Thursday, December 25, 2025
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वीर बाल दिवसः दो मासूम साहिबजादों की अद्वितीय शहादत

-रावेल पुष्प
सिख इतिहास ही न्याय और धार्मिक स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान की रक्षा के लिए बलिदानों से भरा पड़ा है लेकिन जिस बलिदान की बात यहां हो रही है वो शायद दुनिया के इतिहास में लासानी ही कहा जाएगा। आठ साल और पांच साल के बच्चों ने निडरता के साथ जुल्मी शासक के समक्ष अपने पूर्वजों की शहादत की गरिमा को बरकरार रखते हुए अपने आपको प्रस्तुत किया और शहादत दी।गुरु नानक देव ने बाबर के आक्रमण के समय देश के नागरिकों पर हुए जुल्मों-सितम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए निडरता से कहा था- बाबर तूं जाबर है।
सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव को जहांगीर के शासनकाल में गर्म तवे पर बिठाकर और सिर पर गर्म रेत डालते हुए शहीद कर दिया गया था। इसके बाद सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों पर हो रहे जुल्मों के प्रतिवाद और व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता को बरकरार रखने की खातिर औरंगजेब के आदेश से दिल्ली के चांदनी चौक में शहादत दी। अब हम बात करें सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह की, जिन्होंने ऐसे जुल्मी शासकों से टक्कर लेने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों और जातियों से लेकर पांच प्यारों की शुरुआत की और वीर खालसा पंथ स्थापना की। उसके बाद मुगल सेना और कई पहाड़ी राजाओं के साथ गुरुजी की सेना के कई बार युद्ध हुए और हर बार गुरुजी बेहद कम सैनिक होने के बावजूद विजयी रहे। इसीलिए गुरुजी का ये उद्घोष सार्थक नजर आता है-
सवा लाख से एक लड़ाऊं, तबै गोबिन्द सिंह नाम कहाऊं
यानि एक-एक सिख सवा-सवा लाख से लड़ने की क्षमता रखता है।
पंजाब का आनंदपुर साहिब, जो गुरु गोविंद सिंह जी की मुख्य कर्मस्थली रही है, वहीं उन्होंने सुरक्षा के लिहाज से पांच किलों का निर्माण कराया था। सन् 1700 के समय वहां हुई पहली जंग में मुगल सेना ने जीत न पाने के कारण गुरुजी के साथ संधि कर ली थी लेकिन फिर 1702 में एक बड़ी फौज के साथ हमला कर दिया और यह भी लंबा चला। उसके बाद मुगल सेना ने फिर एक संधि की और कसम खाई कि आप यह किला छोड़ कर यहां से चले जाएं और कोई हमला नहीं किया जाएगा।
आनंदपुर साहिब का किला छोड़ते समय जो वादा मुगलों और पहाड़ी राजाओं के साथ हुआ था कि अब किसी पर कोई हमला नहीं करेगा, लेकिन जब गुरु गोबिंद सिंह अपने परिवार और सिख योद्धाओं को लेकर सिरसा नदी के किनारे तक पहुंचे ही थे, तभी सारी कसमें भुलाकर पीछे से उन लोगों ने इनके काफ़िले पर हमला कर दिया। वहां गुरुजी ने शत्रुओं को ललकारा, जिसे सूफी शायर हकीम अल्ला यार खां जोगी ने बड़े ख़ूबसूरत अंदाज से बयान किया है-
देखा ज्योंही हुजूर ने, दुश्मन सिमट गए,
बढ़ने की जगह खौफ से, नामर्द हट गए,
घोड़े को एड़ी दे के गुरु रण में डट गए,
फ़रमाए बुजदिलों से कि तुम क्यों पलट गए,
अब आओ रण में, जंग के अरमां निकाल लो
तुम, कर चुके हो वार, हमारा संभाल लो।
जब सारा काफ़िला सिरसा नदी के पास था तब उस नदी में भीषण बाढ़ आई हुई थी और आंधी-तूफान भी था। इसी में गुरुजी की माता गुजरी और उनके साथ दो छोटे बेटे जोरावर और फतेह सिंह बिछड़ गए। उसके बाद लाख तलाश करने के बाद भी नहीं मिले।
इस दौरान दो बड़े बेटों और दूसरे साथियों के साथ गुरुजी को तो चमकौर में युद्ध करना पड़ा, जहां दोनों बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह बड़ी बहादुरी से युद्ध करते हुए शहीद हो गए। इधर परेशान छोटे बच्चे बार-बार अपनी दादी से माता-पिता और भाइयों के बारे में पूछ रहे थे। इस बीच उनका घरेलू रसोईया गंगू जो ताउम्र उनके यहां ही पलता रहा, वो भी साथ था लेकिन उसने दगा किया और करीब ही अपने घर सहेड़ी गांव ले गया और फिर सरहिंद के सूबेदार वजीर खान को इनाम के लालच में पकड़वा दिया। उसके बाद उन बच्चों तथा उनकी दादी को एक खंडहर किस्म के ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया। फिर उन दोनों बच्चों को वजीर खान की अदालत में पेश करने के‌ लिए ले जाया गया। उन बच्चों को अदालत ले जाने से पहले उनकी दादी ने उन्हें उनके पूर्वजों और दादा गुरु तेग बहादुर की शहादत के बारे में बताते हुए ये ताकीद की थी कि आततायियों के सामने कभी सिर नहीं झुकाना और अपने गौरवशाली इतिहास को धूमिल मत होने देना।
उन छोटे साहिबजादों को जब कचहरी ले जाया जा रहा था तो वहां का बड़ा दरवाजा बंद कर दिया गया था और बिल्कुल छोटा खिड़कीनुमा दरवाजा खुला रखा गया था ताकि वहां जाते हुए छोटे साहबजादे झुक कर ही अंदर प्रवेश करें। लेकिन साहबजादों ने सबसे पहले अपने पैर अंदर किए और फिर तन कर खड़े हो गए और उन्होंने जोर से जयकारा लगाया-
वाहे गुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तेह।
उनकी बुलंद आवाज सुनकर मानो कचहरी की दरो-दीवार कांप उठे। वजीर खान की आंखों में लहू उतर आया। उसने छोटे साहबजादों को कई तरह के लालच दिये और अपना धर्म त्याग कर इस्लाम स्वीकार करने को कहा। छोटे साहबजादों ने साफ़ मना कर दिया। वजीर खान ने तब काजी से फतवा सुनाने के लिए कहा। काजी ने फतवा दिया कि इनकी उम्र बहुत छोटी है और कुरान मजीद के अनुसार इन बच्चों को नहीं मारा जा सकता।
फिर वजीर खान ने उन दोनों को दरबार में उपस्थित मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान को सुपुर्द करते हुए कहा कि तुम्हारे लिए ये बड़ा अच्छा मौका है, अपने भाई और भतीजे की मौत का बदला ले सकते हो। शेर मोहम्मद खान ने साफ़ कहा कि मेरी लड़ाई गुरु गोविंद सिंह जी के साथ अवश्य है लेकिन मैं इन मासूम बच्चों पर जुल्म नहीं ढा सकता। ये कोई बहादुरी की बात नहीं। मलेरकोटला के नवाब की यह बात सुनने के बाद वहां उपस्थित वजीर खान भयंकर गुस्से में आ गया और उसने क्रोधित होकर काजी को कहा- मैंने तुम्हें फतवा देने को कहा है ये दोषी हैं। तब काजी ने नया फतवा दिया कि इन बच्चों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाए! उसी आदेश के अनुसार उस ठंडे बुर्ज से जब सैनिक लेकर जाने लगे थे, उससे पहले दादी माता गुजरी का दर्द शायर ने कुछ यूं बयान किया है –
“जाने से पहले आओ, गले से लगा तो लूं
केशों को कंघी कर दूं, जरा मुंह धुला तो लूं
प्यारे, सिरों पे नन्ही-सी कलगी सजा तो लूं,
मरने से पहले तुमको दूल्हा बना तो लूं।”
क्रूर जल्लादों ने उन दो मासूम असहाय निर्दोष बच्चों को दीवार में जिंदा चिनना शुरू कर दिया। जब दीवार छोटे साहबजादे को पूरा ढंकने लगी तो बड़े साहेबजादे की आंखों में आंसू आ गए। ये देखकर छोटे ने कहा- वीर जी, आपकी आंखों में आंसू? क्या आप डर गये हो? तो उसने जवाब दिया कि बड़ा मैं हूं और मुझसे पहले शहीद तुम हो रहे हो। यह सुनकर छोटे साहबजादे ने अपना एक हाथ ऊंचा कर दिया और कहा कि लो वीर जी, पहले शहादत का हक तुम्हारा ही बनता है। और फिर उन दोनों साहिबजादों की शहादत हो गई। यह समाचार सुनकर बुजुर्ग दादी ने भी अपना शरीर त्याग दिया।
अल्ला यार खां योगी इस सरहिंद की दर्दनाक घटना को सिख राज्य की नींव के रूप में भी देखता है और छोटे साहिबजादों की ओर से कुछ यूं बयान करता है-                                                                                               “हम जान दे के औरों की जानें बचा चले,
सिक्खी की नींव हम हैं सिरों पर उठा चले,
गुरुआई का है किस्सा जहां में बना चले,
सिंघो की सल्तनत का है पौधा, लगा चले
गुरु गोबिंद सिंह के।”
इतिहास में हमेशा मोतीराम मेहरा तथा दीवान टोडरमल जी को याद किया जाएगा। मोतीराम मेहरा जी द्वारा जब माता गुजरी वा छोटे साहिबजादे ठंडे बुर्ज में कैद होते है तो उनको गर्म दूध पिलाया जाता है और ये दूध मुफ्त में नहीं पिलाया पहरे पर खड़े सैनिकों को पैसे देकर पिलाया अगले दिन जब पैसे खत्म हो गए तो अपना घर बेचकर दूध की सेवा की जाती है । बाद में जब वजीर खान को ये पता लगा तो उसके द्वारा मोतीराम के पूरे परिवार को कोल्हू में पीर दिया गया। 27 दिसंबर 1704 को दोनों साहिबजादों को जिंदा निहो में चुकवा दिया जाता है पूरी दुनिया में सबसे छोटे शहीद बाबा जोरावर सिंह जी तथा बाबा फतेह सिंह जी है दीवान टोडरमल जी को जब ये पता लगा कि गुरु जी की माता और छोटे साहिबजादों को वजीर खान द्वारा शहीद कर दिया गया है तथा उनके लाशे बाहर फेक दी है तो वह वजीर खान से उनके अंतिम संस्कार के लिए आग्रह करता है वजीर खान द्वारा कहा जाता है कि जितनी जगह आपको अंतिम संस्कार के लिए चाहिए उतनी ही सोने की मोहरे मुझे चाहिए दीवान टोडरमल जी अपनी सारी संपत्ति बेच के सोने की मोहरे ले कर आते है तथा जमीन पर सोने की मोहरे बिछाते है।
इतिहास कहता है कि वजीर खान द्वारा बोला जाता है कि आपको जमीन चाहिए तो सारी मोहरे खड़ी करो फिर दीवान टोडरमल जी द्वारा सारी सोने की मोहरे खड़ी करके जमीन खरीदी जाती है और ये दुनिया के इतिहास में आज तक की सबसे महंगी जमीन है-
धन है गुरु के शिष्य मोतीराम मेहरा जी तथा
दीवान टोडरमल जी
पहला मरण कबूल है, जीवन की शढ आस !!
हो सबना कि रेन का, तो आओ हमारे पास !!….
उन दोनों मासूम लेकिन दृढ़ निश्चयी, अपने निश्चय पर अटल रहने वाले महज नौ साल के साहिबजादे जोरावर सिंह और छह साल के फ़तेह सिंह की 26 दिसंबर 1705 को दी गई लासानी शहादत दुनिया के इतिहास में अद्वितीय है।
( मूल लेख -हिंदुस्थान समाचार से साभार। इनपुट -मोतीराम मेहरा तथा दीवान टोडरमल जी की गाथा फेसबुक पर एक पोस्ट से)

 

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