उत्तर इतिहास के पन्नों में ही नहीं छिपे हैं बल्कि मानव मनोविज्ञान की किताबों में भी ढूंढे जा सकते हैं। अतिव्यस्त महाराजा पतियों से प्राप्त उपेक्षा या प्रेम का अभाव इन रानियों को एक ऐसे काल्पनिक जगत में ढकेल देता था जहाँ अराध्य प्रेमी में और प्रेमी अराध्य में बदल जाता था और भौतिकता के बंधनों को काटकर ये रानियाँ अपने प्रभु की भक्ति में स्वयं को लय कर देना चाहती थीं। रानी रणछोड़ कुंवरि के काव्य में भी बंधनों की पीड़ा और छटपटाहट को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है और मुक्ति के लिए लगाई गई गुहार भी साफ- साफ सुनाई देती है। इस गुहार में मध्ययुगीन स्त्री की पीड़ा- वेदना की आवाजें घुली- मिली हैं।
रानी रणछोड़ कुंवरि बाघेली जी रीवां राज्य के महाराजा विश्वनाथ प्रसाद के भ्राता बलभद्रसिंह की पुत्री थीं। इनका जन्म संवत् 1946 में हुआ था। इनका विवाह जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह से संवत 1961 में हुआ था। रणछोड़ कुंवरि जी राजस्थान की अधिकांश शिक्षित राजकुमारियों और महारानियों की तरह कृष्ण की उपासक थीं और उनकी अराधना में उन्होंने पदों की रचना की थी। राजकीय जीवन में सुख समृद्धि के प्राचुर्य के बावजूद वह अपने आराध्य गोविंद लाल से स्वयं को भौतिक कष्टों से उबारने की याचना करती हैं। मुक्ति की आकांक्षा का स्वर इनके पदों में मुखर हो उठा है। एक पद देखिए-
“गोविन्द लाल तुम हमारे, मोहे दुख में उबारे|
मै सरन हूँ कि तिहारे, तुम, काल कष्ट टारे||
हो बाघेली के प्यारे, सिरक्रीट मुकुट वारे।
छोनी छटा को पसारे, मोहिनी सूरत न निसारे।।”
हालांकि इस पद में कोई शिल्प का चमत्कार या भाषा की कलाबाजी नहीं है लेकिन सहज मन का प्रेम और विरही आत्मा की व्याकुल पुकार को साफ- साफ महसूस कराया जा सकता है जो अपने प्रेमी या आराध्य से प्रार्थना करती है कि उसे दुखों के दलदल से उबारकर मोक्ष प्रदान करे। अपने अराध्य देव के रूप पर मुग्ध भक्त कवयित्री एक प्रेयसी की भांति उनके नाम के साथ अपना नाम जोड़कर प्रसन्न और आश्वस्त होती है।
कृष्ण के ही एक और नाम वाली रणछोड़ कुंवरि जी अपने पदों में बार- बार गोविंद को स्मरण करती हैं और बताती हैं कि किस प्रकार उन्हें सुमिरने से मन निर्मल हो जाता है और मानव मात्र को मुक्ति का पथ सहजता से प्राप्त हो जाता है। एक और पद देखिए-
“आभा तो निर्मल होय सूरज किरण उगे से,
चित्त तो प्रसन्न होय गोविन्द गुण गाये सें|
पीतल तो उज्जवल रेती के मांजे से,
हृदय में जोति होय गुरु ज्ञान पाये सें||
भवन में विक्षेप होय दुनियां की संगति से,
आनंद अपार होय गोविन्द के धाये से||
मन को जगावो अरु गोविन्द के सरन आबो,
तिरने के ये उपाय गोविन्द मन भाये सें||”
रणछोड़ कुंवरि बाघेली जी के किसी स्वतंत्र काव्य ग्रंथ के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन इनके बहुत से भक्तिभाव से पूरित पद और कवित्त मिलते हैं जिनमें कृष्ण के मनमोहक स्वरूप का वर्णन मिलता है। कृष्ण के स्वरूप और चरित वर्णन के द्वारा कवयित्री उनके प्रति अपनी निष्ठा को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं और कृष्ण के प्रति समर्पण और उनकी सेवा में ही भौतिक तथा मानसिक कष्टों से मुक्ति का मार्ग ढूंढती हैं। इनके पदों को पढ़ते हुए मध्ययुगीन स्त्री के जीवन की यंत्रणा और छटपटाहट को महसूस किया जा सकता है।