जीतेन्द्र सिंह
पिछले दिनों लखनऊ से निकलने वाली प्रदर्शनकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका कला वसुधा के पाँच अंक पढ़े । कालिदास प्रथम एंव द्वितीय प्रसंग, नौटंकी (सांगीत)प्रसंग, और बलराज साहनी प्रथम एंव द्वितीय प्रसंग, यह अंक ऐसे समय में प्रकाशित हुआ है जब रंगमंच अपने भविष्य के लिए वर्तमान समय में आंतरिक रूप से जुझ रहा है । वहीं कला वसुधा रंगमंच के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते हुए आशा बाँधती है।
इन दिनों कला वसुधा के यह अंक अपनी सार्थकता की वजह अत्यन्त लोकप्रिय और चर्चाओं में हैं।पाँचों विशेषांक हिन्दी पाठकों एंव रंगकर्म करने वालों के लिए पठनीय एंव संग्रहणीय हैं क्योंकि इन अंकों में अपने समय की जानकारी बहुत तथ्यात्मक तरीके से संग्रहित किये गये है ।कालिदास प्रसंग के दोनों अंको में संस्कृत नाटकों एंव कालिदास की पूरी यात्रा एक साथ पढ़ने को मिल जाती है ।कालिदास के नाटकों के साथ उनके साहित्य की प्रासंगिकता पर उल्लेख किया गया है। नौटंकी (संगीत)अंक परम्पराशील नाट्य नौटंकी का उद्भव एंव विकास के साथ लोक नाट्यों की परम्परा पर नौटंकी के जानकारों के साथ- साथ कलाकारों के बातचीत महत्वपूर्ण बनाया दिया है। बलराज साहनी प्रसंग भी दो अंकों में बाँटा गया है। इसमें फ़िल्मों एंव रंगमंच के समीक्षकों के लेख शामिल है। खुद बलराज साहनी के लेख शामिल है।साहनी के शुरुआती दौर के संस्मरण और अन्य लेख भी हैं। बलराज साहनी के व्यक्तित्व के साथ यथार्थवादी समाजवादी एवं स्वाभाविक सपने देखने की आदत और उनके रंगकर्म के बारे पढ़ कर उनके विशाल व्यक्तित्व के बारे पता चलता है ।
इसके लिए प्रधान सम्पादक शंख बंदोपाध्याय और संपादक उषा बनर्जी को जाता है । व्यक्तिगत कोशिश से इस तरह की पत्रिका लगातार निकते देख कर हैरानी होती है। कला वसुधा की यह प्रत्येक अंक की सामग्री रंगकर्म अध्ययन से परिचित करता है। वर्तमान समय में दस्तावेज़ के रुप में महत्वपूर्ण बन गये हैं।
(समीक्षक वरिष्ठ रंगकर्मी हैं)