विमलेश त्रिपाठी
केदारनाथ सिंह मेरे प्रिय कवि हैं। इसका कारण यह नहीं है कि मेरा शोध-कार्य केदार जी पर ही है। इसका कारण उनकी कविताएं हैं जो जादू की तरह असर करती हैं। केदार की कविताएं मुक्तिबोध की तरह कठिन भी नहीं हैं। सहज होकर गंभीर बातों को कहना और ऐसे कहना कि आपके अंदर एक हलचल और एक बेचैनी पैदा हो जाए, यह इसी एक कवि में मुझे मिलता है। यह कवि आपके साथ बोलते-बतियाते हुए आपको एक ऐसी जगह पर लेकर जाता है, एक ऐसे लोक में जहां से यथार्थ का एक नया चेहरा आपको दिखायी पड़ने लगता है, – नया और भयावह और आपको कई बार तिलमिला देने वाला भी।
केदार जी कि कविताएं एक ताजगी लेकर उपस्थित होती हैं। उनमें बोलने बतियाने का एक गंवई ठाट है। वहां कोई बड़बोलापन नहीं है, और है भी तो इतना सहज की वह अखरता तो कतई नहीं।
वे चाहे मारिशस या सुरिनाम पर कविताएं लिख रहे हों उनके पांव कहीं न कहीं अपनी मिट्टी में इतने गहरे घंसे हुए रहते हैं कि उनकी हर कविता में उसकी सुगंध देखने को मिल जाती है। लेकिन क्या यह इसका प्रमाण है कि केदार की कविताएं गांव और कस्बे के इर्द-गिर्द घुमती हैं। इस तथ्य को उनकी कविताएं ही नकारती भी हैं। इसे एक तथ्य के रूप में समझा जाना चाहिए कि जिस कवि की अपनी कोई जमीन नहीं है, वह ‘कवि’ भले हो जाए लेकिन केदार जी जैसा ‘बड़ा कवि’ तो कहीं से भी नहीं हो सकता।
डॉ. शंभुनाथ एक लेख में जिक्र करते हैं कि एक समय हिन्दी के कवियों को विश्व कविता लिखने का चश्का लग गया था। वे आगे यह भी कहते हैं कि साठ के बाद जो भी महत्वपूर्ण कविताएं हैं उनमें से अधिकांश पर इस विश्वबोध का चश्का काम करता है। शंभुनाथ एक गंभीर आलोचक हैं और जाहिर है कि उनके सामने इस तथ्य को कहते समय बहुत सारे कवि होंगे – जाहिर है कि केदारनाथ सिंह भी। लेकिन जिन कविताओं की मार्फत हम केदार को जानते हैं उनमें तो हमें विश्वबोध की कविताओं का चश्का नहीं दिखता। माझी का पुल कविता में कवि को लालमोहर की याद आती है और वह हल चलाते हुए दिखता है और उसे खैनी की तलब लगी है। पानी में घिरे हुए लोग उस अंचल के लोग ही हैं जो बाढ़ की भयावहता को समय-.समय पर अपने कंधे पर झेल चुके हैं। लेकिन केदार की खास विशेषता यह है कि वे गांव और जवार की बात करते हुए भी एक आधुनिक भावबोध से संवलित आधुनिक कवि हैं जिनकी कविताओं में समय की गूंज साफ-साफ सुनाई और दिखायी पड़ती है। हां, इस बात की ओर भी इशारा करने की जरूरत तो है ही कि उनके यहां लोक और नागर के बीच लोक संस्कृति और आधुनिकता के बीच एक द्वद्व, एक ‘क्लैश’ भी दिखायी पड़ता है और यह उद्देश्यहीन नहीं है।
इस कवि ने कभी भी यह नहीं माना कि भारतीय आधुनिकता बाहर से आयातित की हुई कोई अवधारणा है, बल्कि उसका कहना है कि भारतीय आधुनिकता का विकास भी अपने तरीके से ठेठ भारतीय संदर्भ में हुआ है। मेरे समय के शब्द में एक जगह वो साफ-साफ लिखते हैं जिससे हमारी उपरोक्त बातों को बल मिलता है। वे लिखते हैं – आधुनिकता के विकास की प्रक्रिया की पहचान और पुनरावलोकन हमें भारतीय संदर्भ में करना चाहिए। उनका तर्क है कि आधुनिकता संबंधी बहस खत्म हो गई है लेकिन आधुनिकता की प्रक्रिया अपने खास ढंग से पूरे भारतीय संदर्भ में आज भी जारी है। यह स्थिति पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ भारतीय भी। यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी खास जरूरतों का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए । आगे वे अपनी आधुनिकता में लोक मूल्यों की संश्लिष्टता का उद्घाटन करते हुए लिखते हैं कि हमारा देश सामंतवाद के विरूद्ध एक लंबे संघर्ष के बावजूद भी, अपने मूल्यों और आचरण में सामंती अवशेषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था, जो हमारे चारों ओर है। अपने सारे मानववाद के बावजूद, हम एक जाति विशेष के सदस्य माने जाते हैं। यह हमारी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे कवि की संवेदना बार-बार टकराती और क्षत-विक्षत होती है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी आधुनिकता में यह खंरोच भी शामिल है।
कहने का आशय सिर्फ इतना है कि उस खंरोच को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना और उसका सटिक मूल्यांकन करना लगभग असंभव है। क्योंकि लोक का ठेठपन और पूर्णतः आधुनिक होने के बावजूद उनकी आधुनिकता की एक चिंता यह भी है कि उसमें ‘लालमोहर’ कहां है। लालमोहर को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना समंदर के किनारे खड़े होकर लहरें गिनने जैसा है। जाहिर है कि इस दृष्टि से जब हम केदार की कविताएं पढ़ेंगे तो जो हमें मिलेगा वह बकौल केदारनाथ सिंह –
इसमें तुम्हें जंगली पत्तों की खुशबू
और एक जानवर के रोओं की गरमाहट मिलेगी
तुम्हे एक मजबूत पत्थर मिलेगा
जिसपर तुम बैठ सकते हो
पत्थर को छुओ
तुम्हें पानी का संगीत सुनाई पड़ेगा
एक पत्ता उठा लो
और तुम पाओगे तुम उसकी नसों में
खून की तरह बह रहे हो
तुम बाहर निकलोगे
और तुम्हे सूरज मिल जाएगा।
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केदार की कविता का जादू
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केदार जी की कविताएं पढ़ते समय हमें यह कभी नहीं लगता कि हम कोई लयमुक्त या छंदहीन कविता पढ़ रहे हैं। कहने की बात नहीं कि केदार जी ने लिखने की शुरूआत छंदबद्ध कविताओं से की थी और एक समय उनके गीत सुनने के लिए लोग सभागारों में बैठे इंतजार करते रहते थे। उन गीतों में क्या था कि नवगीत के पुरोधा कवियों के बीच भी केदार को अलग से सुनने का मन करता था। मेरी समझ से केदार जी के गीतों में एक तरह की भाषिक नवीनता तो थी ही, साथ ही उसमें उसमें अपने लोक, अपने अंचल की वाणी भोजपुरी की मिठास भी शामिल थी। अलावा इसके केदार जी के पास सर्वथा नूतन एक आधुनिक दृष्टि थी जो उनकी कविता में एक तरह की नवीनता के साथ जादू जैसा कुछ पैदा करती थी।
केदार जी एक इंटरव्यू में याद करते हैं कि कविता से पहला परिचय उन्हें गांव में औरतों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों की मार्फत हुआ। वे कहते हैं कि सुबह-सुबह अधनींदी अवस्था में कई बार कानों में भोजपुरी के लोक गीत सुनने को मिलते थे – उन गीतों का असर आज भी मेरे लेखन में है, इसे मैं कितना भी चाहूं, अस्वीकार नहीं कर सकता। उन गीतों में क्या जादू है, यह तो वही समझ सकता है, जो गांव में रहा हो और उस जिंदा जादू को पत्यछ देखा-सुना हो। केदार की कविताओं में एक तरह की सहजता के साथ जो जादू है, कहीं न कहीं उसका उत्स वे लोक गीत ही हैं, जिन्होंने केदार को कहीं गहरे प्रभावित किया है।
उनकी बोलने-बतियाने और उसी दौरान कोई गूढ़ बात कह देने की शैली भी रेखांकित करने लायक है। कई बार वे पाठकों से बातचीत के लहजे में कविता की शुरूआत करते हैं, कई बार पाठक से सवाल करते हैं कि अब क्या किया जाए, कि अब आप ही बताएं कि अब तो यह तय करना मुश्किल है इत्यादि। तात्पर्य यह कि उनके लिए पाठक कविता के बाहर की कोई वस्तु नहीं है, वे हर कविता के साथ पाठक को शामिल करते चलते हैं, जैसे कोई बच्चा इधर-उधर न जाए इसलिए उसका अभिभावक अपनी उंगली पकड़ा देता है। एक बार बच्चे ने उंगली पकड़ ली तो अभिभावक अपनी रौ में अपनी राह चलता जाता है। केदार की कविता की रचना प्रक्रिया को इसी तरह समझने की जरूरत हमें महसूस होती है।
उपर केदार जी के लोक गीतों से जुड़ाव की बातें कही गई हैं। भोजपुर अंचल में रहने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो लोक गीतों से अपना जुड़ाव न रखता हो। यह अलग बात है कि अब वे परंपराएं मिट रही हैं और लोक गीतों के नाम पर कुछ फूहड़ और अश्लील गीत ही बाजार में रह गए हैं। लेकिन केदार जी का जो समय रहा है, उस समय भोजपुरी लोकगीतों में एक समृद्ध साहित्यिक एवं काव्यात्मक तत्व दिखायी पड़ता है। भोजपुरी लोक गीतों के महानायक भिखारी ठाकुर के बारे में केदार जी के संस्मरणों को पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि केदार जी का लोक और लोक गीतों से कितना गहरा जुड़ाव रहा है। यह गौर तलब है कि अपनी कविता की किताब ‘उत्तर कबीर व अन्य कविताएं’ में केदार जी ने ‘भिखारी ठाकुर’ नाम से एक बहुत ही मार्मिक कविता भी लिखी है।
‘नई कविता के मंच पर भिखारी ठाकुर’ नामक संस्मरणात्मक लेख उपरोक्त बातों की पुष्टि करता है। तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केदार जी की शुरूआती कविताएं लयबद्ध हैं, उनमें गीतात्मकता है। हमारा कहने का मतलब यह है कि यह लयात्मकता और गीतात्मकता की गूंज हमें केदार जी की हर कविता में सुनाई पड़ती है। इसलिए जब हम आज की उनकी कविताएं पढ़ते हैं, तब भी हमें लोकगीतों की लय और गीत की मिठास की गूंज उनकी कविताओं में सुन पाते हैं। यही केदार की कविता का जादू है तो सिर चढ़कर बोलता है और यही कारण है कि एक पूरी पीढ़ी उनकी कविताओं से प्रभावित है और पाठकों के बीच उनकी कविताएं असाधारण रूप से लोकप्रिय हैं।
(लेेखक की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया लेख)