सभी सखियों को नमस्कार। सखियों आज मैं आप का परिचय सुंदरी कवयित्री कुंवरी बाई से करवाऊंगी। इनका नाम भी इतिहास ग्रंथों में उपेक्षित ही रहा है और साहित्य अलक्षित। आप भक्त कवि नागरीदास की बहन थीं। इनका जन्म 1734 में दिल्ली में हुआ था। चलती हुई सरल ब्रजभाषा में उन्होंने भक्ति एवं वीर काव्य की रचना की है। राजस्थानी भाषा के इतिहास ग्रंथों और शोध-पत्रों में इनका और इनकी रचनाओं का उल्लेख मिलता है। प्रसन्नता की बात यह है कि इनके द्वारा रचित ग्रंथों के नाम भी लिपिबद्ध हुए हैं। भक्तिकाव्य की अधिकांश कवयित्रियों की तरह इनके काव्य में भी कृष्ण भक्ति का स्वर प्रमुखता से सुनाई देता है। इन्होंने तकरीबन ११ ग्रंथों की रचना की है। इनके नाम इस हैं- नेह निधि, राम रहस्य, संकेत युगल, गोपी महात्म्य, रस पुंज, सार संग्रह, वृंदावन गोपी महात्म्य, भावना प्रकाश, रंगझर, प्रेम संपुट आदि । इसमें से “राम रहस्य” नामक ग्रंथ राम भक्ति पर आधारित है। बाकी रचनाओं में कृष्ण के प्रति माधुर्य भाव की भक्ति की सरस अभिव्यक्ति हुई है।
सुंदरी कुंवरी बाई सिर्फ भक्त कवयित्री ही नहीं थीं बल्कि इनका अधिकार काव्य -कला पर था। उन्होंने कई प्रचलित छंदों जैसे- दोहा, सवैया, पद, कवित्त, कुंडलिया आदि का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया। प्रस्तुत सवैया में कवयित्री ने भक्तिभाव में डूबकर कृष्ण के मोहक स्वरूप का अत्यंत मनोहारी वर्णन किया है, साथ ही कृष्ण और राधा के अभिन्न प्रेम को भी दर्शाया है-
“सुंदर स्याम मनोहर मूर्ति श्री ब्रजराज कुँवर बिहारी।
मोर पंखा सिर गुंज हरा बनमाल गले कर बंसिकाधारी॥
भूषण अंग के संग सुसोभित लोभित होत लखैं ब्रजनारी।
राधिकावल्लभ की दृग गेह बसो नव गेह रहों पतिवारी॥”
प्रस्तुत कवित्त में कवयित्री ने सखियों के झूला झूलने के दृश्य का वर्णन अत्यंत सजीवता से किया है। सखियों की आपसी चुहल, ठिठोली के साथ, गाँव- घर की स्त्रियों के बीच चलने वाला हँसी- मजाक अत्यंत सरसता से वर्णित हुआ है। ब्रज की नारियाँ ब्रजेश्वरी अर्थात राधिका के साथ सावन ऋतु में झूला झूलते हुए तरह- तरह की अठखेलियाँ करती हुई उमंग की पींगें भर रही हैं-
“बोलि कै जिठानी दिवरानी श्री ब्रजेश्वरी तू,
गोपिन कुँवारी औ दुलारी सब संग लै।
आँगन उदार ठौर ठौरहिं विविध झूलैं,
झूलत झुलावत लड़ावत उमंग लै॥
हँसहिं हँसावै सब मोद सरसावैं अति,
चुहल मचावैं छबि छावै पहि वंग लै।
रहस रचावैं पिया तबहि लिवावैं तहाँ,
झुकि झुँझलावैं मुसकावैं कहैं रंग लै॥ “
प्रस्तुत कुंडलिया में मान लीला का मनभावन वर्णन है। मानिनी राधा के मान को भंग करने के लिए श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर सखी कुंज भवन में पहुँकर उनसे प्रार्थना करती है कि वह अपना मान त्याग दें और सखी के सम्मान की रक्षा करें। यमक अलंकार का अत्यंत सुंदर प्रयोग इस कुंडलिया में हुआ है –
“आज्ञा लहि घनश्याम की, चली सखी वहि कुंज।
जहाँ विराजत भामिनी, श्री राधा मुखपुंज॥
श्री राधा मुखपुंज, कुंज तिहि आई सहचरि।
वह कन्या को संग, लिये प्रेमातुर मदभरि॥
कहत भई करजोरि निहारन बात सयानिनि।
तजहु मान अब मान, मान मो राखहु भामिनि॥”
भक्ति भाव की कविता के अतिरिक्त सुंदरी कुंवरी के काव्य में वीर रस का ओजपूर्ण चित्रण भी मिलता है। प्रस्तुत कवित्त में युद्ध के लिए प्रस्थान करती सेना का अत्यंत सजीव वर्णन हुआ है जो शत्रुओं की छावनी को इस तरह घेर लेती है कि राजा अपने प्राण बचाने के लिए भागते फिरते हैं। इसे पढ़ते हुए भूषण का प्रसिद्ध कवित्त “साजि चतुरंग सैन” बरबस याद हो आता है-
“बाजत नगारें अरु गाजत गयंद भारे,
भयमान अरी की नरी न गही डरी हैं।
दल पारावार को अपार रब रह्यो छाप,
भाजैं राज राव उठ उठैं धरधरी है।
बाँधत जे बान सुर तावे तेऊ बहराने,
केऊ नजराने दै पुरी की रच्छा करी हैं॥
अलका मैं अलकनि मैं मेक माहिं पलकन मैं,
सूर की बधू कै हू चमू की रज भरी हैं॥ “
इनकी भक्ति में माधुर्य भाव के अतिरिक्त कहीं -कहीं विनय भावना की अभिव्यक्ति भी हुई है। प्रस्तुत दोहे में विनय का प्रणम्य और समर्पित भाव प्रस्फुटित हुआ है और भक्त का उपालंभ भी। इस तरह दास्य भाव और माधुर्य भाव का सुंदर और अद्भुत सम्मिश्रण दिखाई देता है –
“ग़रीब नैवाज तैं, ग़रीब मैं निवाजै क्यों ना
लाख लाख बातन की, सूधी एक बात है।”
सखियों, इतने महत्वपूर्ण और सरस ग्रंथ लिखने के बावजूद सुंदरी कुंवरी बाई को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला जिसकी वह हकदार थीं। इनकी उपेक्षा दुख का ही नहीं चिंता का विषय भी है। आइए, आप और हम मिलकर इस विस्मृति की चादर को हटाकर इनकी रचनाओं को पढ़े और पढ़ाएं।