Wednesday, December 17, 2025
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आधुनिक भारत के निर्माता एम. विश्वेश्वरैया

एम. विश्वेश्वरैया को कौन नहीं जानता। कर्नाटक में कृष्णसागर बांध के वास्तुकार, बांधों में पानी का व्यर्थ प्रवाह रोकने के लिए इस्पात के दरवाजे तैयार कर एक चमत्कारिक कार्य कर दिखाया। वह एक प्रख्यात इंजीनियर और कुशल राजनेता थे। उन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सर एम. विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर के पूर्व रियासत कोलार जिले (कर्नाटक) के मुड्डेनहल्ली गांव में 15 सितम्बर 1860 को हुआ था। उनके पिता श्रीनिवास शास्त्री संस्कृत के विद्वान और आयुर्वैदिक चिकित्सक थे। उनकी माता का नाम वेंकट चेम्मा था। वह एक धार्मिक महिला थीं।
सर एम. विश्वेश्वरैया केवल 15 साल के ही थे जब उनके पिता का देहांत हो गया। विश्वेश्वरैया ने चक्कबालापुर में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की। तत्पश्चात उच्च शिक्षा के लिए बेंगलूर आ गए। 1881 में बी.ए. की परीक्षा पास की। उन्हें मैसूर की सरकार से आर्थिक मदद मिल गई और उन्होंने इंजीनियरिंग का अध्ययन करने के लिए पूना के साइंस कालेज में दाखिला ले लिया। 1883 में एल.सी.ई. एवं एफ.सी.ई. की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।

गूगल ने भी इनको याद किया

इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करते ही उन्हें बंबई सरकार ने नौकरी की पेशकश की और वह नासिक में सहायक अभियंता के पद पर नियुक्त हुए। एक इंजीनियर के रूप में उनके कुछ अद्भुत कारनामों ने अपनी पहचान बनाई। उन्होंने सक्खर नामक शहर को सिंधु नदी से पानी की आपूर्ति के लिए एक तरह योजना बनाई। उन्होंने ब्लॉक सिस्टम नामक एक नई सिंचाई प्रणाली तैयार की जिससे पानी के व्यर्थ प्रवाह को रोकने के लिए इस्पात का दरवाजा तैयार किया। कर्नाटक में कृष्णाराज सागर बांध उनके वास्तुकार का एक बेजोड़ नमूना है। उनकी योजनाओं को देख कर सभी इंजीनियर हैरान हो जाते थे। उनकी प्रखर बुद्धि का सब ने लौहा माना।
विश्वेश्वरैया का जीवन बहुत ही सादा एवं साधारण था। उनकी ईमानदारी एवं निष्ठा से ही 1912 में मैसूर के महाराजा ने अपने दीवान के रूप में नियुक्त किया। मैसूर में दीवान के रूप में आपने राज्य में शैक्षणिक और औद्योगिक विकास के लिए अथक प्रयास किया। भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क उनके औद्योगिक विकास का मुंह बोलता उदाहरण है।
उस समय मैसूर राज्य में लगभग 4500 स्कूल थे। उन्होंने इनकी संख्या 6500 मात्र 6 वर्षों में ही पहुंचा दी। महिलाओं के लिए शिक्षा पर उन्होंने काफी जोर दिया। यही कारण था कि उन्होंने न सिर्फ स्कूल खोला बल्कि लड़कियों के लिए छात्रावास का निर्माण भी करवाया। विदेश अध्ययन हेतु जाने वालों के लिए छात्रों का सरकार की ओर से छात्रवृत्ति भी दिलाने में अहम भूमिका निभाई।
वह एक निडर देशभक्त थे। उन दिनों मैसूर महाराजा द्वारा प्रति वर्ष दशहरा उत्सव के दौरान एक दरबार के आयोजन की परम्परा थी। दरबार के दिन अंग्रेजों को बैठने के लिए आराम कुर्सियाँ दी जाती थीं एवं भारतीयों को फर्श पर बैठने के लिए कहा जाता था। उनके विरोध से ही अगले वर्ष से दोनों कुर्सियाँ उपलब्ध करवाई गईं। ब्रिटिश अधिकारियों के विरोध के बावजूद उन पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा।
सर एम. विश्वेश्वरैया स्वेच्छा से 1918 में मैसूर के दीवान पद से सेवानिवृत्त हुए। अपनी सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्होंने सक्रिय रूप से काम किया। उन्होंने अपने राष्ट्र के लिए अमूल्य योगदान दिया। 1955 में उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। उनके 100 वर्ष पूर्ण करने के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। 101 की उम्र में 14 अप्रैल 1962 को विश्वेश्वरैया का निधन हो गया।

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