इस बेगम जान में है समाज और सत्ता को ललकारने का दम

बेगम जान राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता निर्देशक श्रीजीत मुखर्जी की बांग्ला फिल्म राजकाहिनी का हिंदी रीमेक है। यह आजादी के दौर की ऐसी कहानी है जो आपने पहले नहीं सुनी होगी। जानिए  शानदार वजहें जिसके चलते कम से कम एक बार तो बेगम जान देखना बनता ही है।

अगर विद्या बालन के फैन हैं तो ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए। काफी समय बाद विद्या अपने दमदार अभिनय की छाप फिल्म पर इस तरह छोड़ती हैं कि फिल्म पूरी तरह विद्यामय हो जाती है। कुल मिलाकर ये फिल्म विद्या बालन के परफॉरमेंस के लिए देखी जा सकती है। लगभग दर्जन भर महत्वपूर्ण किरदारों के बीच विद्या अपनी मौजूदगी को श्रेष्ठतम ढंग से दर्ज कराती हैं।

फिल्म अपने कथानक की ताजगी के साथ बेहद कसी हुई स्क्रिप्ट में दिखती है।

बेगम जान 1947 में देश विभाजन के कई मार्मिक पल हमारे सामने लाती है। इन्हीं में एक भारत-पाकिस्तान को बांटने वाली रेडक्लिफ रेखा के खींचे जाने का मामला है।

बेगम जान के वे दृश्य और संवाद चौंकाते हैं जो नग्न सचाइयों को छुपाने वाले परदों को तार-तार कर देते हैं। इनमें स्त्री पुरुष संबंध, धर्म-जाति की ऊंच-नीच, लोगों को हिंदू-मुसलमान बता कर फैलाई जाने वाली नफरत जैसे विषय शामिल हैं।

गौहर खान और पल्लवी शारदा के हिस्से भी कुछ अच्छे दृश्य हैं। आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर और विवेक मुश्रान अपनी भूमिकाओं को साधे रहते हैं। चंकी पांडे अपने लुक से चौंकाते हैं।

श्रीजीत मुखर्जी ने राजकहिनी की मूलकथा, उसके फिल्मांकन और संवादों के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की। परंतु एक बड़ा बदलाव किया। राजकाहिनी दुनिया के प्रत्येक रिफ्यूजी को समर्पित फिल्म थी।

उसका दायरा वैश्विक था। जबकि हिंदी में कहानी को 2016 की दिल्ली में रेप की कोशिश की एक घटना से शुरू किया गया है।

महेश भट्ट की स्त्री-पुरुष और हिंदू-मुस्लिम फिलॉसफी की छाप बेगम जान पर खूब है। इस तरह श्रीजीत पर हिंदी संस्करण में निर्माता का हस्तक्षेप दिखता है। इसके बावजूद हिंदी के दर्शकों के लिए बेगम जान एक अलग अनुभव साबित हो सकती है।

हालांकि पाकिस्तान की दुखती रग पर हाथ रखने वाली ये फिल्म वहां रिलीज नहीं हो रही है लेकिन नई पीढ़ी को ये फिल्म बहुत कुछ बताती है।

 

 

शुभजिता

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