अक्षुण्ण रहेगी हिन्दी की अस्मिता

डॉ. एस आनन्द 40 वर्षों से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं । साहित्य और व्यंग्य में महारत रखते हैं। सन्मार्ग में 20 वर्षों तक ‘लस्टम – पस्टम’ में तीखे व्यंग्यों के लिए लोकप्रिय। इसके बाद प्रभात वार्ता में ‘बात कहूँ मैं खरी’ और अब सलाम दुनिया में ‘ताँक -झाँक खूब पसन्द किया जाता रहा।’ डॉ. आनन्द भोजपुरी लेखन के लिए भी लोकप्रिय हैं। सोशल मीडिया पर कविताएं खूब पसन्द की जाती हैं

भाषा भावों की संवाहिका और अभिव्यक्ति का श्रेष्ठतम माध्यम है। इसी के द्वारा हम अपने विचारों को सम्प्रेषित कर पाते हैं। बिना भाषा के विचारों का प्रकटीकरण करना सम्भव नहीं है। भाषा ही तो सब कुछ है इसलिए इतिहास के सजीव पृष्ठों पर भाषा के माध्यम से सत्य का उत्स है। आज यही कारण है कि विश्व की पराजित भाषाएँ अपनी – अपनी देशी अस्मिता बनाये रखने के लिए संघर्ष करती दिखायी दे रही हैं। इस संघर्ष की छटपटाहट को दुनिया के अनेक छोटे – छोटे देशों में देखा जा सकता है। अपने देश के स्वाधीनता संग्राम और आन्दोलन का आधार हिन्दी भाषा थी। इसी के माध्यम से ही इतने महान संग्राम को जीतना सम्भव हो सका। स्वतन्त्र भारत में डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘अंग्रेजी हटाओ, हिन्दी लाओ’ के आन्दोलन का सूत्रपात किया था। उनके सशक्त प्रयासों के बाद भी दुर्भाग्यवश भारत को उस औपनिवेशिक शक्तिशाली मानसिकता से मुक्त करना सम्भव नहीं हो सका जिसमें अंग्रेजी को जानना ही विद्वता की निशानी माना जाता है।
दुर्भाग्यवश वर्तमान स्थिति इतनी सम्वेदनशील है कि भाषा के प्रश्न को गैर राजनीतिक ढंग से सोचना ही सम्भव नहीं प्रतीत होता है। हिन्दी हमारी संस्कृति में रची -बसी है, रगों में घुली – मिली हुई है। यह एक विशाल समाज की भाषा है। बहुसंख्यक नागरिकों से सम्पर्क के लिए हिन्दी अनिवार्य है इसलिए अपने देश में एक स्विस बहुराष्ट्रीय कम्पनी हिन्दी सिखाने का व्यवसाय कर रही है। इसके अतिरिक्त अमेरिका सहित यूरोप के कई देश हिन्दी भाषा सीखने का प्रयास कर रहे हैं। यही कारण है कि टेलीविजन पर विदेशी चैनल भी हिन्दी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। आखिरकार उन्हें अपने उत्पाद के तकनीकी महत्व, जरूरी सूचनाएँ, उत्पादों का विज्ञापन हिन्दीभाषी लोगों के बीच में ही करना है। यह हिन्दी भाषा के महत्व को रेखांकित करता है।
हिन्दी कई राज्यों की भाषा है, जैसे – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, दिल्ली आदि। इनका प्रशासनिक कार्य हिन्दी के माध्यम से ही चलता है। इस सत्य के बावजूद लोगों का अंग्रेजी के प्रति आकर्षण कम नजर नहीं आता है। इसे अंग्रेजी के प्रति विवशता कहें या आकर्षण – आज यह भाषा हिन्दी से अधिक सशक्त बन गयी है। लोगों को लगता है कि उनका बच्चा अंग्रेजी नहीं जानता है तो फिर वह कितना भी प्रतिभावान क्यों न हो, सफल नहीं हो सकता इसलिए शिक्षा के निजी क्षेत्रों में अंग्रेजी माध्यम का स्कूल चलाना एक बेहद लाभकारी व्यवसाय बन चुका है जिसमें अब बड़े – बड़े उद्योगपति भाग ले रहे हैं इसलिए अंग्रेजी के प्रति यह प्रेम, हिन्दी की उपेक्षा को स्पष्ट दर्शाता है। भारतीय समाज को देखकर शंका होती है कि क्या हम सचमुच हिन्दी के समर्थक हैं या हम ऐसा होने का महज ढोंग करते हैं। हमें अपनी क्यारी के प्राकृतिक फूल अच्छे क्यों नहीं लगते हैं? हम प्लास्टिक या कागजी फूलों की कृत्रिमता को क्यों अपने गले का हार बना रहे हैं?
यह सर्वविदित सत्य है कि इतिहास के हर कालखण्ड में भाषा, सत्ता की मुखापेक्षी रही है। कभी हमारे देश की प्रमुख भाषा संस्कृत रही है परन्तु जैसे ही वह कालखण्ड समाप्त हुआ और सत्ता मुगलों के हाथों में आयी तो फारसी का वर्चस्व बढ़ गया। लार्ड मैकाले जैसे चतुर, चाालाक कूटनीतिज्ञ ने बड़ी ही चतुराई से षडयंत्र करके अंग्रेजी को सभ्य एवं सम्मानित लोगों की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। वह यह सिद्ध करने में सफल हो गया कि अंग्रेजी आंग्ल सभ्यता की निशानी है और हमारी गुलाम मानसिकता इस षड्यंत्र का पर्दाफाश भी नहीं कर पायी और यही कारण है कि हम आज भी भाषा की गुलामी की चादर ओढ़े हुए हैं। जब एक राष्ट्र का एक झंडा होता है, एक राष्ट्रीय प्रहरी होता है, एक राष्ट्रपति होता है तो एक भाषा क्यों नहीं है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वन नेशन, वन इलेक्शन की झण्डाबरदारी करते हैं तो वे यह क्यों भूल जाते हैं कि एक राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा भी होनी चाहिए?
अंग्रेजी भाषा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुप्रचारित भाषा है और विश्व भर में भ्रमण, व्यापार, शिक्षा, संचार आदि के क्षेत्र में इसका लाभ मिलता है। अंग्रेजी भाषा इस साम्राज्यवादी बाजार की भाषा है जिसका सारा काम अंग्रेजी माध्यम से होता है। साम्राज्यवादी अपने उपनिवेशों में अपनी भाषा और संस्कृति को थोपने का प्रयास करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि आधुनिक युग में किसी भी राष्ट्र को शक्ति या सैन्यबल के द्वारा गुलाम नहीं बनाया जा सकता परन्तु भाषा एवं संस्कृति की मानसिक दासता सदियों तक चल सकती है जैसे कि हमारे देश में अंग्रेजी के प्रति चल रह है। अंग्रेजी का प्रभाव तो अंग्रेजों के समय भी इतना नहीं था जितना कि स्वतन्त्र भारत में दिखायी दे रहा है।
हिन्दी हमारी मातृभाषा है और इस भाषा के प्रति हमारे मन में लगाव होना चाहिए। अपनी भाषा तो भावनात्मक रूप से हमारे मन में बसनी चाहिए। षड्यंत्र के द्वारा हो सकता है कि थोड़ा – बहुत व्यतिक्रम आ जाए परन्तु यह स्थिति देर तक नहीं ठहरने वाली है और न चलने वाली है इसलिए निकट भविष्य में हिन्दी भाषा की अस्मिता को नष्ट कर जिस अंग्रेजी भाषा को वरीयता दी गयी है, उसे टूटना ही है। पुनः हिन्दी की प्रतिष्ठा होगी, समय जितना भी लग जाये क्योंकि राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने लिखा है –
‘किन्तु विमाता बन विदेश की
कोई माता आयेगी
तो वह यहाँ पूतना की गति
आप अन्त में पायेगी।।’

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