अनुदान को लेकर करेंगे पक्षपात तो कैसे मिलेगी सबको उच्च शिक्षा?

सुषमा त्रिपाठी कनुप्रिया

अनुदान का 50 प्रतिशत हिस्सा पाते हैं केन्द्रीय विश्वविद्यालय
पे स्केल 2016 से लागू करने की माँग कर रहे हैं शिक्षक
19 नवम्बर को बंगाल के सभी विश्वविद्यालयों में कर्म विरति यानी कार्य स्थगन रहा। प्रोफेसरों और सहायक प्रोफेसरों के तमाम शिक्षक संगठन एक साथ आये और बंगाल में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों की एकता दिखायी दी। दरअसल राज्य सरकार ने यूजीसी द्वारा निर्धारित नयी पे स्केल लागू करने घोषणा तो की है मगर यह 2020 से यानी अगले साल से लागू माना जायेगा। शिक्षकों का कहना है कि यह वर्ष 2016 से ही लागू किया जाना था। इस बकाया राशि का 50 प्रतिशत भाग केन्द्र सरकार और बाकी 50 प्रतिशत भाग राज्य सरकार देगी। बंगाल में वेबकूटा, कूटा, जूटा समेत सभी विश्वविद्यालयों के शिक्षक संगठन अपनी बकाया राशि पाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं। कलकत्ता विश्वविद्यालय शिक्षक समिति यानी कूटा द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार शिक्षकों के अनुसार अगर यह पे स्केल 2016 से लागू किया जाता है तो प्रोफेसरों के 26,57,700 रुपये, एसोसिएट प्रोफेसरों के 23,37, 900 रुपये और असिस्टेंट प्रोफेसरों के 8,28,300 रुपये बकाया हैं। आन्दोलन नया भले न हो मगर यह फिर से जोर पकड़ रहा है। प्रदर्शनकारी शिक्षकों में शामिल शिक्षकों के अनुसार यह प्रदर्शन नया नहीं है। केन्द्र सरकार कभी 80 प्रतिशत राशि वहन किया करती थी मगर उसने धीरे – धीरे हिस्सेदारी घटा दी और अब यह 50 प्रतिशत तक रह गया है। इसके लिए 1986 में शिक्षकों ने आन्दोलन किया, तब 35 दिन की हड़ताल हुई थी। तत्कालीन सरकार झुकी, फिर 1996 में नये पे कमिशन की माँग पर 25 दिनों की हड़ताल की गयी और वह भी सफल रही। इसके बाद 2006 और अब 2019, शिक्षक अपने आर्थिक अधिकारों के लिए लड़ ही रहे हैं। राजकीय विश्वविद्यालयों में बड़े शहरों को छोड़ दिया जाए तो बुनियादी संरचना की कमी एक समस्या हमेशा से रही है। यहाँ विद्यार्थी अधिक हैं, शिक्षक अधिक हैं मगर जो अनुदान राशि मिलती है, वह ऊँट के मुँह में जीरा की कहावट चरितार्थ करती है।
काफी नहीं है शिक्षा बजट और आवंटन ऊँट के मुँह में जीरा
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री द्वारा लोकसभा में दी गयी जानकारी के मुताबिक 2017-18 के शिक्षा बजट व्यय के विश्लेषण के अनुसार, जीडीपी के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर व्यय 4.43% है। कोठारी आयोग (1964-66) ने सिफारिश की है कि जीडीपी का 6% शिक्षा पर व्यय किया जाना चाहिए। 1992 म यथा-संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में निर्धारित किया गया है कि यथासंभव शीघ्रितशीघ्र शिक्षा पर निवेश को धीरे-धीरे राष्ट्रीय आय का 6% तक बढ़ाया जाए। अब जीडीपी के अनुपात में देखा जाए तो वर्ष 2013 -14 में 430878.81 करोड़ (3.84 प्रतिशत, 2014 -15) में 506849.13 करोड़ रुपये (4.07 प्रतिशत), 2015 -16 में 577792.51 करोड़ रुपये (4.20 प्रतिशत), 2016 -17 (आर ई) में 664264.52 करोड़ रुपये (4.32 प्रतिशत), 2017-18 (बीई) में ) 756945.00 करोड़ रुपये (4.43 प्रतिशत) है और यह वृद्धि के बावजूद काफी नहीं है। उच्च शिक्षा के लिए निर्धारित बजट का जो आवंटन होता है, वह विषमता से भरा है। महज 46 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं और वह इस देश के शिक्षा बजट की 50 प्रतिशत से अधिक राशि पा रहे हैं और जो बचे हैं, उनके हाथ में कुछ नहीं आ रहा..जाहिर है कि संरचना की कमी तो होगी ही जबकि शिक्षकों और विद्यार्थियों के परिश्रम और उनकी प्रतिभा में कोई अन्तर नहीं हैं..फिर यह भेद-भाव क्यों..इसका जवाब किसी के पास नहीं मिल रहा। 993 विश्वविद्यालय, 39931 कॉलेज, 3.73 करोड़ विद्यार्थी हैं। महज 9.61 प्रतिशत विद्याार्थी स्नातकोत्तर कक्षाओं में हैं और 0.79 प्रतिशत विद्यार्थी ही एम.फिल या पीएचडी कर रहे हैं। कॉलेजों में ही 94.33 प्रतिशत विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। 81.89 प्रतिशत शोध छात्र विश्वविद्यालयों में ही हैं।


केन्द्रीय और राजकीय विश्वविद्यालयों के अनुदानों में इतना वैषम्य क्यों?
वर्ष 2016 -17 की यूजीसी की रिपोर्ट जब आप पढ़ते हैं तो आपको केन्द्रीय और राजकीय यानी स्टेट एडेड यूनिवर्सिटी के साथ होने वाला यह भेदभाव समझ में आ जाता है। वर्ष 2016-17 की रिपोर्ट के मुताबिक कुल योजनाबद्ध 3996.96 करोड़ रुपये अनुदान का 50.32 प्रतिशत केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को गया जिनकी संख्या महज 46 है। 2.21 प्रतिशत डीम्ड विश्वविद्यालयों को और राजकीय यानी स्टेट ऐडेड विश्वविद्यालयों को महज 13.13 प्रतिशत, स्टेट ऐडेड विश्वविद्यालयों के कॉलेजों को 3.08 प्रतिशत और 1 प्रतिशत केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कॉलेजों को मिला। 6.78 प्रतिशत क्षेत्रीय केन्द्रों को मिला। इसके अतिरिक्त छात्र वृत्ति इत्यादि पर राशि खर्च हुई। अब अगर बात करें 2016-17 में योजना के बगैर यानी नॉन -प्लान ग्रांट की 6457.96 करोड़ रुपये की अनुदान राशि की तो इसका 63.22 प्रतिशत हिस्सा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को मिला, 18.31 प्रतिशत राशि दिल्ली के कॉलेजों और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महज 3.03 प्रतिशत राज्य विश्वविद्यालयों, 1.29 प्रतिशत इंटर यूनिवर्सिटी सेंन्टर, 4.52 प्रतिशत विश्वविद्यालय बनने की दिशा में अग्रसर डीम्ड संस्थानों को मिला। केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कॉलेजों को 1.62 प्रतिशत और राजकीय विश्वविद्यालय के कॉलेजों को 0.04 प्रतिशत राशि ही मिली।


सरकारी सहायता का दावा
46 केन्द्रीय विश्वविद्यालय. केन्द्रीय मुक्त विश्वविद्यालय 1, राज्य विश्वविद्यालय (स्टेट पब्लिक यूनिवर्सिटी) 371, राष्ट्रीय महत्व वाले संस्थान 127, हैं। स्टेट ओपन यूनिवर्सिटी 14 हैं। लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने बताया कि राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रयायन परिषद (एनएएसी)  ने अब तक पूरे भारत म 359 विश्वविद्यालयों और 8073 कॉलेजों को  मान्यता दी है। उच्चतरशिक्षा विभाग केन्द्रीय क्षेत्र ब्याज अनुदान योजना का कायार्वयन कर रहा  है। इस योजना के तहत, पैतृक आय की सीमा पये 4.5 लाख प्रतिवर्ष है।
यह योजना वर्ष  2009 से परिचालन में है। यह  योजना  भारत  में  आर्थिक रूप से  कमजोर  सभी  श्रेणियों  के  छात्र  को  व्यावसायिक/तकनीकी पाठ्यक्रम के अययन के लिए लाभान्वित करती है।इस योजना के तहत , अब तक 27,32,169 छात्र  लाभान्वित हुए ह और इस योजना की शुआत ( 2009-10) के बाद से मंत्रालय वारा  लाभान्वित छात्र को 11876.25 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गयी।


बाकी सबके हिस्से का भोजन मिल रहा है केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को
यह जानना जरूरी है कि क्या दाखिला लेने वाले हर विद्यार्थी की आर्थिक स्थिति नाजुक है और अगर नहीं तो उसे सब्सिडी या आर्थिक सहायता क्यों दी जाए। क्या इसे आर्थिक आधार पर तय नहीं किया जाना चाहिए? क्या राजकीय विश्वविद्यालयों के शिक्षक परिश्रम नहीं करते, अगर हाँ तो अनुदान राशि को लेकर इतना पक्षपात क्यों? सच तो यह है कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को अन्य विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों की थाली का खाना लगातार परोसा जाता रहा है मगर अब इस प्रवृत्ति को रोकने की जरूरत है, कम से कम भविष्य के लिए…विद्यार्थियों को सब्सिडी से अधिक आंशिक तौर पर काम की जरूरत है और इसके बारे में संस्थानों को गम्भीरता से सोचना होगा..वरना समस्या और पेचीदा होती रहेगी और हम यही नहीं चाहते।

क्या मुफ्त शिक्षा का सटीक मापदण्ड बनाने की जरूरत है
आज भी राजकीय व केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की फीस बेहद कम है, लगभग वही जो 50 के दशक में थी मगर देश को आजाद हुए 75 साल होने जा रहे हैं। इस दौरान महँगाई, वेतन और भत्ते तेजी से बढ़े मगर नहीं बढ़ी तो उच्च शिक्षण संस्थानों की फीस संरचना। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के पास अनुदान का आधा हिस्सा चला जाता है मगर संस्थान को उन्नत करने और समय के साथ चलने के लिए भी खर्च करना पड़ता है। अब कल्पना कीजिए कि महज 13 प्रतिशत से कुछ अधिक हिस्सा पाने वाले राजकीय विश्वविद्यालयों के लिए संस्थान की गुणवत्ता बनाये रखना कितना कठिन है क्योंकि सुविधा तो सबको चाहिए मगर फीस बढ़ी तो हाय तौबा मच जाती है। अब सवाल यह है कि इस परिस्थिति में मुफ्त शिक्षा प्रदान कर पाना क्या किसी भी सरकार के लिए सम्भव है? किसी परिवार में भी भोजन बाँटते समय आधार सदस्यों की संख्या ही होती है और यह भी कि उसे जरूरत कितनी है। अधिकतर राजकीय विश्वविद्यालय संरचना की कमी से जूझ रहे हैं। शहरों की ही नहीं बल्कि जिला स्तर पर जब जाते हैं तो यह अभाव और गहराता जाता है। ऐसे में संस्थान के लिए गुणवत्ता बरकरार रखना बहुत कठिन है। बात यह है कि जेएनयू और विश्वभारती की तरह ही रवीन्द्रभारती, उत्तर बंग विश्वविद्यालय समेत देश भर के राजकीय विश्वविद्यालय हैं तो फिर अनुदान 13.13 प्रतिशत ही क्यों और जब आप अनुदान कम देंगे तो गुणवत्ता कैसे चाह सकते हैं?

इस पर विद्यार्थियों से जो फीस मिलती है, वह आज 70 साल बाद भी 10-20 रुपये से लेकर कुछ हजार रुपये ही है और इस पर फीस बढ़ाने पर आए दिन धरने होते रहते हैं। सस्ती शिक्षा की बात करना और कहना बहुत आसान है मगर धरातल पर जाकर देखने की जरूरत है कि अगर सभी को मुफ्त शिक्षा मिलेगी तो संस्थान चलेंगे कैसे? बिजली, पानी, वेतन, मरम्मत, परीक्षा, विद्यार्थी समेत कई सारी चीजों पर खर्च होता है, संस्थान वह खर्च कहाँ से निकालेगा? आखिर विद्यार्थियों को पंगु और परजीवी बनाकर आप उनके लिए कैसा भविष्य लिख रहे हैं? आपकी यही नीति है कि पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वे व्यावहारिक तौर पर काम करने उतरते हैं तो उनको खारिज कर दिया जाता है क्योंकि जो वह सीखते हैं, वह इन क्षेत्रों के लिए कारगर होता ही नहीं, मगर पढ़ते हुए जब वह काम करते हैं तो उनको व्यावहारिक अनुभव होगा ? राजकीय विश्वविद्यालयों की लचर संरचना पर भी हम बात करेंगे और विद्यार्थियों पर भी मगर ये समझना जरूरी है कि जिन देशों में सस्ती व मुफ्त शिक्षा की बात की जा रही है, उनकी आबादी सवा सौ करोड़ नहीं है। सबसे जरूरी है कि अनुदान में जो विषमता है, उसे दूर किया जाए। छात्रवृत्ति की जगह आंशिक कार्य की व्यवस्था हो,शिक्षकों के वेतन और उनकी सुविधाओं में समानता लायी जाए, तभी वह दिल से काम कर सकेंगे और तभी इस समस्या का समाधान निकल सकता है, वरना नहीं।

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