मै ज़िन्दगी की दौड़
नहीं दौड़ सकती
तुम्हारे साथ।
मेरी अपनी कुछ मजबूरियाँ है
मेरी अपनी कुछ बंदिशे है
तुमेह समझा नहीं सकती अभी ,
शायद कल तुम समझ पाओ।
इसलिए आज तुम्हारे लिए
शुभकामनाये लिए मेरा मन
अलविदा कहता है तुम्हें।
जहाँ रहो , तुम
सुखी रहो !
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अपनी कहानी भी अजीब है –
जिसे प्यार किया
पा न सकी ,
जिसने मुझसे प्यार किया
उसे अपना न सकी।
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दिल में अँधेरा होतो
बाहर रोशनी की जरूरत
होती है।
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पुरुष तुम्हें अपने “अभिमान ” से
इतना प्रेम होता है।
किसी स्त्री से तुम
क्या प्रेम कर पाओगे ?
स्त्री और अभिमान में ,
तुम अपना “अभिमान ”
चुनते हो –
फिर स्त्री को विश्वासघातिनि क्यों
कहते हो ?
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हो सकता है
तुमेह उम्मीद हो –
मै तुमेह फ़ोन करू।
ऐसी उम्मीद मुझे भी
तो हो सकती है।
जब हम एक दूसरे की
उम्मीद पर खरा नहीं उतरे
तो अब एक दूसरे को
कोसने से क्या फायदा ?
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जब मै जीवन के कठिनतम
दौर से गुजर रही थी।
तब तुम शिला की तरह
एक तरफ बैठे
तमाशा देख रहे थे।
सोचा , गिर कर
तुम्हारे पास चली आउगी।
हर जोगी इस ” पुरुष प्रधान समाज ” से।
नारी का जीवन यूँ भी
कठिन होता है।
थोड़ी कठनाई
तुमने और बढ़ा दी।
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तुम कहते हो
दर्द सिर्फ तुम्हें मिला।
तुमने कभी अपनी
खुशियाँ गिनी ?
कभी दुआओं की
लिस्ट बनाई ?
एक बार इसे गिनो ,
दुःख कम लगेगा
तुम्हें अपनी झोली में।
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औरत -मर्द का रिश्ता
बड़ा नाजुक होता है।
विश्वास की डोर पर
टिका होता है।
आपसी सहयोग , श्रद्धा ,विश्वास
और सहभागिता पर
निर्भर करता है।
कही तो कुछ कम होगा –
तभी हम चल न सके साथ – साथ।
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मुझे अभिमान है खुद पर
बिना खुद पर अभिमान करे
क्या कोई जी सकता है ?
प्यार भी अभिमान के साथ किया ,
जीऊँगी भी अभीमान
मरूंगी भी अभिमान के साथ।
एक नारी अभिमान के साथ भी
किसी पुरुष से प्रेम कर सकती है।
हर वक़्त समर्पित नारी होना
जरुरी तो नहीं ?
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हर वक़्त कोसते हो
खुद को , परिस्थितियों को।
इतना कुछ पाकर भी
दुखी रहते हो।
दूसरो पर दया
करने से पहले –
खुद पर
दया करना सीखो।
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इस बार होली पर
तुम्हारे प्यार से
रंग गयी।
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अभिमान सिर्फ पुरुषो
का ही तो नहीं होता है।
स्त्री भी रख सकती है
खुद पर थोड़ा सा अभिमान
बस उसकी “कीमत ”
थोड़ा ज्यादा होती है
या यूँ कहे –
उसे “चुकानी” पड़ती है।
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खुद के ऐश्वर्या पर
इतना अभिमान है तुम्हें !
थोड़ा वक़्त दो ,
तपती धूप में
जल कर
अपना साम्राज्य
बनाना मुझे भी आता है।
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बहुत कठिन होता है
पुरुष के लिए
अपने “अंह ” के ऊपर
स्त्री को स्थान देना।
पर भी हासिल
करके दिखलाऊगी
मैं।
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ज़िन्दगी ने इतना वक़्त
ही नहीं दिया कि
खुलकर रो सकू।
इतना समय ही नहीं मिला कि
अपनी तकलीफों पर
महरम लगा सकूं।
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हर बार किसी स्त्री को
अपना अभिमान क्यों
खोना पड़ता है –
किसी पुरुष का
सानिध्य पाने के लिए ?
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तुम मेरी तकलीफो पर
मरहम क्या लगाओगे ?
अपनी कविताओ और
काम से फुर्सत कहाँ है तुम्हें ?
कविता लिखना आसान है ,
पर किसी के दर्द पर
मरहम लगाना कठिन
बहुत कठिन काम है।
इसके लिए पुरस्कार
नहीं मिला करते।
प्रशस्ति पत्र नहीं पढ़ा जाते
आम सभा में।
मिलती है तो बस
मन को एक अकूत शांति।
एक गहरी शांति।
(कवियत्री वरिष्ठ पत्रकार हैं)