Sunday, May 11, 2025
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समाज- साहित्य-संस्कृति और रवीन्द्रनाथ टैगोर

डॉ. वसुन्धरा मिश्र
भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज, कोलकाता

मनुष्य की सारी मानसिकता, देश और काल के व्यवधान को चीरकर क्यों कहाँ और कैसे अपना सामंजस्य और आश्रय खोज लेती है और अनजाना अनदेखा क्षितिज सारी दूरी समाप्त कर अपने सतरंगी स्वरूप से जीवन को श्रीमंडित कर देती है। जॉन स्ट्रैची ने प्रसिद्ध दार्शनिक ह्यूम पर लिखते हुए मानवता के दो गुणों पर चर्चा करते हुए यही पाया कि किसी भी व्यक्ति को उसका व्यक्तित्व और कर्तृत्व की श्रेष्ठता ही उसे महान बनाता है और उसके जीवन – लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम समर्पण और गहरी लोकोत्तर मानवीय संवेदना। ये दोनों गुणों से ही निःस्पृहता, त्याग, संकल्प और प्रेम उद्भूत होते हैं जो अनासक्त और निष्काम कर्म का संपादन कर मनुष्य को वास्तविक उच्चता, गहनीयता और श्रेष्ठता से विभूषित करते हैं।
प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक ताओ के शब्दों में मौन अस्तित्व और कर्तृत्व ही महानता की उज्जवल आभासें स्वतः युक्त होकर आलोक रेखा बन जाती है, वे ही वस्तुतः सारस्वत और महान हैं। उनका व्यक्तित्व न खंडित होता है और न विभक्त। सर्वात्म समर्पण और लक्ष्य पर लगी उनकी निर्मिमेष दृष्टि उन आदर्शों का सूत्रपात करती है जिनसे समाज अपना मार्ग निर्धारित कर आगे बढ़ता है।
शील, परोपकार, मानवीय संवेदना ही मनुष्यत्व है जिसके लिए महर्षि व्यास ने कहा है’ परोपकार :पुष्पाय पापाय पर पीडनम्’ सचमुच वही मनुष्य पुण्यव्रती होता है।
जब हम किसी साहित्यकार का मूल्यांकन करते हैं तो हम उसका आकलन उनकी उत्कृष्ट रचनाओं से करते हैं न कि विफलताओं से, जिनसे होकर वह गुजरता है।इतना ही नहीं, जब हम महान संस्कृतियों और सभ्यताओं की ओर देखते हैं तो हमें उनमें विश्वजनीन मूल्यों के तत्वों की खोज करनी चाहिए ताकि ये तत्व मानवता की सच्ची विरासत बन सकें।
मनुष्य प्रेम और सृजन के लिए पैदा हुआ है, न कि घृणा और विनाश के लिए। नये राष्ट्रों के अभ्युदय से, पराधीन लोगों की स्वातंत्र्य-संबंधी उत्कट भावना से, विश्व की संपदा में गरीब लोगों की अधिकाधिक हिस्सा पाने की मांग से, कतिपय राष्ट्रों द्वारा जातिभेद की नीति अपनाने से और गरीब तथा अमीर राष्ट्रों के बीच बढ़ती विषमता से यह संसार तनावों से भर गया है।
आज विश्व को आध्यात्मिक दृष्टि की ओर उन्मुख करने की आवश्यकता है। भारत ने संसार में इतने कार्य किए हैं, फिर भी हम किसी आशंका से भयभीत हैं। यही कारण है कि मनुष्य का स्वरूप द्वंद्वात्मक है। उसमें महान कार्य करने का भी सामर्थ्य है तो बुरे कार्य करने में भी उतना ही समर्थ है। आज मनुष्य की रचनात्मक भूमिका में कमी आती जा रही है, उसे फिर से अपनी शक्ति को सकारात्मक रूप देने की आवश्यकता है।
विज्ञान, उद्योग, शिक्षा और संस्कृति हमें भौतिक और बौद्धिक स्तरों पर जोड़ते हैं। हमें मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है जिसमें मानव गरिमा और स्वतंत्रता के शाश्वत मूल्य अन्तर्ग्रथित हैं। मानवीकरण की ओर बढ़ते विश्व में सांस्कृतिक विविधता सौन्दर्य और रचनात्मकता को जन्म देती है।
साहित्य, धर्म, सौन्दर्य शास्त्र, शिक्षा, ग्रामोद्धार, राष्ट्रीयता, अंतर्राष्ट्रीयता, अंतर्जातीय संबंध श्रृंखला आदि सभी विषयों को साहित्य और संस्कृति में समेटने का महत्वपूर्ण कार्य किया है साहित्य मनीषी कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने (१८६१-१९४१)।वे पूर्ण मानव कहे जाते हैं जिन्होंने दो राष्ट्रों के राष्ट्र गीत लिखे जो अपने-आप में ही विलक्षण बात है। उनकी उपस्थिति सिर्फ साहित्यिक ही नहीं बल्कि संस्कृति नायक की भी रही है। व्यक्ति से कवि को विच्छिन्न करना भी आसान नहीं है।
शिशिर कुमार घोष ने भारतीय साहित्य के निर्माता रवीन्द्र नाथ ठाकुर साहित्य अकादमी से (१९८६) प्रकाशित पुस्तक में लिखा है कि एक नहीं, उन्हीं के शब्दों में, रवीन्द्र नाथ अनेक हैं। वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति थे। जीवन के उत्तरार्द्ध में उन्होंने कहा कि मैं आपमें से ही एक हूँ। पिता महर्षि देवेन्द्र नाथ की चौदहवीं संतान थे और नौकरशाही की छाया में पले बढे़। पिता के कठोर अनुशासन में बच्चे अपना जीवन बिताते थे। हर्ष और विस्मय के विशाल कैनवास में उन्होंने बचपन से ही अपने साहित्य, संगीत और भाषा के भावों को गढ़ लिया था। भानुसिंहेर पदावलि आदि उनकी बाल्यावस्था की रचनाधर्मिता के श्रेष्ठ नमूने हैं। उन्होंने निबंध, नाटक, कहानी, उपन्यास, गीत, दर्शन आदि सबपर लिखा।
रहस्यवादी, आध्यात्मिक यथार्थ की अनुगूँज उनके साहित्य की आंतरिक बनावट है। ‘विराट् लघु प्रतिच्छायित है, अनंत रूपों में’।
जमींदार घराने के राजकुमार के रूप में कई कार्य चाहे जमींदार का हो, शिक्षा का हो, संपत्ति के बंँटवारे का हो, बंगभंग का मामला हो, राजनीति का हो, ग्रामीण उत्थान का हो या एक विश्व के निर्माण के पक्षधर का हो, वे विविध विषयों के ज्ञाता थे। रवीन्द्र नाथ ठाकुर का जीवन तनावों और कौतूहलों से भरा था, लेकिन वह जीवन की अंतिम घड़ी तक न केवल रचनात्मक बल्कि जीवंत भी बने रहे।
रवींद्र नाथ मानते हैं कि भीतर के यथार्थ की चेतना जब बाहर के यथार्थ से संपर्क का माध्यम बनती है तो वह कल्पना और गहन अनुभूति से आती है। इसके लिए अहं के विस्तार को जाना जाए और अपनी अनंतता के साथ उस पार का भी दर्शन किया जाए। कहा जा सकता है कि कला पुल है, छोटे ‘अहं’ और बड़े ‘अहं’ के बीच का पुल। (पृष्ठ ७८, शिशिर घोष
)
कला ही हमारी मानवता को परिभाषित करती है, हमारे सामाजिक सरोकार बढ़ाती है और हमें ऊँचा तथा आगे बढ़ाती है। हमारे सच्चे स्वरूप का प्रतीक, यह सभ्यता और संस्कृति की हृदयस्थली भी है। कवि की ये पंक्तियाँ देखें – –
हे सुंदरता, स्वनामधन्य,
जगत तुम्हारा प्रकाशमय
हो उठेगा एक दिन,
और तुम्हारे बाद नहीं होगी किसी
देवता की स्तुति,
एक बार तुम्हें देखना, जानना काफ़ी है –
एक बार में फूंँक देती है मृत्यु
जीवन की लौ।
फिर भी आशिरसिंचित हैं हम सब। ‘(पृष्ठ ७९-८०,शिशिर घोष)
रवीन्द्र नाथ ठाकुर सिर्फ लेखक ही नहीं, संपूर्ण कलाकार थे। अनंत, विपुल और अनुपम कारयित्री प्रतिभा के पीछे जो व्यक्ति खड़ा है – उसके व्यक्तित्व और कृतित्व पर भरोसा करना ससीम – असीम के बीच की कोई अद्भुत लीला जैसा दीखता है! एक ख़ास रूमानी लक्षण।
क्षेत्रीय धारा से बढ़कर अनंत क्षितिज तक जा पहुँचने वाला व्यक्तित्व। उसकी निष्ठा किसके प्रति अधिक प्रगाढ़ थी :आकाश के प्रति कि नीड़ के, पंखों के प्रति कि जड़ों के?
अतिरेक और सुदूर का अन्वेषक यह कवि पृथ्वी का कवि भी था – दुनिया से जुड़ा हुआ, पर दुनियावी नहीं। धार्मिक कम, प्रकृति पूजक अधिक। पृष्ठ ९२, शिशिर घोष।
मैं का आँचल ढलने दो
आने दो चेतनता की शुद्ध ज्योति
कुहेलिका चीरती
दिखाती चेहरा
शाश्वत सत्य का। पृष्ठ ९६।
समाज साहित्य और संस्कृति एक दूसरे में गूँथी वे कड़ियाँ हैं जो मानवीय मूल्यों और आदर्श के नए शिल्प विधान गढ़तीं हैं। इस संदर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को लेने का कारण यह है कि वे केवल बंगाल के ही नहीं बल्कि विश्व के कवि रचना के स्तंभ थे।
कॉपीराइट, डॉ वसुंधरा मिश्र, कोलकाता पश्चिम बंगाल

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