सखियों, बेहद मुश्किल समय है। मिल जुलकर रहना है और एक साथ मिलकर इस महामारी का सामना करना है। फिलहाल तमाम तरह की आशंकाओं से आम आदमी त्रस्त है। महामारी से संक्रमित होने की आशंका के साथ चिकित्सा व्यवस्था की अव्यवस्था ने आम और खास सभी को हिलाकर रख दिया है। इसी के साथ जिस सबसे बड़ी आशंका से आज मानव जाति त्रस्त है, वह है मृत्यु का भय। हालांकि जीवन के यथार्थ के साथ ही मृत्यु की सच्चाई भी जुड़ी हुई है। इस नश्वर संसार में सब कुछ मरणशील है, एक न एक दिन हर जीव को मृत्यु को स्वीकार करना है, वह चाहे या न चाहे। हमारे दार्शनिकों और साहित्यकारों ने इस शाश्र्वत सत्य की ओर बार-बार संकेत किया है। बाबा तुलसी तो बड़ी तटस्थता के साथ कहते ही हैं –
“धरा को प्रमाण यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना।”
लेकिन इसके बावजूद मनुष्य को अगर लगता है कि वह सर्वशक्तिमान है और येन केन प्रकारेण मृत्यु को परास्त कर सकता है तो यह उसका अहंकार ही है और शायद इसी कारण कबीर जैसे सजग और विद्रोही कवि मानव मात्र को चेतावनी देते हुए कहते हैं –
“मालिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार ।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।”
अर्थात मनुष्य को याद रखना चाहिए कि मृत्यु तो अवश्यंभावी है और यह कभी टल नहीं सकती। इसीलिए मनुष्य को हमेशा इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अपने मानवीय धर्म का पालन करना चाहिए। लेकिन इसकी अनिवार्यता को जानते हुए भी हम अमरत्व की आकांक्षा करते हैं और इसके लिए तरह तरह की कोशिश भी करते हैं। इसके पीछे हमारा वही मृत्यु भय काम करता है और हम इससे प्रतिक्षण त्रस्त रहते हैं। इसी की ओर संकेत करते हुए गालिब ने लिखा है-
“मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।।”
यह स्थिति हर आदमी की है। बिरला ही कोई होगा जो इस मृत्यु भय से पीड़ित न हो। बड़े -बड़े संत महात्मा भी इस मृत्यु भय पर विजय हासिल करने के लिए कठिन साधना और तपस्या करते हैं। और साधारण व्यक्ति कभी दर्शन तो कभी आध्यात्मिकता में डूबकर इससे निजात पाने की कोशिश करता है।
यह बात भी काबिले गौर है कि कुछ लोगों के लिए जिंदगी मौत से ज्यादा मुश्किल और चुनौतीपूर्ण हैती है, तभी तो फ़िराक़ गोरखपुरी लिखते हैं-
“मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं ।”
कुछ इसी तरह का फलसफा नज़ीर सिद्दिकी साहब भी बयान करते हैं-
“जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं
ख़ुदा मिलाए उन्हें ज़िंदगी के मारों से ।।”
कुछ लोग मौत से घबराते हैं तो दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो मौत को गले लगाने के लिए बेताब रहते हैं। ये दोनों ही स्थितियां और प्रवृत्तियां घातक मानी जाती हैं। मृत्यु भय जहाँ मनुष्य को बेचैनी से भर कर कई बार मृत्यु के पहले मृत्यु के दरवाजे की ओर ढकेल देता है वहीं आत्महत्या की प्रवृत्ति समाज के लिए घातक तो है ही और एक संक्रामक रोग की तरह फैलती है। अतः सखियों, जीवन को सहज रूप में स्वीकार करना चाहिए और मौत को एक हव्वे की तरह न देखकर उसे भी स्वाभाविक रूप से ग्रहण चाहिए क्योंकि मौत तो अपने तय समय पर आएगी ही। मौत से पहले मौत के डर से मर जाना तो किसी तरह भी सही नहीं है। दोनों सत्य जिंदगी के दो सिरे हैं और उन्हें आपस में जुड़ना ही है। या फिर यह भी कह सकते हैं कि जीवन के साथ जो यात्रा शुरू होती है वह मृत्यु के साथ पूरी तो होती ही है और वहीं से एक नयी यात्रा की शुरुआत भी होती है जिसे गीता में बहुत सहजता के साथ व्याख्यायित किया गया है और कवियों ने भी अपने तरीके से उसी तथ्य को स्पष्ट किया है। चकबस्त ब्रिज नारायण जिंदगी और मौत के फलसफे को अपने अंदाज में बड़ी खूबसूरती से बयां करते हुए कहते हैं-
ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब
मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परेशाँ होना ।।”
और अहमद नदीम क़ासमी बड़े साहस से मौत की हकीकत को स्वीकार करते हुए कहते हैं-
“कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा ।।”
इसी तरह रामनरेश त्रिपाठी भी मृत्यु को जीवन का अंत नहीं बल्कि एक नयी शुरुआत मानते हुए निर्भय होकर मृत्यु का स्वागत करने की बात कहते हैं-
“मृत्यु एक सरिता है जिसमें,
श्रम से कातर जीव नहाकर।
फिर नूतन धारण करता है,
कायारूपी वस्त्र बहाकर।”
सखियों, इन तमाम फलसफों के बावजूद मृत्यु से पीड़ा तो होती ही है और मृत व्यक्ति से हमारा संबंध जितना गहरा होता है, पीड़ा की गहराई भी उतनी ही ज्यादा होती है। कई बार लोग लंबी उम्र पाकर दिवंगत होते हैं और तब शोक के बावजूद इसे मोक्षप्राप्ति या मुक्ति की तरह देखते हुए मृत्यु संस्कारों का पालन उत्सव की तरह धूमधाम से किया जाता है। लेकिन असामयिक मृत्यु तो तकलीफदेह होती ही है, वह किसी अपने की हो या पराये की। वर्तमान परिस्थितियों में असामयिक मृत्यु की विभीषिका किसी सुनामी की तरह हर उम्र के लोगों को निगल रही है जो निसंदेह दुखदाई है। कुछ मौतों का कारण बीमारी है तो कुछ का गरीबी या फिर चिकित्सा व्यवस्था का धराशाई होना। कारण जो भी हो, दुख और तकलीफ का शिकार हर दूसरा व्यक्ति हो रहा है।
सखियों, इतना ही कहूंगी कि इस समय हमें धैर्य नहीं खोना है। यह समय भी निकल जाएगा और एक बार फिर से हम सामान्य स्थितियों की ओर लौटेंगे। ज़रूरत है, साहस के साथ इस आपदा का सामना करने की। स्त्रियों में जो जन्मजात जुझारूपन और संघर्ष शक्ति होती है, उसकी आज पूरे समाज को बहुत जरूरत है। बस हिम्मत बनाए रखें। कवि शैलेन्द्र के एक गीत की पंक्तियां बरबस याद आ रही हैं, जिन्हें आप के साथ साझा करना चाहती हूं-
“
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन।”