सभी सखियों को नमस्कार। साथ ही देवी पर्व की अशेष शुभकामनाएँ। देवी पर्व पर सबसे ज्यादा उपेक्षा हम तथाकथित देवियों को ही झेलनी पड़ती है, इस बात को हम से बेहतर और कौन समझ सकता है। लेकिन इस तस्वीर को बदलने के लिए कोशिश भी हमें ही करनी है। जब तक हम स्त्रियाँ अपनी स्थिति को बेहतर बनाने या बदलने के लिए किसी मसीहा की आकांक्षा में बैठी रहेंगी, स्थिति खराब ही रहेगी और अगर बदलाव आया भी तो वह ऊपरी और दिखावटी ही होगा। हम स्त्रियों को इस बनावटी बदलाव से बचने की आवश्यकता है और कोशिश करनी चाहिए कि हमारे जीवन में वास्तविक धरातल पर परिवर्तन आए, सिर्फ किताबी नहीं।
सदियों से देवी के नाम पर पूजित लेकिन आम जीवन में हो या साहित्य पटल पर उपेक्षित स्त्रियों की कतार इतनी लंबी है कि उनकी गणना करना मुश्किल काम है। आज ऐसी ही एक कवयित्री से आप का परिचय करवाना चाहती हूं जिनके बारे में बहुत कम जानकारी हमारे पास है। इनका नाम है रानी बख्त कुंवरि और ये “प्रियासखी” उपनाम से कविताएँ लिखा करती थीं। इनके बारे में विभिन्न खोज रपटों से इतनी ही जानकारी मिलती है कि इनका रचनाकाल संवत 1734 था और इस हिसाब से ये मध्ययुगीन कवयित्री ठहरती हैं। ये दतिया की रानी थीं। इनके एक ग्रंथ के बारे में जानकारी मिलती है, जिसका नाम है “प्रियासखी की बानी” जिसमें राधा कृष्ण की प्रेम लीलाओं का वर्णन है। भले ही पदों में आलंबन रूप में राधा और कृष्ण के नामों का प्रयोग किया गया है लेकिन पदों का स्वरूप भक्तिमय न होकर शृंगार परक है। प्रेमी युगल की उन्मुक्त क्रीड़ाएं राधा कृष्ण की प्रणय लीला के आवरण में मुखर हो उठी हैं। मध्ययुगीन स्त्री वह चाहे साधारण स्त्री हो या छोटे-बड़े रियासत की रानी, न जाने कितने सामाजिक बंधनों में जकड़ी हुई भी सुखी और संतुष्ट होने का स्वांग रचती थी या फिर सामाजिक मर्यादा की रक्षा के नाम पर अपनी इच्छाओं- आकांक्षाओं को हँसते हुए कुर्बान कर देती थी। लेकिन मन के किसी कोने में दुबकी पड़ी इच्छाएँ कल्पनाशीलता की डोर थामे, कलम की नोंक पर आ बैठती थीं और अंततः कागज पर उतर ही जाती थी। संभवतः लोक लज्जा की ओट के कारण रचनाओं का बाह्य आवरण भले ही भक्ति का रहता था पर वर्णन की सघनता में ऐन्द्रिकता का समावेश सायास या अनायास हो ही जाता था। इसके लिए तत्कालीन युग की परिस्थितियाँ भी काफी हद तक जिम्मेदार थीं जहाँ स्त्री को साँस लेने, जीने और स्वप्न देखने के लिए भी सामाजिक अनुमति की आवश्यकता पड़ती थी। लेकिन स्त्री तो हर हाल में एक झरोखा खोज या खोल ही लेती है। प्रियासखी ने यह झरोखा भक्ति के गलियारे में खोला ताकि कोई उंगली ना उठा सके लेकिन मन में कैद प्रेमिल कल्पनाओं को शब्दों में साहस के साथ पिरोने से उन्हें कोई नहीं रोक पाया। एक ऐसा ही पद देखिए जिसमें राधा कृष्ण के होली खेलने का उन्मुक्त चित्र खींचा गया है-
“सखी ! ये दोई होरी खेलें।
रंगमहल में राधावल्लभ रूप परस्पर झेलें
रूप परस्पर झेलत होली खेलत खेल नवेले
प्रेम पिचक पिय नैन भरे तिय, रूप गुलाल।”
यह साधारण होली का चित्र नहीं है। दो प्रेमी युगलों की प्रेम के रंग से रंगमहल अर्थात एकांत में खेली जाने होली है जिसके साक्षी सिर्फ वही दोनों हैं और कोई नहीं। इस तरह की प्रेमसिक्त होली की आकांक्षा हर प्रेमी युगल के मन के कोने में कहीं ना कहीं छिपी होती है। प्रियासखी ने उस आकांक्षा को शब्दों में पिरोकर बंधनों में जकड़ी मध्ययुगीन स्त्री की मुक्ति की आकांक्षा को भी शब्द दिए हैं।
सखियों, प्रियासखी के अन्यान्य पदों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। प्रेमपगे पदों की रचयिता प्रियासखी के सरस- सुंदर पद इतिहास के पन्नों में जाने कहाँ विलुप्त हो गये।