प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी
सन् 2000 में स्त्री पर पहली पुस्तक लिखी थी। अगर स्त्री साहित्य और संबंधित पुस्तकों पर बात की जाये तो कोलकाता में पुस्तकें उपलब्ध हैं मगर जब पहली पुस्तक लिखी तो कोलकाता में इस तरह पुस्तकें नहीं थीं। रमाशंकर शुक्ल ने सबसे पहले स्त्रीवादी व्याख्यान दृष्टिकोण से पुस्तक लिखी। स्त्री साहित्य को पढ़ने के लिए जिस पुराने साहित्य का होना जरूरी है, वह आधुनिककाल में जाकर मिलता है मगर आलोचक स्त्री लेखिकाओं पर विस्तार से बात नहीं करते। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक के पास 15 -20 से अधिक स्त्री लेखिकाओं के नाम नहीं हैं। यहाँ तक कि बंग महिला से परिचय होने के बावजूद शुक्ल जी उन पर नहीं लिखते और हिन्दी आलोचना में भी यही स्थिति है। जरूरी है कि स्त्री साहित्य और स्त्री लेखिकाओं को खोजा जाए। आज स्त्री लेखिकायें लिख रही हैं और अपनी समस्याओं को लेकर मुखर भी हैं मगर 15 -20 साल पहले यह स्थिति नहीं थी। अगर आचार्य शुक्ल जैसे बड़े लेखक इस तरह का पक्षपात करेंगे तो शिक्षक कैसे बताएगा कि स्त्री लिखती है? स्त्री लिखती भी है, इस बात पर ही किसी को विश्वास नहीं होता। हिन्दी का लेखक मानने को तैयार ही नहीं है कि स्त्री लिखती भी है…आम धारणा तो यही है कि स्त्री ने किसी से लिखवा लिया होगा। लड़कियाँ जिस तरह से लिखती हैं, वह दिखता नहीं है। स्त्री जितनी सरल है, उतनी ही खतरनाक भी है, वह जितनी निर्बल है, उतनी ही सबल भी है।
स्त्री साहित्य को समझने के लिए उसके प्रति समर्पण और विश्वास का होना जरूरी है, यही स्त्री साहित्य को पढ़ने का सबसे अच्छा तरीका भी है। एक शिक्षक के दरवाजे 24 घंटे खुले रहने चाहिए जिससे वह छात्राओं के प्रश्नों और उनकी समस्याओं का समाधान कर सके, उनका मार्गदर्शन कर सके। स्त्री साहित्य का परिवेश किताबों से नहीं जीवन से आता है। स्त्री साहित्य का परिवेश जीवन से जुड़ा है मगर हमने परिवेश को स्त्री के अनुकूल नहीं बनने दिया मगर इस मामले में कोलकाता अलग है क्योंकि यहाँ ऐसा परिेवेश है। यह परिवेश 200 साल पहले बना है, इसके पहले स्त्री की कोई ठोस छवि हमारे सामने नहीं आती। आधुनिक काल के पहले स्त्री का वास्तविक स्वरूप हमारे पास नहीं था। भारतेंदु युग ने स्त्री को सबसे पहले जाना। स्त्री साहित्य को समझने के लिए राधा मोहन गोकुल की दृष्टि होनी चाहिए। स्त्रियों के बारे में उनके निबंध फेमिनिज्म के पहले विचारक निबंध हैं मगर रामविलास शर्मा भी गोकुल के स्त्री संबंधी विचारों पर बात नहीं करते। हिन्दी में स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य में गोकुल के दृष्टिकोण का विशेष महत्व है। महादेवी वर्मा का दृष्टिकोण उनसे मिलता है और इसके बाद ही श्रृंखला की कड़ियाँ प्रकाशित होती है। स्त्री के स्वभाव, लक्षण, साहित्य को विश्लेषित नहीं करते। हिन्दी में परिवार पर निबंधों का अकाल है, दहेज पर निबंध नहीं मिलते। स्त्री के यौनिक प्रश्नों से प्रगतिशील आलोचना दूर भागती है। नामवर सिंह भी 2006 में जाकर स्त्री के प्रश्नों पर बोलते हैं और रामविलास शर्मा ने केवल एक निबंध लिखा और अच्छा कहने के अलावा कुछ नहीं कहा। छायावाद की सबसे अच्छी आलोचना महादेवी वर्मा ने लिखी मगर उन पर भी बहुत कम बात होती है।
स्त्री की सबसे बड़ी समस्या रोजगार है। आज बड़े पैमाने पर औरतें रोटी कमाने के लिए जूझ रही हैं मगर साहित्य में मोहन राकेश से लेकर मन्नू भंडारी के यहाँ भी स्त्रियों की समस्या सिर्फ अवैध संबंध हैं। लड़की की कोई जाति नहीं होती। दहेज और बाल विवाह स्त्रियों की बड़ी समस्या है। आलोचना का काम है कि वह अनुप्लब्ध क्षेत्रों को उपलब्ध कराये। स्त्री के बड़े प्रश्नों पर बड़े लेखक बात नहीं करते।
स्त्री और उसकी समस्याओं को सामने लाने के पीछे वे अंतरराष्ट्रीय समझौते हैं, जिन पर 1970 -75 में भारत ने हस्ताक्षर किये थे। बीना मजुमदार रिपोर्ट के जमा होने के बाद पता चलता है कि स्त्रियों की समस्याएँ कितनी भयावह हैं, उन तक पंचवर्षीय योजनाओं के लाभ नहीं पहुँच पा रहे थे। इसके बाद जाकर स्त्रियों के पक्ष में कानून बनने शुरू हुए। आज भी 98 प्रतिशत स्त्रियाँ अपनी मर्जी से बगैर पूछे कोई फैसला नहीं कर पाती। वह अपने फैसले पर किसी और की मुहर का इंतजार करती हैं।
स्त्री के प्रश्नों पर गोपनीय तरीके से बात होती है जबकि उन पर खुलकर बात करने की जरूरत है। शिक्षकों को और पुरुष शिक्षकों को भी इन पर बात करने की जरूरत है और पुरुष शिक्षकों को भी इन समस्याओं को संवेदनशील होकर समझने की जरूरत है। स्त्री की समस्याएँ सामाजिक प्रश्न हैं, उन पर बात होनी चाहिए। शिक्षक अपनी छात्राओं को वह साहस दें कि वे अपनी बात शिक्षकों से कह सकें। साहित्य के प्रश्नों के समाधान जीवन में होते हैं। आज दिक्कत यह है कि बड़े पैमाने पर स्त्री की चेतना का रूपांतरण साम्प्रदायिक तरीके से हो रहा है। औरतें अपराधियों की हिमायत में कवच बनकर खड़ी हो रही हैं। स्त्री की मनुष्यता खत्म हो रही है मगर हमें स्त्री भी चाहिए और मनुष्य भी चाहिए। स्त्री को स्त्री बने रहने दें। स्त्री को लिंग के दायरे से बाहर लाया जाये। हमें एक अच्छी मानवीय स्त्री चाहिए। स्त्री की अस्मिता के प्रश्नों को मनुष्यता के दायरे से जोड़ा जाये। इस विषय पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की स्त्री का पत्र कहानी पढ़ी जानी चाहिए। स्त्री के प्रश्नों को उसकी पहचान के दायरे से आगे लाकर मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। स्त्री को न सिर्फ मनुष्य माना जाये बल्कि उसे आचरण में भी लाया जाये, उसे खर्च दें जिसका इस्तेमाल वह अपने तरीके से कर सके। परिवार का लोकतांत्रिककरण करना आवश्यक है। वर्जीनिया वुल्फ मानती हैं कि परिवार की संरचना में फासीवाद होता है और उसकी जड़ वहीं है। पितृसत्ता को नष्ट करने के लिए फासीवाद का खात्मा जरूरी है। विवाह के समय लड़का – लड़की, दोनों की सहमति ली जाए तो आधी समस्यायें खुद खत्म हो जायेंगी। स्त्री पुरुष के संबंधों को लोकतांत्रिक बनाने की जरूरत है।
भाग दो
हर लड़की की मनोदशा अलग होती है। उसकी समस्या को समझना है तो उसकी आँखों में आँखें डालकर बात कीजिए। हमने महिलाओं के साथ परदे का संबंध रखा है मगर जरूरत बगैर परदे के स्त्री से संवाद करने की है। उसकी खिल्ली उड़ाने की जरूरत नहीं है। स्त्री की भावनाओं का सम्मान करें। हम स्त्री पर अपने विचार थोपते हैं। पुरुष अपने हिसाब से स्त्री को ढालना चाहता है। हमें वही लड़की अच्छी लगती है जो हमारे हिसाब से ढल जाये। अब स्त्री पुरुषों का ही अनुकरण कर रही है। राधा मोहन गोकुल ने लिखा है कि जिस पति – पत्नी के संबंधों में नशे की लत होती है, उनके बच्चे अवसादग्रस्त होते हैं। हमने तो कभी सोचा ही नहीं कि माता – पिता के संबंध बच्चे के भविष्य को प्रभावित कर सकते हैं। अब तो स्थिति सुधरी है, बच्चों को लेकर आज के माता – पिता काफी ध्यान दे रहे हैं और सजग हैं मगर आम धारणा यही रही है कि बच्चे खुद ही बड़े हो जाए, हम उसकी जरूरतें पूरी कर देंगे।
हिन्दीभाषी समाज पर पूँजीपति वर्ग का गहरा असर है और यह वर्ग किताबें नहीं पढ़ता। छूत की समस्या हमारी सबसे बड़ी समस्या है। हमें अपनी मर्जी से कम से कम आधा या एक घंटा भी अपनी इच्छा का कोई काम करना चाहिए। धर्म हमेशा से शोषण का उपकरण रहा है जिसके संचालन की बागडोर हमेशा से पुरुषों के हाथ में रही है। अगर यह बागडोर स्त्रियों को मिली होती तो उनका इतना शोषण नहीं होता। धर्म के संचालन में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ा दें, उसे कमान दे दें, आधी समस्याएं ऐसे ही खत्म हो जायेंगी।
यही स्थिति आर्थिक क्षेत्र में भी है। सेबी के निर्देश के बावजूद कम्पनियों ने महिलाओं को निदेशक मंडल में शामिल किया मगर आज भी 400 से अधिक कम्पनियों में महिला निदेशक नहीं है और न ही किसी निर्णायक पद पर हैं। स्त्री जितना संचालन करेगी, उतनी ताकतवर होगी। स्त्री के प्रश्नों को समानता, लोकतंत्र और न्याय, इन तीन आधारों पर देखे जाने की जरूरत है। स्त्री को लोकतंत्र तक जाने ही नहीं दिया जा रहा है। स्त्री के अराजनीतिक होने की सीमा को तोड़ने की जरूरत है।
राधा मोहन गोकुल पुरुष को स्त्री के वेश्या बन जाने का बड़ा कारण मानते हैं। जो क्षेत्र क्रांति के लिए जाने जाते हैं, उन क्षेत्रों में वेश्यावृति तेजी से बढ़ रही है। बंगाल और नेपाल ऐसे ही क्षेत्र हैं। विकास का अभाव, माइग्रेशन, बांग्लादेश की उथल – पुथल इसके प्रमुख कारण हैं। विभाजन के बाद दंगों के दौरान और युद्ध में भी वेश्यावृत्ति इतनी नहीं बढ़ी थी। इसे कानूनी जामा नहीं पहनाया जाना चाहिए बल्कि वेश्याओं के उद्धार और उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जानी चाहिए। हमारी सरकारों के पास वेश्याओं की समस्याओं के समाधान के लिए कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। वेश्याओं की समस्याओं पर खुलकर बात हो, अखबारों में बात हो। उनके लिए कंडोम की व्यवस्था हो और उसके अस्तित्व की रक्षा की जाए, तभी इस समस्या का समाधान हो सकता है। वेश्याओं के बच्चों का स्कूलों में दाखिला होना एक बड़ी समस्या है। स्त्री के सारे प्रश्न उसके शरीर से जुड़े हैं इसलिेए उन पर बहस पर बात किये बगैर नहीं हो सकती। स्त्री को देखना है तो उसके हृदय में देखिए, वह वहीं मिलेगी।
(कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा स्त्री, उसके प्रश्नों और स्त्री साहित्य पर आधारित व्याख्यानमाला में दिये गये व्याख्यान पर आधारित)