रेगिस्तानी धरती से निःसृत साहित्य सपूत,
विधाता ने दिया वाक् शक्ति का मंगल वरदान,
सुरभित है आपका संपूर्ण सृजन संसार,
गूंँजे विश्व में आपका सदैव यश कीर्ति गान।
बंगाल की धरती से मुझे भी जुड़ने का अवसर मिला और सेठिया जी का आशीर्वाद मिला, जिसे मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ । राजस्थान मेरी जन्म स्थली, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय शिक्षा स्थली और बंगाल कार्य स्थली के रूप में तीन प्रदेशों की संस्कृति से जुड़ी । मातृभाषा हाड़ौती, सहयोगी हमजोली भाषा शेखावाटी, अन्य भाषाओं में भोजपुरी, बांग्ला एवं राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और संपर्क भाषा अंग्रेजी से मेरा गहरा संबंध है। बोलचाल और साहित्य में हिंदी भाषा रची बसी हुई है।
सेठिया जी बराबर कहते थे मायण भाषा कदै नहीं छोड़नी चाए। आपणी भाषा में ही सो क्यूँ है? घर में ही बोलो। पर विडंबना ऐसी रही कि मैंने किसी को नहीं छोड़ा लेकिन हिंदी ने हमपर एकाधिकार जमा लिया।
यह सच है कि मायण भाषा में बोलने वालों की कमी आती जा रही है और यही कारण है कि हम डरे हुए भी हैं कि धीरे-धीरे कहीं भाषा का भी वैश्वीकरण न हो जाए। बचाने की कोशिश तो चल रही है।
माता- पिता ही हैं, जो ये काम आगे बढा़ सकते हैं। वैसे तो परिवार, धर्म, ईश्वर, पूजा- पाठ, रीति-रिवाज भी जन्म के अनुसार नहीं हो रहे हैं और न ही कर्म अनुसार ही।
कलकत्ता में बांग्ला भाषा की स्थिति अच्छी थी। अब वह भी कोलकाता बनने में लगा हुआ है। बड़ा बाजार अभी भी मीनी राजस्थान के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा है। बहुत से परिवार कोलकाता के दूसरे अंचलों में बसते जा रहे हैं। आधुनिक पीढ़ी के सोचने का तरीका और सोच में परिवर्तन इसका मुख्य कारण है।
सेठिया जी के जन्म की बात करें तो उनका जन्म सुजानगढ चुरु राजस्थान में 11 सितंबर 1919 में हुआ। पिता छगनलाल सेठिया और माँ मनोहारी देवी की संतान के रूप में सुपुत्र कन्हैयालाल ने अपने कुल का नाम रौशन किया।
1937 में धापू देवी के साथ विवाह बंधन में बंधे। मात्र 19 वर्ष की आयु में ही विवाह हुआ। एक युवा का उत्साह और सपने लिए सेठिया जी उसी राजस्थान की मिट्टी के सपूत थे जिस मिट्टी में महाराणा प्रताप के आत्म गौरव और देशभक्ति के मंत्रों की ध्वनि की टंकार गूंजती रहती है।
महाकवि सेठियाजी उसी राजस्थान की धरती से जन्मे वे रत्न हैं जिनकी ये पंक्तियाँ महाराणा प्रताप के मातृभूमि प्रेम की तरह ही अजर-अमर हैं – –
धरती धोरां री
आ तो सुरगां न सरमावे
इ पर देव रमण न आवे
इरा जस नर नारी गावे
धरती धोरां री।
इस गीत में पूरा राजस्थान समाया हुआ है जो अद्भुत है।
महाकवि सेठियाजी कलम के सिपाही थे जिन्होंने राजस्थान में सामंतवाद को समाप्त करने के लिए जबर्दस्त मुहिम चलाई और पिछड़े वर्ग को आगे लाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।
राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार से सम्मानित सेठिया जी की कलम की ताकत किसी देशप्रेमी रण बांकुरे से कम नहीं थी। उनकी रचना’ जागो जीवन के अभिमानी’ की ये पंक्तियाँ – –
लील रहा मधु ऋतु को पतझर
मरण आ रहा आज चरण धर
कुचल रहा कलि कुसुम
कर रहा अपनी ही मनमानी
जागो जीवन के अभिमानी
देश वासियों को जागरूक करने का ही आह्वान इन पंक्तियों में मिलता है।
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान सेठिया जी करांची में थे। सन् 1943 में कवि महान नेताओं जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के संपर्क में भी रहे।
सुदूर पश्चिम से आकर बंगाल की धरती के प्रति भी सेठिया जी की सहृदयता और संवेदनशीलता एक बच्चे का अपनी माँ के प्रति जुड़ाव की तरह ही था। दोनों ही प्रदेशों की सांस्कृतिक और भाषिक धरातल से जुड़े रहे।
जिस समय सेठिया जी का रचना कर्म अपने सृजन के परवान चढ़ रहा था उस समय नवजागरण काल विकास की सीढ़ियों पर कुलांचे भर रहा था।
वैसे तो अपने लंबे सृजनात्मक अनुभवों को सेठिया जी ने अपने बहुविध काव्य संसार में समेटा है।आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक भारतेंदू हरिश्चंद्र ने भाषा की परिवर्तन शीलता को बहुत पहले ही भांप लिया था जिसका परिणाम हम देख रहे हैं – –
निज भाषा उन्नति अहै सब भाषा को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को शूल। इसकी स्थापना तो हो रही थी। हिंदी मुख्य धारा में प्रवेश करने लगी थी। निज भाषा अर्थात् मायण भाषा को सेठिया जी ने प्रमुखता से अपने जीवन में धारण किया। भाषा भारतीय संस्कृति की आत्मा है। सेठिया जी अंत तक अपनी भाषा के गौरव के लिए तत्पर रहे। इसी कारण आज भी हम उनको पढ़ रहे हैं।
कविर्मनीषी सेठिया जी एक सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, सुधारक परोपकारी और पर्यावरणविद भी रहे। वे स्वयं मानते हैं कि केवल रचना करके कवि अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकता, उसका संदेश पूरे विश्व से जुड़े तभी उसकी सार्थकता है।
सेठिया जी समाज के साथ चलने वाले व्यक्ति रहे हैं। खादी वस्त्र धारण करना, दलित उद्धार में लगना, राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत रचनाएँ लिखना उनके लेखन के अंग रहे हैं।
मुक्तिबोध की “चकमक की चिंगारियां” की ये पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगी – – – –
नहीं होती, कहीं भी ख़त्म कविता
नहीं होती कि वह आवेग त्वरित काल यात्री है
व मैं उसका नहीं है कर्ता,
पिता धाता
कि वह अभी दुहिता नहीं होती
परम स्वाधीन है, वह विश्व शास्त्री है। (चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृष्ठ. 155)
1942 में गाँधी जी ने’ करो या मरो’ का आह्वान किया। उस समय सेठियाजी का काव्य संग्रह ‘अग्नि वीणा’ प्रकाशित हुई। बीकानेर में इस पर राजद्रोह का मुकदमा चला। बाद में तो राजस्थान सरकार ने इन्हें स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान प्रदान किया। ऐसे साहित्य सेवी और देश भक्त कवि की काव्य यात्रा को दो काल- खंडों में देखा जा सकता है – सन् 1936-1975 प्रथम और द्वितीय सन् 1976 – 2005 की रचनाधर्मिता।
14 राजस्थानी, 20 हिंदी, 2 उर्दू में रचनात्मक साहित्य के रचयिता कविर्मनीषी को सन् 1976 से जो पुरस्कार मिलने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह सन् 2005 तक मिलता चला गया ।साहित्य अकादमी, डॉ तेस्सीतोरी स्मृति स्वर्ण पदक, साहित्य मनीषी, मूर्ति देवी पुरस्कार, सूर्य मल्ल मिश्रण शिखा पुरस्कार, टांटिया पुरस्कार, पृथ्वीराज राठौड़ पुरस्कार और अनगिनत पुरस्कार। मिले। 2004 में पद्मश्री से सम्मानित हुए।
कवि के रचना संसार पर दृष्टि डालें तो जिन देश काल की परिस्थितियों से भी गुजरना होगा।
देश की राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा जो प्रमुख धारा रही, सेठिया जी को वहाँ से जोड़ कर देखा जा सकता । यह धारा सन् 1857 की क्रांति के बाद से ही शुरू हो गई थी। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हलचलों ने भी राष्ट्रीयता को प्रभावित किया। भारतेंदु युग में जहाँ औपनिवेशिक सत्ता के लूट को उजागर किया जा रहा था, वहीं द्विवेदी युग में राष्ट्र वाद को प्रतिष्ठा दी जा रही थी।
गाँधी के आगमन के बाद भारतीय राजनीति में नरमदल का प्रभाव बढा़ और कविता भी आत्मपीड़न को नरमी के साथ अभिव्यक्त करने लगी। लेकिन भारतीय राजनीति में गरम दल के प्रभाव, रूस की क्रांति की सफलता, भारत में वामपंथ की स्थापना आदि के बाद कविता ओजपूर्ण और बुलंद स्वर के साथ राष्ट्र मुक्ति में भागीदारी निभाने लगी।
रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘, गोपाल सिंह नेपाली सोहनलाल द्विवेदी आदि की राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत कविताएँ आ रही थीं।
1930-35 से लेकर 1947-48 और उससे आगे सन् 1962 तक देश के विभिन्न भूखंडों और जनवृत्तों में तरह-तरह की घटनाएँ घटीं।
बंगाल में अकाल, द्वितीय महा युद्ध का प्रभाव, नौ सेना विद्रोह आदि बहुत सी घटनाएँ घटीं।
फिर 1942 की शहादत, देश का आजाद होना विभाजन दंगे अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त हुए लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री का राजनीतिक मोहभंग आदि घटनाओं की निरंतरता।
स्वदेशी शासन व्यवस्था में जिस तरह की कामना लेकर उस समय कवि बढे़ थे, उनकी कामनाओं और सपनों पर तुषारापात हो गया। मगर प्रतिबद्ध रचनाकार विचलित नहीं हुए, डटे रहे।
मैत्री का समझौता कर लेने के बावजूद सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया और लद्दाख में 15-20 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया।
‘इस धोखे का नाम दोस्ती है और इस दोस्ती को हम चीन कहते हैं।’ ऐसी ही कविता हर देश भक्त कवि की लेखनी से निकल रही थी।
सेठिया जी ने अपने जीवन काल में आजादी से पहले, आजादी के बाद और आजाद भारत में आधुनिक भारत के बनने की प्रक्रिया को भी देखा।उनके काव्य में गाँव, प्रकृति, समाज, राष्ट्र, अनिष्ट से लड़ना वर्तमान को सुधारना, वर्ग संघर्ष, मातृभूमि के प्रति प्रेम आदि के साथ धर्म, दर्शन और अध्यात्म का सुंदर समायोजन मिलता है। कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं है। प्रेम और उदारता का नाटक नहीं है। यही निश्छलता सेठिया जी के रचना संसार को दीर्घकालिक बनाती है।
पहला काव्य संग्रह दीपकिरण 1954 में आता है। 1947- 1967 के बीस वर्षों की नीति देखकर तैयार हुई इस नयी पीढ़ी का रोष पूर्ववर्ती की तुलना में थोड़ा तल्ख लेकिन विचार पद्धति सुदृढ़ और सुविचारित हुई। यहाँ तक आते आते कविता की भाषा में प्रहार बढ़ गया। धूमिल, रघुवीर सहाय आदि की कविताओं में वे कहते हैं –
न टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का
मेरे अंदर एक कायर
टूटेगा टूट
मेरे मन टूट मत
झूठ मूठ ऊब मत रूठ
आस्था का लौट आना, मन के भीतर बैठे कायर को टूटने की आज्ञा देना उस समय की बड़ी घटना थी। कविता में कवि का यही आत्म संकल्प हिंदी को प्रगतिशील जनवाद से आगे फिर समकालीन कविता से जोड़ता है।
प्रगति चेतना लोकमंगल की भावना और मानव प्रेम की यह धारा नयी पीढ़ी भी बनी और अपनी नयी चिंतन पद्धति का उत्तरदायित्व का सौंप गए।
सेठिया जी की कविताओं में परंपरागत और आधुनिकता के बीच द्वंद्व समय परिवेश की समस्याएँ चिंता संघर्ष आदि बहुत विषयों का विस्तार है।
क्रमशः