हम कोरोना काल में जी रहे हैं और यह साल कड़ी परीक्षा का साल साबित हो रहा है। दो महीने के लगातार लॉकडाउन के बाद हम अब अनलॉक होने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं मगर इन चन्द महीनों में सब बदल चुका है। हम सब एक नयी शुरुआत करने जा रहे हैं और इस प्रक्रिया में पहले जैसा कुछ भी नहीं रहने वाला है। कम से कम अगले कुछ महीनों तक तो बिल्कुल नहीं। कोरोना काल में जो समय बीता, वह समय आत्मविश्लेषण का समय रहा। मनुष्य पहली बार कैद में था और तमाम अन्य पशु – पक्षी बाहर…साफ आसमान तो शायद बच्चों ने पहली बार ही देखा होगा। इस लॉकडाउन में हमने प्रकृति को कुछ समय के लिए पाया मगर कितने दिनों तक सहेज सकेंगे, ये हम खुद नहीं जानते। मनुष्य बदलने नहीं जा रहा है…कम से कम उसकी हरकतों से तो यही लग रहा है। संगरोध…सैनेटाइजर, मास्क, दस्ताने हमारी जिन्दगी का हिस्सा बनने जा रहे हैं…मगर इन्सान है, वह विवशता का भी आनन्द मनाता है…वह मास्क, दस्तानों, सैनेटाइजर का बाजार विकसित कर रहा है…ये सब अब फैशन स्टेटमेंट बनने वाले हैं। बाजार में जल्दी ही डिजाइनर मास्क आने वाले हैं और आ भी चुके हैं। इसे कहते हैं, आपदा को अवसर बनाना, मनुष्य इसमें माहिर है मगर यह अवसर हमारे गाँवों तक भी पहुँचे तब तो कोई बात हो। दिनों, महीनों तक भूखे पेट जो झुलसाती सड़कों पर पैदल चले हैं, उनके पेट में रोटी पहुँचे, इसका तो इन्तजाम हो। शहरों की अभिजात्य संस्कृति ने सहानुभूति की आड़ में जो क्रूरता छुपायी थी, वह सामने आ गयी..शहर नहीं जानता कि गाँव का अपमान कर के उसने अपनी जड़ें खोद ली हैं। जिन गगनचुम्बी इमारतों को श्रमिकों ने अपने पसीने से खड़ा किये..उन इमारतों के पास दो इंच जमीन भी इनके लिए नहीं थी। जिन होटलों में उन्होंने जिन्दगी भर रोटियाँ बनायीं. उन होटलों के पास इनको खिलाने के लिए एक निवाला भी न निकला…कहते हैं..कि अपमान और उपेक्षा भी शस्त्र हैं जो आपको खड़ा करते हैं जो आपमें जीतने की जिद भरते हैं। हमें पूरी उम्मीद है कि इन मजदूरों के गृहराज्य में उनके हुनर को पूरी तरजीह मिलेगी और उनके हुनर को ध्यान में रखते हुए सरकारें नीतियाँ बनायेंगे। हमें बेहतर नहीं बल्कि बेहतरीन बनने और बनाने की जरूरत है इसलिए जरूरी है कि अब ग्लोबल से अधिक लोकल के लिए आवाज उठे औऱ यह होगा…उम्मीद यही है।