आज के जमाने में ऐसे विरले ही होंगे, शायद न के बराबर, जिन्होंने समाज सेवा के लिए अपने जीवन में सुभाषिणी मिस्त्री जैसा त्याग किया हो। जन्म से ही वक्त ने उनकी घनघोर परीक्षाएं लीं। वह पहले तो जिस घर में पैदा हुईं, वहां मौत ने झपट्टे मारे। जब बच गईं, मुफलिसी में ब्याहकर कलकत्ता से ससुराल अपने गांव पहुंचीं तो वहां भी सिर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। सन 1943 में जब बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था, उन्हीं दिनो उनका जन्म हुआ था। वह चौदह भाई-बहन थीं, जिनमें सात अकाल की भेंट चढ़ गए थे। उनकी मात्र बारह साल की ही उम्र में कृषक पिता ने खेतिहर युवा से ही उनकी शादी रचाई। शादी के बाद तेईस साल की उम्र में वह विधवा हो गईं।
पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव हंसपुकुर की सुभाषिनी मिस्त्री के पति समय पर ठीक से इलाज न हो पाने के कारण ही एक दिन चल बसे। अब उन पर अपने चार बच्चों का बोझ आ गया। उसके बाद सबसे पहले सुभाषिणी मिस्त्री ने अपने सभी चारो बच्चों को अनाथालाय भेज दिया और प्रण किया कि अब किसी गरीब को वह दवा-इलाज के अभाव में नहीं मरने देंगी। उस दिन उन्हें क्या पता था कि इसके बाद खुद उनकी संतानें भी साथ छोड़ देंगी। ऐसा ही हुआ। उस वक्त उन्होंने ठान लिया कि एक ऐसा अस्पताल बनवाएंगी, जिसमें उनके जैसे गरीबों का इलाज हो सके। वह अपना लौह-संकल्प पूरा करने में जुट गईं। अस्पताल खड़ा करना कोई आसाना काम नहीं था, इतना पैसा कहां से आएगा, यह चिंता उन्हें परेशान करने लगी। उन्होंने गांव वालों से मदद मांगी, तो कई लोग उनके साथ जुड़ते चले गए। वह लोगों से आर्थिक मदद तो मांगती ही रहीं, अपना एक-एक दिन दिहाड़ी मेहनत-मजदूरी से पैसा जुटाने में बीस साल तक व्यतीत करती रहीं।इस दौरान उन्होंने पैसे के लिए सब्जियां बेंची, लोगों के जूते तक पॉलिश किए, कई साल तक घरों के जूठे बर्तन धोए पर कदम पीछे नहीं मोड़ा, तनिक विचलित नहीं हुईं, धैर्य नहीं छोड़ा। एक-एक पैसा जमाकर सन् 1992 में उन्होंने सबसे पहले हंसपुकुर में दस हजार रुपए में एक एकड़ जमीन खरीदी। उस पर अस्थाई शेड डाला। कुछ बिस्तर बिछाए और निकल पड़ीं डॉक्टरों के हाथ-पैर जोड़ने। लाउडस्पीकर की मदद से भी शहर में डॉक्टरों %