रंगीलो राजस्थान की संस्कृति शूरता, वीरता और श्रृंगार की धरती रही है। एक ओर बनास नदी और अरावली की पर्वत श्रृंखला तो दूसरी ओर भयावह चंबल का क्षेत्र और धोरों के टीले। भौगोलिक दृष्टि से कठिन चुनौतियों से भरा राजस्थान योद्धाओं की धरती रही है।आज से एक लाख वर्ष पूर्व मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे आया था। वहीं से राजस्थान की कहानी की शुरुआत होती है, वर्षों से कई परिवर्तन होते रहे। राजस्थान, राणा प्रताप,मेवाड़, हल्दी घाटी, आरावली और राजपुताना आदि का पर्याय हैं। वस्तुतः राजस्थान एक रियासत है,जहाँ भील और मिनस आदि जनजातियों का प्रभुत्व रहा है। गाडिया लोहार छोटे राजस्थानी राजपूत जनजाति है। मेहर के महाराणा प्रताप की सेना में गाडिया लोहार लोहार थे। धीरे-धीरे समय के साथ वे बंजारों की तरह रहने लगे। सातवीं सदी में पुराने गणराज्य अपने को स्वतंत्र राजा के रूप में स्थापित करने लगे। मोर्यों के समय में चित्तौड़ गुबिलाओं के द्वारा मेवाड़ और गुर्जरों के अधीन पश्चिमी राजस्थान का गुर्जरात्र प्रमुख राज्य था। लगातार होने वाले विदेशी आक्रमणों के कारण यहां एक मिलीजुली संस्कृति का विकास हो रहा था।उधर सन् 647 में राजा हर्ष की मृत्यु के बाद केंद्र में मजबूती नहीं रही।अकबर जैसे मुगल सम्राट ने महाराणा को हराने के लिए सभी प्रयास किए जो इतिहास विदित है। महाराणा प्रताप राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे भारत की शान रहे जिन्होंने अपनी वीरता और शूरता से अपनी मातृभूमि को बचाने के लिए अपने प्राणों को न्योछावर किया। आज 19 देशी राजाओं की रियासतों के राजाओं का सम्मिलन है राजस्थान। लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुंभलगढ़ में हुआ था। इतिहास कार विजयनाहर ने राजपूतों के इतिहास के विषय में विस्तार से चर्चा की है। 1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 500 भीलों को साथ में लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह के 80,000 की सेना के साथ शत्रु का सामना किया। (विकिपीडिया) शत्रु सेना से घिर चुके प्रताप को मानसिंह ने अपने प्राण देकर बचाया। उस दौरान उनके प्रिय घोड़े चेतक की भी मृत्यु हो जाती है। फिर भी उन्होंने अकबर के सामने घुटने नहीं टेके। अकबर ने उनको हराने के लिए सभी प्रयास किए। यह युद्ध एक दिन का था परंतु उस दिन 17,000 लोग मारे गए। प्रताप की हालत दिनोंदिन चिंता जनक होती चली गई। भामशाह ने उस समय 25,000 आदिवासियों को इतना धन दिया जिससे बारह वर्षों तक उनका गुजारा हो सकता था।
मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने अपना पूरा जीवन बलिदान कर दिया जो एक मिसाल है।
प्रताप राजस्थानी साहित्य और संस्कृति के चहेते चरित्र हैं जो पूरे भारत के गौरव हैं।
साहित्यकार और महाकवि कन्हैयालाल सेठिया जी की ये पंक्तियाँ महाराणा प्रताप के मातृभूमि प्रेम की तरह ही अजर-अमर हैं – – – –
“धरती धोंरां री
आ तो सुरगा नै सरमावे
इ पर देव रमण न आवे – –
ईं रो चित्तौड़ो गढ़ लूंठो,
ओ तो रण वीरां रो खूंटो,
ईं रे जोधाणूं नौ कूंटो, – – धरती धोंरां री।
राजस्थान के सुजानगढ़ चुरू में 11 सितंबर 1919 में जन्मे महाकवि सेठिया कलम के सिपाही थे जिन्होंने राजस्थान में सामंतवाद को समाप्त करने के लिए जबर्दस्त मुहिम चलाई और पिछड़े वर्ग को आगे लाने के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे कराची में थे। 1943 में सेठिया जी महान नेताओं जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के संपर्क में भी रहे। राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार से सम्मानित महाकवि कन्हैयालाल सेठिया की कलम की ताकत किसी देशप्रेमी रण बांकुरे से कम नहीं थी। वे अपनी कविता “जागो जीवन के अभिमानी” में लिखते हैं – – –
“लील रहा मधु – ऋतु को पतझर
मरण आ रहा आज चरण धर
कुचल रहा कलि – कुसुम,
कर रहा अपनी ही मनमानी
जागो जीवन के अभिमानी ”
भारत के सुदूर पश्चिम में राजस्थान उनका जन्म स्थान रहा और पूर्व में बंगाल उनकी कर्म स्थली रही। दोनों से ही सांस्कृतिक जुड़ाव रहा। स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कन्हैयालाल सेठिया अपनी भाषा प्रेम के कारण विशेष याद किए जाते हैं।
आधुनिक नवजागरण के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने “निज भाषा उन्नति अहे सब भाषा को मूल” माना वहीं कन्हैयालाल सेठिया ने “मायण भाषा”( मातृभाषा) राजस्थानी और
साहित्य हिंदी भाषा को समृद्ध किया। कविवर सेठिया जी को प्रवासी राजस्थानियों से दुखी रहते थे कि वे अपनी मातृभाषा को भूलते जा रहे हैं। मैं बूंदी राजस्थान की हूँ लेकिन बनारस शिक्षा स्थली और कोलकाता कर्मस्थली और घर है। मेरी भाषा हाड़ौती और शेखावाटी है परंतु बोलने की आदत कम होने के कारण महाकवि सेठिया जी ने मुझे सदैव अपनी भाषा में बात करने के लिए उत्साहित किया। आज लोग अपनी भाषा की अहमियत को समझ रहे हैं।भाषा भारतीय संस्कृति का प्राण है। सेठिया जी कोलकाता में रहते हुए भी अंत तक अपनी भाषा के गौरव के लिए लड़ते रहे। कलम के धनी सेठिया जी की राजस्थानी रचनाओं में रमणिया रा सोरठा, गलगचिया, मींझर, कूं- कूं, लीलटांस, धर कूचा धर मजलां, मायड़ रो हेलो, सब्द, सतवाणी, अंधरी काल, दीठ, क-क्को कोड री, लीकल कोलिया, हेमा णी इत्यादि लोकप्रिय रचनाएँ हैं। हिंदी रचनाओं में वनफूल, अग्नि वीणा, मेरा युग, दीप किरण, प्रतिबिंब, आज हिमालय बोला, खुली खिड़कियां, चौड़े रास्ते, प्रणाम, मर्म, अनाम निर्ग्रंथ, स्वागत, देह विदेह, आकाश गंगा, वामन विराट, श्रेयस, निष्पत्ति, त्रयी आदि हैं।
प्रसिद्ध रचना पाथर ‘र पीथल की ये पंक्तियाँ सेठिया जी के राजस्थानी व्यक्तित्व को उजागर करती हैं, उन्हें अपनी मातृभूमि का कर्ज चुकाने के लिए “सीस” भी कटवाना पड़े तो वह भी कम है, वे कहते हैं —
मैं भूख मरूं हूँ प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ा में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै
हूँ रजपूतण रो जायो हूँ
राजपूती करज चुकाऊंला
ओ सीस पडै़ पण पाघ नहीं
दिल्ली रो मान झुकाऊंला
हल्दीघाटी राजपुताने की वह पावन बलिदान भूमि है जिसके शौर्य एवं तेज की भव्य गाथा से इतिहास के पन्ने रंगे हैं। राजपूत वीरों का तेज और महाराणा का लोकोत्तर पराक्रम इतिहास में प्रसिद्ध है। संवत् 1633 विक्रम संवत में मेवाड़ के हल्दीघाटी का कण-कण लाल हो गया था। अपार शत्रु सेना के सामने थोड़े से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते? महाराणा को पीछे हटना पड़ा। और उनके प्रिय घोड़े चेतक को भी मृत्यु का मुंह देखना पड़ा।
महाकवि कन्हैयालाल सेठिया ने महाराणा के स्वतंत्रता संघर्ष को उपमाएं दी हैं जो इतिहास को भी चुनौती देती हैं। प्रताप ने अपनी मातृभूमि और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए भौगोलिक स्थितियों की दुरूह कठिनाइयों को झेला, कभी भी अकबर के सामने नहीं झुके। कवियों ने प्रताप की इसी वीरता और शूरता के गीत गाए।प्रताप ने 22 हजार राजपूतों में विश्वास रखा और हल्दीघाटी को भी अमरता प्रदान की।हल्दीघाटी वही स्थान है जहां युद्ध हुआ। कई ऐतिहासिक मत हैं जिनकी चर्चा यहां करना नहीं है। विभिन्न कवियों ने अपनी – अपनी कल्पना और सामाजिक अनुभवों, संवेदनाओं को अपनी लेखनी में आबद्ध किया जो एक तरह से कवि का राजस्थान के प्रति शूरता, वीरता, आन- बान – शान और देश भक्ति का प्रतीक है। वीर रस काव्य के सुविख्यात कवि श्यामनारायण पांडेय( सन् 1907-1991)गायक भी थे। “हल्दीघाटी” जैसी प्रसिद्ध रचना आज भी सबको रोमांचित कर देती है। अरावली पर्वत मालाओं में खमनोर एवं बलीचा गांव के बीच हल्दीघाटी एक पहाड़ी दर्रा है जहाँ
शहीदों की स्मृतियों में छतरियां बनी हुई हैं। दर्रे में हल्दी रंग की मिट्टी होने के कारण हल्दीघाटी नाम पड़ा।
सेठिया जी ने राणा की पीड़ा को उनके पुत्र के हाथों से बिलाव का घास की रोटी छीन कर ले जाने से किया जो इतिहास नहीं कवि का सृजन है। “अरे घास री रोटी” की कल्पना मात्र साहित्यिक कल्पना है। पातल ‘र पीथल में वे लिखते हैं – – –
“अरे घास री रोटी ही जद
बन बिलावडो़ ले भाग्यो
नान्हो सो अमरयो चीख पड्यो
राणा रो सोयो दुख जाग्यो – – – –
जद याद करूं हल्दीघाटी
नैणां में रगत उतर आवै
सुख दुख रो साथी चेतकडो़
सूती सी हूक जगा ज्यावै।
राजकुमार अमर सिंह के हाथ से बनविलाव द्वारा घास की रोटी छीनने का ये सच। महाराणा के स्वतंत्रता संघर्ष की कई उपमाएं दी गईं हैं जो इतनी मार्मिक हैं कि उनके प्रमाण इतिहास में ढूंढने का विषय बन गए हैं। 17 वर्षीय प्रताप का पुत्र अमर सिंह राजपूती है जो शेर और हाथियों का मुकाबला करने में सक्षम है तो भला एक बनविलाव ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। यह मात्र साहित्यिक कल्पना है। राजस्थान के पुत्र तो रण बांकुरे होते तभी तो कवि कहते हैं – – – –
माई एहडा़ पूत जण
जेहडा़ राण प्रताप
अकबर सूतो ओधकै
जाण सिराणे लोप।
महाराणा तो अपने देश के लिए चिंतित हैं – – फूलां री कंवली सेजां पर,
बै आज रूलै भूखा तिसिया,
हिंद वाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क,
राणा री भीम बजर छाती
मातृभूमि पर मर-मिटने वाले अलग ही मिट्टी के बने होते हैं वे स्वयं मिट सकते हैं लेकिन देश की आन पर आंच नहीं आने देते- – –
राणा री पाघ सदा ऊंची
राणा री आण अटूटी है
राणा दर – दर भटक सकते हैं, ठोकर खा सकते हैं, प्यासे मर सकते हैं, भूख से बिलबिला सकते हैं लेकिन उस समय भी केवल मातृभूमि के प्रति मस्तिष्क में प्रेम ही रहता है – – – – –
हूं भूख मरूं प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूं घोर उजाड़ा में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै
सेठिया की दृष्टि भी सदैव अपनी भाषा, संस्कृति और संस्कारों के प्रति जागरूक रहे। अरावली की पर्वत श्रृंखलाएं भी पूरे भारत देश के लिए प्रेरणादायक हैं जहाँ कभी जीवन पुष्पित और पल्लवित हुआ था । मेवाड़ का गौरवशाली इतिहास रहा है। अग्नि वीणा में कवि कहते हैं – – – –
देख आज मेवाड़ मही को
आडा़वल की चोटी नीली
उसकी बीती बात याद कर
आज हमारी आंखें गीली।
जिसके पत्थर – पत्थर में भी
जय नादों की ध्वनि टकराई,
जहाँ कभी पनपा था जीवन
वहाँ मरण की छाया छाई
सत्य और असत्य को इंगित करते हुए कवि कहते हैं —
फूल विहंसता, शूल मौन है
एक डाल के दोनो साथी
दोनों को ही हवा झुलाती
फूल झरेगा, शूल रहेगा, सत्य कौन है?, भूल कौन है? साहित्य जगत में कवि पृथ्वी राज राठौड़ ही पीथल हैं और पातल का प्रयोग पार्थ या कृष्ण के रूप में हुआ है। कर्नल टॉड ने ग्रंथ राजस्थान का पुरातत्व इतिहास, अकबरनामे में इनका जिक्र आता है। पीथल अकबर के दरबार के प्रसिद्ध कवि और योद्धा दोनों थे लेकिन प्रताप के प्रशंसक भी थे। अकबर किसी भी तरह से प्रताप को हराना चाहते थे।शत्रु पक्ष के होते हुए भी पीथल पत्र में प्रताप को उनके स्वाभिमान और वीरता की याद दिलाते हैं।
पद्मश्री से सम्मानित श्री कन्हैयालाल सेठिया जी की 100 वीं जयंती पर उनकी रचनाओं ही उनकी आत्मा है। धरती धोंरां री और पाथल और पीथल रचनाएँ अमर हैं, कालजयी हैं। जब तक भारतवर्ष है तब तक शब्दों में जडे़ उनके मोती शस्य श्यामला धरती को ऊर्जावान बनाते रहेंगे। राजस्थान के रवीन्द्र नाथ टैगोर कहे जाने वाले सेठिया जी के दार्शनिक भावों और संवेदनशीलता को वसुंधरा मिश्र का शत – शत नमन।