हेमा वैष्णवी
डॉ. प्रबोध कुमार भौमिक ने विदिशा की स्थापना की, जिसे 100 लोढ़ा परिवार अब घर कहते हैं
आज शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश लोगों के पास बुनियादी सुविधाएं और अवसर समान रूप से उपलब्ध हैं, लेकिन जब बुनियादी सुविधाओं की बात आती है तो आदिवासी लोग ऐसा नहीं कह सकते। वहाँ अभी भी खानाबदोश जनजातियाँ और समुदाय मौजूद हैं जो निराश्रित जीवन जीते हैं क्योंकि वर्तमान समाज इन लोगों और उनके जीने के तरीके को समझने में विफल रहता है।
अभी भी ऐसी जनजातियाँ हैं जो अपनी दुनिया में रहना पसन्द करती हैं और बाहरी दुनिया में आने से डरती हैं। इनको सामने लाना, इन समुदायों के सतत उत्थान की दिशा में काम करना समय की मांग है और यह काम शुरू किया प्रो. प्रबोध कुमार भौमिक ने। पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में वे आदिवासियों के लिए काम करते रहे।
प्रो. प्रबोध ने 1949 में बंगबासी कॉलेज से एन्थ्रोपोलॉजी यानी नृविज्ञान में बीएससी (ऑनर्स) किया, और फिर 1951 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से इसी विषय में एमएससी किया। पश्चिम बंगाल के लोधा समुदाय के सामाजिक – आर्थिक जीवन पर पीएचडी पूरी करने के लिए उनके बीच गये।
अपने शोध के माध्यम से उन्होंने बदलाव लाने की मुहिम आरम्भ की और समाज सेवक संघ और उसके बाद 1955 में इंस्टीट्यूट फॉर द सोशल रिसर्च एंड अप्लाइड एन्थ्रोपोलॉजी स्थापित किया जो विदिशा के नाम से जाना जाता था। इसकी स्थापना लोधा समुदाय के विकास एवं उनकी आपराधिक प्रवृत्तियों को बदलने के लिए की गयी थी।
प्रो. प्रबोध ने अपना जीवन आर्थिक सुधार, शैक्षिक प्रगति और जनजातियों के स्थायी जीवन, और आदिवासी लोगों के उत्थान, विशेष रूप से क्षेत्र के लोधाओं के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया । उनके निधन के बाद 2003 में, डॉ. प्रदीप कुमार भौमिक, एसोसिएट प्रोफेसर, ग्रामीण विकास केंद्र, आईआईटी, खड़गपुर, प्रो. प्रहोद के निधन के बाद, मानद सचिव के स्थान पर भरे गए।
लगभग छह दशकों की यात्रा के बाद, विदिशा अब लोढ़ा, संताल, मुंडा, महली, कोरा और भूमिज जनजातियों सहित लगभग सौ आदिवासी परिवारों का घर है और यहाँ उनको आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई प्रकार के प्रशिक्षण दिये जा रहे हैं। लोधा ही नहीं बल्कि संथाल, मुंडा, महाली, कोरा एवं भूमिज समुदाय के लोग भी इससे लाभान्वित हो रहे हैं। डॉ. प्रदीप के अनुसार यह केन्द्र एक सामाजिक प्रयोगशाला है।
प्रो. प्रबोध ने सरकार के साथ लोधा समुदाय के 20 परिवारों को दहारपुर कृषियोग्य भूमि के वितरण में शामिल थे। खेती और टसर उत्पाद जैसे कई क्षेत्रों में प्रशिक्षण कार्यक्रम, सेमिनार, कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं। एक बायो गैस यूनिट और वर्मीकम्पोस्ट प्लांट स्थापित कर युवाओं को आत्मनिर्भर बनाया गया। 2006 -08 में आदिवासी महिलाओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण देते हुए बाटिक प्रिंट का काम सिखाया गया। 90 आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया। आदिवासी संस्कृति को संरक्षित करने के लिए भी विदिशा काम कर रहा है।
विदिशा ने एक इको म्यूजियम और प्रबोध कुमार भौमिक मेमोरियल लाइब्रेरी नामक पुस्तकालय स्थापित किया है। विदिशा पिछले 37 साल से समाज विज्ञान पर एक जरनल मेन एंड लाइफ प्रकाशित कर रहा है। विदिशा हर साल नवान्न उत्सव आयोजित करता है जिसमें आदिवासी समुदाय सांस्कृतिक कलाएं एवं नृत्य प्रदर्शित किये जाते हैं। अब यह एन्थ्रोपोलॉजी, ग्रामीण विकास और सोशियोलॉजी के विद्यार्थियों के लिए शोध केन्द्र बन गया है।
(साभार – योर स्टोरी हिन्दी)