डालडा…वह नाम जो कभी भारत के अधिकांश घरों में सुनने को मिल जाता था। मौका कोई भी हो, कुछ खास बनाना हो तो डालडा इस्तेमाल होता ही होता था। 25-30 वर्षों तक डालडा ने बाजार पर एकछत्र राज किया। इसके बाद रसोई में डालडा के टिन के डिब्बे की जगह प्लास्टिक के डिब्बे और फिर पैकेट्स ने ली। फिर ऐसा वक्त आया कि रिफाइंड ऑयल ने धीरे-धीरे वनस्पति घी की जगह लेनी शुरू कर दी। डालडा का सफर तो दिलचस्प है ही, साथ ही दिलचस्प है, इसके नाम की कहानी…कहां से आया यह नाम डालडा, क्या है इसका मतलब और कैसे शुरू हुआ लगभग 85 साल पुराने डालडा का सफर, आइए जानते हैं…
अंग्रेजों के काल से हुई शुरुआत
डालडा की शुरुआत अंग्रेजों के टाइम से हुई थी। कासिम दादा नाम के व्यक्ति 1930 के दशक से पहले एक डच कंपनी से देसी घी या क्लैरिफाइड मक्खन के सस्ते विकल्प के रूप में वनस्पति घी का आयात करते थे। उन औपनिवेशिक दिनों के ब्रिटिश भारत में, देसी घी को एक महंगा उत्पाद माना जाता था। आम जनता के लिए इसे खरीदना आसान नहीं था। इसलिए वनस्पति घी की जरूरत महसूस की गई, जो देसी घी का विकल्प हो और उससे सस्ता हो।
1930 के दशक की शुरुआत तक भारत में उपलब्ध हाइड्रोजनेटेड वनस्पति घी, कासिम दादा और हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग कंपनी द्वारा देश में आयात किया जाता था। हिंदुस्तान वनस्पति को अब हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड (एचयूएल) और यूनिलीवर पाकिस्तान कहा जाता है। कासिम दादा अपना आयातित उत्पाद ‘दादा वनस्पति’ के नाम से बेचते थे। यूनिलीवर के लीवर ब्रदर्स जानते थे कि देसी घी महंगा होने के चलते इसके विकल्प के लिए एक मुनाफेवाला बाजार मौजूद है। इसलिए हिंदुस्तान वनस्पति स्थानीय स्तर पर हाइड्रोजनेटेड वनस्पति तेल का निर्माण शुरू करना चाहती थी।
घरेलू वनस्पति घी बाजार में पैठ बनाने के अवसर को भांपते हुए लीवर ब्रदर्स ने अपने हाइड्रोजनेटेड वनस्पति घी के लिए कासिम दादा का सहयोग मांगा और भारत में ‘दादा’ बनाने के अधिकार खरीद लिए। लेकिन इसकी बिक्री के लिए एक पूर्व शर्त थी और वह यह कि दादा नाम बरकरार रखना था। लेकिन अगर यह नाम बरकरार रखा जाता तो यूनिलीवर कहां झलकती। तो इसके लिए समाधान निकाला गया कि नाम के बीच में ‘L’ डाला जाए और इसे दादा की बजाया डालडा नाम दिया जाए। कासिम दादा इस पर मान गए और इस तरह डालडा नाम अस्तित्व में आया। अगर इंग्लैंड के लीवर ब्रदर्स ने नाम में ‘एल’ अक्षर डालने पर जोर नहीं दिया होता, तो शायद भारत का सबसे लोकप्रिय वनस्पति घी ‘दादा’ कहलाता।
1937 में पेश किया गया डालडा
इसके बााद डालडा को 1937 में पेश किया गया और यह भारत और पाकिस्तान में सबसे लंबे समय तक चलने वाले ब्रांडों में से एक बन गया। लेकिन शुरुआत में डालडा की राह आसान नहीं थी। भारतीय जनता आश्वस्त नहीं थी कि घी का कोई विकल्प हो सकता है। घी आमतौर पर खाना पकाते वक्त या फिर तैयार खाने पर छिड़कने पर भी अपना स्वाद और सुगंध देता है। ऐसे में शुरुआत में डालडा के लिए चुनौती थी कि इसका स्वाद देसी घी की तरह हो, डीप फ्राइंग प्रॉपर्टीज हों लेकिन घी की तरह यह जेब पर भारी न हो।
फिर आक्रामक मार्केटिंग का लिया गया सहारा
यहीं से कहानी में लीवर की विज्ञापन एजेंसी लिन्टस का प्रवेश हुआ। लिंटास में डालडा अकाउंट को संभालने वाले हार्वे डंकन ने 1939 में भारत का पहला मल्टी-मीडिया विज्ञापन अभियान कैंपेन बनाया। इसके तहत सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने के लिए एक लघु फिल्म थी, सड़कों पर घूमने के लिए टिन के आकार की एक गोल वैन थी, पढ़ेलिखे लोगों के लिए प्रिंट विज्ञापन था, और विज्ञापन ब्लिट्जक्रेग के हिस्से के रूप में नमून और परचे यानी लीफलेट्स वितरण के लिए स्टॉल थे।
डालडा ने न केवल व्यापक प्रचार अभियान के बलबूते पर, बल्कि पीले रंग पर हरे ताड़ के पेड़ के लोगो वाले टिन के डिब्बों के कारण भी खड़ा होना शुरू किया। लीवर ने इन विशिष्ट टिनों को अपने वितरण नेटवर्क के माध्यम से देश भर में पहुंचाया। अलग-अलग उपभोक्ताओं को लक्षित करने के लिए अलग-अलग आकार के पैक थे। उदाहरण के लिए संस्थागत उपयोगकर्ताओं जैसे होटल और रेस्तरां के लिए एक बड़ा स्क्वैयर आकार का टिन और घर में खपत के लिए छोटे गोल टिन। लीवर ने डालडा को घी के एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में पेश करते हुए, इसे बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, अपने अस्तित्व के पहले 25-30 वर्षों में डालडा की स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय खाद्य तेल निर्माताओं से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी। 1980 के दशक तक डालडा का बाजार पर एकाधिकार था। हिंदुस्तान वनस्पति का ‘डालडा’ इतना फेमस हुआ कि हाइड्रोजनेटेड वनस्पति तेल की मुख्य शैली को आमतौर पर ‘वनस्पति घी’ के रूप में जाना जाने लगा।
विवादों से रहा नाता
डालडा ब्रांड विवादों में भी काफी घिरा रहा है। 1950 के दशक में डालडा पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया गया था। आलोचकों का कहना था कि डालडा, देसी घी का मिलावटी रूप है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक राष्ट्रव्यापी जनमत सर्वेक्षण किया, जो अनिर्णायक साबित हुआ। सरकार ने घी में मिलावट रोकने के उपाय सुझाने के लिए एक कमेटी का गठन किया था। लेकिन उससे भी कुछ निष्कर्ष नहीं निकला।
इसके सालों बाद डालडा को एक और विवाद का सामना करना पड़ा, जब कहा गया कि इसमें जानवरों की चर्बी होती है। यह विवाद 1990 के दशक में जन्मा। तब तक डालडा को “क्लियर ऑयल्स” या रिफाइंड वनस्पति तेलों जैसे मूंगफली (पोस्टमैन), सरसों, कुसुम (सफोला), सूरजमुखी (सनड्रॉप) और पाम ऑयल (पामोलिन) आदि से प्रतिस्पर्धा मिलने लगी थी। इन्हें वनस्पति घी का एक स्वस्थ विकल्प माना जाता था।
फिर दूसरी कंपनी को बेचा गया ब्रांड
विवाद और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते डालडा भारतीय रसोई पर अपनी पकड़ खो रहा था। डालडा की चमक ऐसी फीकी पड़ी कि साल 2003 में Bunge Limited ने कथित तौर पर 100 करोड़ रुपये से कम में हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड से डालडा ब्रांड का अधिग्रहण किया। 30 मार्च 2004 को यूनिलीवर पाकिस्तान ने 1.33 अरब रुपये में नयी निगमित कंपनी डालडा फूड्स (प्राइवेट) लिमिटेड को अपने डालडा ब्रांड और खाद्य तेलों व फैट्स के संबंधित व्यवसाय की बिक्री कर दी। यह पाकिस्तान में एक तरह का कॉर्पोरेट लेनदेन था, जिसमें छह वरिष्ठ यूनिलीवर अधिकारियों के एक समूह ने एक प्रबंधन समूह का गठन किया और सफलतापूर्वक यूनिलीवर पाकिस्तान से डालडा व्यवसाय खरीदा।
बंज के लिए डालडा का अधिग्रहण खाद्य तेल बाजार में बड़ी छलांग थी। कंपनी ने डालडा ब्रांड को दोबारा खड़ा करने के लिए पहली बार 2007 में डालडा के तहत एक खाद्य तेल रेंज लॉन्च की। बंज ने इसे हस्बेंड्स च्वॉएस टैगलाइन के तहत पेश किया। लेकिन कंपनी को जल्द ही एहसास हुआ कि यह बाजार में पहुंच नहीं बना पा रहा है। इसके बाद 2013 में बंज ने ‘डब्बा खाली, पेट फुल’ टैगलाइन के तहत रेंज को फिर से लॉन्च किया। साथ ही ब्रांड की इस नई पोजिशनिंग को बढ़ावा देने के लिए कैंपेन्स के अलावा व्यापक अन्य गतिविधियों का भी सहारा लिया। आज डालडा ब्रांड के तहत डालडा वनस्पति, कॉटन सीड ऑयल, सरसों का तेल, सोयाबीन तेल, सनफ्लॉवर ऑयल, राइस ब्रायन ऑयल, ग्राउंडनट ऑयल उत्पाद बिकते हैं।
(स्त्रोत साभार – नवभारत टाइम्स)