फरवरी का महीना, रुमानियत का ही नहीं ज्ञान का भी महीना है। वसंत कदम रख रहा है और ज्ञान की देवी सरस्वती का आगमन भी होने वाला है मगर इसे बाजार का करिश्मा कहिए या कुछ और संत वेलेन्टाइन ने कुछ ऐसी दस्तक दी है कि पूरा हवा में वेलेंटाइन समा गया है। मजे की बात यह है कि क्रिसमस और वेलेंटाइन डे, इन दोनों उत्सवों में लाल रंग पर खास जोर दिया जाता है और भारतीय संस्कृति में भी लाल रंग का विशेष महत्व है। प्रेम हो तो लज्जा की लालिमा और क्रोध हो तो आँखों में अँगारे, सूर्य की सिन्दूरी लालिमा, लाल चूड़ियाँ, लाल जोड़ा, लाल बिन्दी, कितना कुछ लाल है, कहने का मतलब यह है कि जो हम पश्चिम से उधार ले रहे हैं, वह कहीं अधिक विस्तृत रूप में हमारे पास मौजूद है, फर्क यह है कि हम वेलेंटाइन्स डे के अगले दिन एनिमी डे नहीं मनाते। प्रेम में ईश्वर छुपा होता है मगर उस प्रेम का अर्थ प्रिय पर कब्जा जमाना या उसके व्यक्तित्व को छीनना हरगिज नहीं होता।
प्रेम औदात्य है और जहाँ औदात्य नहीं, जहाँ प्रिय की न का मतलब उस पर तेजाब फेंकना हो, वहाँ प्रेम कैसा? प्रेम रोमांस ही नहीं बल्कि मातृत्व है, दोस्ती है और इसका स्वरूप तो इतना बड़ा है कि इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती मगर आज तोहफों के इस दौर में जब इश्क को तोहफों की कीमत से तौला जा रहा हो और रिश्ते फायदा देखकर बनाए जाने लगे हों तो वहाँ कबीर, मीरा, तुलसी, निराला और बच्चन और भी प्रासंगिक जान पड़ते हैं। अच्छा लगता कि जब कोई स्त्री की बात करता है मगर तकलीफ तब होती जब उसमें भी सस्ती लोकप्रियता बटोरने की सनक होती है। प्रेम की कोई भाषा नहीं होती, संवेदना की भाषा नहीं होती मगर उसका प्रभाव स्थायी और सार्वभौमिक होता है। माँ भारती, सृजन की शक्ति दे और प्रेम सकारात्मकता का संचार करे, यही कामना है।