सफलता उसी के कदमों को चूमती है जो समाज को स्वस्थ और सुन्दर बनाते हैं

संगीत और साहित्य का संगम बहुत कम देखने को मिलता है और ऐसा ही संगम हैं वसुन्धरा मिश्र। संगीत की अच्छी जानकारी और एक प्रोफेसर भी। अंश कालिक अध्यापिका के रूप में दीनबंधु कॉलेज (हावड़ा), जयपुरिया कॉलेज, प्रेसीडेंसी कॉलेज, रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में पढ़ाया और अभी इग्नू में काउंसिलर रह चुकी हैं।  फिलहाल भवानीपुर कॉलेज में अंशकालिक अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। कई किताबें लिख चुकी हैं और सरोद भी बजाती हैं। वसुन्धरा मिश्र से अपराजिता की बातचीत –

पुस्तकीय ज्ञान हमारी विरासत है

शिक्षा अपने आप में ज्ञान का परिचायक है।  केवल किताबी ज्ञान से मात्र नहीं है बल्कि जीवन के तमाम अनुभवों से मिलने वाली शिक्षा भी ज्ञान है। अनुभव और समाज के बीच रहते हुए शिक्षा प्राप्त करना ही सही अर्थों में ज्ञान प्राप्त करना और शिक्षित होना है। यह सही है कि पुस्तकीय ज्ञान हमारी विरासत है और वह हमें उत्तरोत्तर  विकास करने के लिए दिशा देने का कार्य करती रहती है। उसे हमें जानना चाहिए, उसे ढोना नहीं चाहिए तभी किसी भी शिक्षा की गुणवत्ता है। डिग्री प्राप्त करके भी यदि जमीन से जुड़कर काम नहीं किया गया तो वह शिक्षा आगे चलकर कहीं न कहीं नुकसान ही करती है।

वोकेशनल ट्रेनिंग परक शिक्षा ही आज के युग की माँग है

शिक्षण प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो व्यवहारिक अधिक हो। वोकेशनल ट्रेनिंग परक शिक्षा ही आज के युग की माँग है। स्कूल से ही इस प्रकार से बच्चों को तैयार किया जाए जिससे आगे चलकर वह अपना कार्य स्वयं चुन ले, रूचि के अनुसार रोजगार कर सके। साहित्य के विद्यार्थियों के लिए तो विशेष रूप से इस प्रकार की शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए। वैसे तो सृजन की प्रतिभा को निखारने के लिए बच्चों को समय देने की आवश्यकता है। स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा में सेमेस्टर सिस्टम हो गया है जो विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा प्रदान कर रहा है। परंतु यह मात्र डिग्री और अंंक प्राप्ति तक सीमित लगत है, गहन अध्ययन की कमी दिखती है।

भारत के विकास के लिए भारतीय भाषाओं को प्रमुखता देना जरूरी है

विद्यार्थियों को केवल परीक्षा पास करने की जल्दी रहती है। बी ए, एम ए की डिग्री प्राप्त विद्यार्थियों का ज्ञान जमीनी स्तर पर अधूरा ही रहता है। आने वाली नयी पौथ किस प्रकार नयी पीढ़ी को तैयार करेगी, यह आज का बड़ा गंभीर प्रश्न है। भारतीय शिक्षण प्रणाली पर चलने वाले विद्वानों की अलग पहचान हुआ करती थी। भारतीय संस्कार, आचार विचार और संस्कृति से विहीन शिक्षा देश को पूरी तरह से प्रोफेशनल भी बनाने में सक्षम नहीं हो सकती। हमारे पास उसके लिए भी अनिवार्य इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। आज हमें साहित्य संगीत कला के साथ साथ दर्शन, विज्ञान, तकनीकी, खेल, स्वास्थ्य आदि विभिन्न क्षेत्रों में विकास करने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाओं को प्रमुखता देने की आवश्यकता है तभी भारत पूर्ण रूप से विकसित हो सकता है।

नये लोग लिख रहे हैं, अच्छा लिख रहे हैं
साहित्य के विषय में जब हिंदी साहित्य की चर्चा होती है तो कुछ निराशा होती है। ऐसा लगता है कि प्रेमचंद के साहित्य के बाद अभी ऐसा प्रभावशाली साहित्य नहीं आया जो आमलोगों में लोकप्रिय हुआ हो। साहित्य वही है जो आम जनता से जुड़े और लोगों को अपील करे। नये लोग लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। प्रचार प्रसार की कमी है।

साहित्यकार को समग्रता और समष्टि में आंकलन करना होगा 
आज साहित्यकार भी नामी गिरामी प्रकाशकों, विशेष पाठक, धर्म, जाति, लिंग और भाषा आदि से जुड़ा है। उसकी सोच भी कई खेमों, विचारधाराओं से जुड़ गई है जो साहित्य की उन्नति के लिए संकीर्णता है। लोक कल्याणकारी और लोक मंगलकारी साहित्य ही अपनी पहचान स्थापित करता है। आज जितनी भी आधुनिक आर्यभाषाएं हैं वे वैदिक कालीन भाषा, संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश से होती हुई विकसित हुई हैं जो भारतीय होने की पहचान है। अतः साहित्यकार को समग्रता और समष्टि में आंंकलन करने की आवश्यकता है। बड़े साहित्यकार में पारदर्शिता होती है तभी वह बड़ा कहलाता है। साहित्यकार दो तरह के होते हैं एक तो अकादमिक साहित्यकार जिनका संबंध केवल आजीविका परक होता है जिनके लिए साहित्य लिखना पेशे से जुड़ा होता है और दूसरा जन्मजात रचनाकार जिसमें नैसर्गिक रचने की क्षमता होती है जो साध होता है। अकादमिक दृष्टि से लिखा साहित्य विषय परक होता है।सच्चा साधक ही जनसाधारण से जुड़ा होता है।
मेरे विचार से सत साहित्य वही है जो जनता की संवेदना से जुड़ा हो। कहा भी जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।

डिजीटल युग में युवा वर्ग नेट और गूगल पर पढ़ने लगा है

अच्छी किताबों की कमी नहीं है, पाठकों की कमी हो सकती है। डिजीटल युग में युवा वर्ग नेट और गूगल पर पढ़ने लगा है। प्रतियोगिता के स्तर पर होने वाली परीक्षाओं के दौरान जितना ज्ञान हो जाता है वही उनके लिए अध्ययन है अगर नौकरी मिल गई तो जीवन भर उन्हें अपने चिंतन-मनन और अन्य किताबों को पढ़ने का समय निकालना भी मुश्किल हो जाता है। आज के बदलते परिवेश में पाठक की प्राथमिकताएं भी बदल गयी हैं।महादेवी वर्मा,सूर्य कांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद,प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु तो अभी भी पढ़े जाते हैँ वहीं  कबीर दास , सूरदास, नानक, मीरा पढ़े जाते हैं, रवींद्र नाथ टैगोर और शरतचंद्र आदि भी पाठकों के लोकप्रिय साहित्यकार हैं। आज भी बहुत पढ़ा जा रहा है लेकिन अपनी अपनी पसंद के लोगों को पढ़ा जा रहा है। उक्तियाँ और उदाहरण के लिए अभी भी युगीन साहित्यकारों पर ही निर्भर हैं।

समाज से जुड़कर ही साहित्य होगा
साहित्य गीत, संगीत, नाटक, फिल्म आदि के द्वारा पाठकों या श्रोताओं के सामने बार बार दोहराया जाएगा वही साहित्य लोकप्रियता को प्राप्त करता है बशर्ते वह समाज से जुड़ा हो, जीवन की संवेदना से जुड़ा हो। रामचरितमानस और महाभारत के मिथकों को लेकर आज का भी साहित्य भी भरा हुआ है, साहित्यकारों की भी कमी नहीं है। भारत के हर कोने से यह साहित्य जुड़ा है,  भाषा, धर्म, लिंग सभी से ऊपर है यह साहित्य। इसका कारण है प्रचार प्रसार और लोकप्रियता। जीवन और समाज की वस्तुनिष्ठ दुनिया में साहित्य दिशा देने का काम करती है।
आज लेखक पाठकों से रूबरू होने लगे हैं।इसका कारण है कि बीते कुछ वर्षों से हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी होती दिखाई दे रही थी। बंगाल में जन साधारण के बीच लेखक को पूरी तरह से जाना जाता है। हिंदी में अभी कृष्णा सोबती का जाना दुखद है और यदि हमने उनका साहित्य नहीं पढ़ा तो सच में हिंदी में पाठकों की कमी आई है।

मन के भावों को व्यक्त करने का जरिया है साहित्य
मेरी सृजनात्मकता उस दिन शुरू हुई जब मेरी अभिव्यक्ति शब्दों पर उतरी थी। कालजयी कवियों को कुछ समझा, माँ को चिता पर जलते देखा, मेरी लेखनी मुझसे जुड़ी तब मैंने सृजन के सुख को थोड़ा बहुत चखा। समय और साधना दोनों की ही आवश्यकता है जो बहुत ही मुश्किल से मिलते हैं। “क्या ही अच्छा होता, हर दिन नया होता” इन पंक्तियों में जीने की कला मानती हूंँ। हर दिन नया (कविता संग्रह), टहनी पर चिड़िया (कहानी संग्रह), भगवान् बुद्ध और हिंदी काव्य (शोध कार्य), रवींद्र नाथ के संगीत में प्रयुक्त उद्भिद और फूल (अनुवाद बांग्ला से हिंदी), धर्म, दर्शन और विज्ञान में रहस्य वाद (सह संपादन प्रोफेसर कल्याण मल लोढा के साथ), पत्रकारिता के बदलते तेवर आदि प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं। बीएचयू से सन् 1985 में डॉ श्यामसुंदर शुक्ल के निर्देश में शोध किया। वहीं से संपूर्ण शिक्षा प्राप्त की। विवाह कोलकाता में हुआ। परिवार को प्राथमिकता देते हुए मैंने आरंभ से ही अंश कालिक अध्यापिका के रूप में दीनबंधु कॉलेज (हावड़ा), जयपुरिया कॉलेज, प्रेसीडेंसी कॉलेज, रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में पढ़ाया और अभी इग्नू में कोन्सिलर और भवानीपुर कॉलेज में अंशकालिक अध्यापिका के रूप में कार्यरत हूँ। हिंदी की कुछ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हूँ। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार कॉन्फ्रेंस और गोष्ठियों में यथा संभव भाग लेती हूँ। अपनी साहित्य यात्रा को जारी रखने का प्रयास करती रहती हूँ इसकी चिंता किए बगैर कि मैं साहित्य के किस पायदान पर हूंँ। मन के भावों को व्यक्त करने का जरिया है साहित्य। स्वयं को साहित्य प्रेमी और सेवी मानती हूँ। मेरे विचार या भाव यदि दस लोगों के भावों से भी मिलते हैं तो यही मेरी सार्थकता है। एक जगह मैंने लिखा है “आदमी आदमी तब नहीं होता, जब आदमी आदमीयत खो देता है।”

साहित्यिक गीतों को गाना अच्छा लगता है
संगीत के बिना मनुष्य अधूरा होता है। साहित्य संगीत और कला से अगर प्यार है तो मनुष्य सामाजिक और पूर्ण होने की ओर होता है। मेरा प्रिय वाद्य यंत्र सरोद है जिसे मैं अपने सुख के लिए बजाती हूँ और अपने से जुड़ने की कोशिश करती हूँ। साहित्यिक गीतों को गाना अच्छा लगता है। प्रसाद जी का गीत “ले चल वहां भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे धीरे” गुनगुनाना अच्छा लगता है। और यूं ही गाते गाते बहुत से गीत कम्पोज भी कर लेती हूँ।

सफलता उसी के कदमों को चूमती है जो समाज को स्वस्थ और सुन्दर बनाते हैं
“अपराजिता “नाम ही ऐसा है कि मन को छू लेती है। हर स्त्री अपने जीवन में यदि आने वाले हर युद्ध को जीत ले, पराजित न हो और अपने जिम्मेदारियों को ठीक से निभाए तो उसकी ओर बढ़ने वाली हर मुसीबतों से छुटकारा मिल सकता है। काश ऐसा हो पाता। सफलता उसी के कदमों को चूमती है जो समाज को स्वस्थ और सुंदर बनाते हैं।  अपराजिता के लिए मेरी ये पंक्तियाँ समर्पित हैं – “मैं जुड़ीं हूँ माँ से, और माँ जुड़ी है मुझसे। ”

शुभजिता

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