कई अध्ययनों ने साबित किया है कि जो माता-पिता अपने बच्चों को ‘अत्यधिक अहम’ मानते हैं, यानी ओवर वैल्यू करते हैं, उन बच्चों में आत्ममुग्धता यानी नार्सिस्टिक बिहेवियर देखने को मिलता है, जो डिसऑर्डर में बदल सकता है।
नार्सिसिस्टिक डिसऑर्डर क्या है?
व्यक्ति जब ख़ुद के प्रति बहुत ज़्यादा प्रेम करे, ख़ुद की तारीफ़, ख़ुद को ही महत्व देे और ख़ुद की आवश्यकताओं, इच्छाओं और ख़ुद से ही मतलब रखे, तो इसे नार्सिसिस्टिक पर्सनालिटी डिसऑर्डर (एनपीडी) कहा जाता है।
क्या नतीजे हो सकते हैं?
}अगर बच्चे में आत्ममुग्धता आ जाए, तो वो किसी से नज़दीकी और भरोसे के रिश्ते नहीं बना पाता। समानुभूति यानी दूसरों के भावों को ना समझने की उसकी प्रवृत्ति उसे किसी के करीब नहीं आने देती।
}ऐसे बच्चे किसी और की राय से कभी इत्तेफ़ाक नहीं रख पाते। उन्हें उनकी राय ही सबसे उचित और सही लगती है।
}आत्ममुग्ध बच्चे ख़ुद को बहुत स्पेशल मानते हैं। उनकी प्रतिभाएं विशेष हैं और उनके जैसा कोई और हो ही नहीं सकता -यह विचार उनमें गहरे जमा रहता है।
}ऐसे बच्चे सामाजिक नहीं हो पाते क्योंकि वे किसी और को कुछ नहीं समझते।
कहां है आत्ममुग्ध व्यवहार की जड़ ?
जो चाहिए मिलेगा ही, वे सबसे बेहतर हैं, कोई और मुझे कुछ समझा नहीं सकता, हारना तो हमें आता ही नहीं- ऐसी भावनाएं बच्चों में डालने वाले अभिभावकों के व्यवहार में होती हैं आत्ममुग्धता की जड़ें।
ज़रूरत से ज़्यादा लाड़
बच्चे की ग़लती न देखना, उसकी ग़लतियों पर पर्दा डालना, मुंह मांगी चीज़ तुरंत ला देना, ग़लत करने पर भी हमेशा साथ देना ये कुछ सामान्य कारण हैं जो बच्चों को इस समस्या का शिकार बनाते हैं। बच्चों को लगने लगता है कि वे कुछ भी करेंगे तो अभिभावक उनका साथ तो देंगे ही। इसलिए वे कुछ भी ग़लत करने में हिचकिचाते नहीं हैं।
जीत हर क़ीमत पर
इस तरह के बच्चे हमेशा अव्वल आना चाहते हैं, फिर चाहे बेईमानी से ही क्यों न आएं। हारना या पीछे रहना उन्हें मंज़ूर नहीं होता। बचपन में जब बच्चे कोई खेल खेलते हैं, तो अभिभावक उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए हमेशा जिता देते हैं और फिर यही उनकी मांग बन जाती है। असल ज़िंदगी में या किसी खेल में जब ये बच्चे पिछड़ने लगते हैं तो पीछे रहने के कारण तनाव और अवसाद से घिरने लगते हैं।
ओवर प्रोटेक्टिव
कई माता-पिता बच्चों को लेकर ओवर केयरिंग व ओवर प्रोटेक्टिव होते हैं। किसी अन्य व्यक्ति का उनके बच्चे को समझाना या डांटना उन्हें रास नहीं आता। इसलिए कई बार देखा जाता है कि बच्चों के कारण माता-पिता आसपड़ोस के लोगों से झगड़ने तक पहुंच जाते हैं। फिर बच्चा किसी भी बड़े से मार्गदर्शन लेना पसंद ही नहीं करता।
बढ़ती अपेक्षाएं
जब माता-पिता अपने बच्चे से बहुत ज़्यादा अपेक्षाएं रखते हैं तो बच्चे को ख़ुद को बहुत होशियार या कहें कि समझदार समझने लगते हैं और वे ख़ुद के सामने बाक़ी लोगों को कुछ नहीं समझते। इस कारण उनके दोस्त नहीं बनते और दोस्त बनते भी हैं तो जल्द ही दूर हो जाते हैं।
क्या है निदान?
जितनी कम उम्र में इस व्यवहार की पहचान कर ली जाए, निदान करना उतना ही आसान हो जाता है। बड़े बच्चों के साथ व्यक्तित्व की दूसरी जटिलताएं भी सिर उठाने लगती हैं। कॉग्निटिव बिहेवियर थैरेपी निदान का रास्ता है।
बच्चे की सीमाओं को पहले बड़ों को स्वीकार करना होगा – बच्चे की सीमाओं को जानें, हरफनमौला बनाने या परफेक्ट बनाने की जबरन कोशिश ना करें।
जबरन प्रशंसा ना करें – तुमने बहुत शानदार काम किया’ कहने के बजाय ‘यह काम अच्छा रहा’ जैसी तारीफ़ करें ताकि बच्चा हक़ीक़त से जुड़ा रहे।
वर्तमान में रहें – ‘तुम हमेशा अच्छा काम करते हो’ कहने की बजाय जिस काम की बात हो रही है, बस उसका उल्लेख करें।
जैसे को तैसा – उसे सिखाएं कि वो दूसरों से वैसा व्यवहार करे, जैसे वो चाहता है कि लोग उसके साथ करें। इससे उसमें भावनाओं की समझ विकसित होगी।
तुरंत कुछ नहीं – बच्चे की हर मांग पर तुरंत खड़े हो जाने की बजाय उन्हें एक टाइम फ्रेम दें कि इतने समय में यह काम पूरा होगा और उन्हें सब्र रखना होगा।
हारना कोई बुरी बात नहीं – खेल हो, पढ़ाई के नतीजे या कोई भी काम, कोशिश करके जीत जाना या उच्चांक पाना अच्छी बात है लेकिन किसी और की मेहनत या उसकी जीत से ईर्ष्या करना, उसे नकारना सही नहीं है।
(साभार – दैनिक भास्कर)