कोलकाता | ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ में गत बुधवार को ‘एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘ का आयोजन किया गया | गत 27 अप्रैल को विश्वविद्यालय के आशुतोष कक्ष में आयोजित इस संगोष्ठी में राज्य के अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों से भी प्राध्यापक और प्रध्यापिकाएं वक्ता के रूप में कार्यक्रम में जुड़े |
आतिथियों के स्वागत व् दीप प्रज्वलन के पश्चात् माँ सरस्वती की वंदना की गयी | संगोष्ठी दो सत्रों में विभाजित रही |
सत्र का उद्घाटन वक्तव्य कलकत्ता गर्ल्स कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. सत्या उपाध्याय ने दिया। अपने वक्तव्य में उन्होंने साहित्य और जीवन के संबंध में बात करते हुए साहित्य को मानव कल्याण की और उन्मुख करने वाली एक प्रेरणा शक्ति माना| उन्होंने आगे कहा कि साहित्य ही वह साधन हैं जो मनुष्य को पशुता से मुक्त कर उसमें मानवीयता का संचार कर सकता हैं |
प्रथम सत्र के आलोचनात्मक सत्र के आरम्भ से पूर्व कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रो० राजश्री शुक्ला जी ने विषय प्रवर्तन करते हुए भूमंडलीकरण और बाजारवाद के संबंध पर चर्चा की और साहित्य किस प्रकार इस बाजारवादी सभ्यता के चमत्कार के पीछे के सत्य से हमें अवगत कराता हैं , यह बताया । उन्होंने कहा कि इक्कीसवीं शताब्दी का साहित्य बाज़ारवाद के प्रतिरोध का साहित्य है । इस काल का साहित्य गुण और परिमाण सभी आयामों में बड़ी रचनात्मक सक्रियता की झलक देता है । लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रभाव इस साहित्य पर दिखाई देता है। आलोचनात्मक सत्र पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. अरुण होता के वक्तव्य से आरम्भ हुआ | 1991 से देश में आरम्भ हुए भूमंडलीकरणके नुकसानदायक परिणाम और साहित्य द्वारा इन नकारात्मक पक्षों का उद्घाटन करना , यह उनकी चर्चा का विषय रहा | विमर्शों पर चर्चा करते हुए उन्होंने स्त्री विमर्श के व्यापक स्वरुप की छवि को प्रस्तुत किया | समाज में व्याप्त वर्त्तमान समस्याएँ जैसे गरीबी और भ्रष्टाचार के मुद्दे भी उनकी चर्चा के विषय रहे |
सत्र का दूसरा वक्तव्य डॉ. देवेश जी द्वारा दिया गया | उन्होंने 2001 से 2021 तक घटित कई राष्टीय – अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर चर्चा करते हुए उद्योगीकरण से उत्पन्न संवेदनहीनता पर प्रकाश डाला |
सत्र के तीसरे वक्ता कल्याणी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. हिमांशु कुमार ने साहित्य और सिनेमा पर चर्चा करते हुए वर्तमान सिनेमा को आर्थिक लाभ का घर कहा | सत्य ही सिनेमा साम्पदायिक , धार्मिक कट्टरता जातिवाद को बढ़ाने का साधन बन गया हैं , इस पर भी उन्होंने विचार रखे |
प्रथम सत्र की चतुर्थ वक्ता स्कॉटिश चर्च कॉलेज की प्राध्यापिका गीता दूबे ने इक्कीसवीं शताब्दी को ‘रचनात्मक विस्फोट’ की संज्ञा दी, क्योंकि इस शताब्दी ने विमर्शों को विस्तार दिया हैं | नासिर शर्मा जी की रचना ‘कुइयां जान ‘ पर बात करते हुए उन्होंने पर्यावरण विमर्श पर प्रकाश डाला |’यह सच अभी’ कहानी संग्रह के जरिये पुरुष विमर्श , ‘मछली मरी हुई’ और ‘तिरोहित’ रचना के जरिये समलैंगिक विमर्श और ‘पाँव टेल की धूप’ के जरिय नक्सल विमर्श पर उन्होंने चर्चा की |
प्रथम सत्र का अंत हिंदी विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो. दामोदर मिश्र जी के वक्तव्य के साथ हुआ | प्रथम सत्र का सफल संचालन कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. रामप्रवेश रजक जी ने किया |
इसे पश्चात डॉ. शुभ्रा उपाध्याय की अध्यक्षता में शोधपत्र वाचन हुआ , जिसमे कलकत्ता विश्वविद्यालय की शोधार्थी अनुराधा त्रिपाठी और अमित कौर ने अपने शोधपत्र का वाचन किया |
द्वितीय सत्र
द्वितीय सत्र का आरम्भ विद्यासागर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. संजय जायसवाल के वक्तव्य से हुआ | उन्होंने लंदन – अमेरिका से शुरू हुए खोखले विकासवाद पर चर्चा करते हुए भारत पर पड़े इसके नकारात्मक परिणामों की चर्चा की | बहुराष्ट्रीयवादी कंपनियों की धन उपार्जन की लालसा , लोगों की पहचान मात्र संख्या बन कर रह जाना , अन्नदाताओं की बुरी स्थिति का चित्रण आदि विषयों पर अपने वक्तव्य के माध्यम से प्रकाश डाला| द्वितीय सत्र की दूसरी वक्ता लेडी ब्रेबोर्न कॉलेज की प्रधायापिका डॉ. संध्या सिंह रही |
वक्ता ने लेखक शिरीष खरे की रचना ‘एक देश बारह दुनिया :हाशिए पर छूते भारत की तस्वीर ‘ को संदर्भित करते हुए कहा कि एक और तो इक्कीसवी शताब्दी को आपर संभावनाओं का घर माना हैं , विज्ञान ने हर चीज को संभव बना दिया हैं और लोगो को नया मंच प्रदान किया है , जिससे हाशिये के लोगों की आवाज भी सुनी जा रही हैं , पर वही दूसरी ओर वह यह भी कहती हैं कि हमने इक्कीसवी शताब्दी को कुछ नहीं दिया हैं | हम आज भी धार्मिक कट्टरता , विकास – लोभ की भूख , बर्बरता में जी रहे हैं और जैविक हथियार बनकर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं | आज का साहित्य हमारे इसी दूसरे रूप का चित्र प्रस्तुत करता हैं | उन्होंने इंडिया और भारत के दो भिन्न चेहरों पर भी चर्चा की | जहाँ इंडिया विकसित देश हैं तो वही भारत भूखे सोते किसानों – मजदूरों का देश है |उन्होंने विस्थापन की पीड़ा ,न केवल मनुष्य बल्कि प्रकृति – इस विषय पर भी चर्चा की| उन्होंने कहा कि साहित्य में ही यह क्षमता है जो इन स्थितियों को सुधार सकता हैं |
द्वितीय सत्र की तीसरी वक्ता कचरापारा कॉलेज की प्राध्यापिका डॉ. सुनीता मंडल रही |उन्होंने अपने वक्तव्य में भूमण्डलीकरण , वैश्विक महामारी , आतंकवाद आदि समस्याओं पर चर्चा करते हुए लोगों में बची जिजीविषा पर रेखा खींची | वह जिजीविषा जिसे साहित्य ने जिन्दा रखा है |
द्वितीय सत्र का अंत प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रो. तनुजा मजुमदार जी के अध्यक्षीय भाषण के साथ समाप्त हुआ | इस सत्र का सफल संचलान कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो. विजय कुमार साव जी ने किया |
इसके पश्चात प्रो. ममता त्रिवेदी जी की अध्यक्ष्यता में शोधवाचन समारोह हुआ , जिसमे कलकत्ता विश्वविद्यालय की शोधार्थी दीक्षा गुप्ता , प्रीतम रजक और अमर कुमार चौधरी द्वारा अपने शोधपत्र का वाचन किया गया। संगोष्ठी का अंत कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रो. राजश्री शुक्ला जी द्वार धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ |