भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक महापुरुषों ने अपना योगदान दिया था जिनमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम पहली पंक्ति में है । सुभाष चंद्र बोस ने भारत के लिए पूर्ण स्वराज का सपना देखा था । भारत को गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराने के उन्होंने कई आंदोलन किए और इसकी वजह से नेताजी को कई बार जेल भी जाना पड़ा । उन्होंने अपने वीरतापूर्ण कार्यों से अंग्रेज़ी सरकार की नींव को हिलाकर रख दिया था । जब तक नेताजी रहे, तब तक अंग्रेज़ी हुक्मरान चैन की नींद नहीं सो पाए । ऐसे तो हमें अंग्रजी हुकूमत से आज़ादी 15 अगस्त 1947 को मिली, लेकिन करीब 4 साल पहले ही सुभाष चंद्र बोस ने हिन्दुस्तान की पहली सरकार का गठन कर दिया था । इस लिहाज से 21 अक्टूबर 1943 का दिन हर भारतीय के लिए बेहद ही खास और ऐतिहासिक है ।
आजादी से पहले हिन्दुस्तान की पहली सरकार
उस वक्त भारत पर अंग्रेजों का राज था, लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्बूर 1943 को वो कारनामा कर दिखाया जिसे अब तक किसी ने करने के बारे में सोचा तक नहीं था । उन्होंने आजादी से पहले ही सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की । नेताजी ने इस सरकार के जरिए अंग्रेजों को साफ कर दिया कि अब भारत में उनकी सरकार का कोई अस्तित्व नहीं है और भारतवासी अपनी सरकार चलाने में पूरी तरह से सक्षम हैं । आजाद हिंद सरकार के बनने से आजादी की लड़ाई में एक नए जोश का संचार हुआ । करीब 8 दशक पहले 21 अक्टूबर 1943 को देश से बाहर अविभाजित भारत की पहली सरकार बनी थी । उस सरकार का नाम था आजाद हिंद सरकार. अंग्रेजी हुकूमत को नकारते हुए ये अखंड भारत की सरकार थी । 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर के कैथे भवन में हुए समारोह में रासबिहारी बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों में सौंप दी । इसके बाद 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार की स्थापना हुई । आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सुभाष चन्द्र बोस ने स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई।
आज़ाद हिन्द को 9 देशों ने दी थी मान्यता
जापान ने 23 अक्टूबर 1943 को आज़ाद हिंद सरकार को मान्यता दी । जापान ने अंडमान और निकोबार द्वीप आजाद हिंद सरकार को दे दिए । सुभाष चंद्र बोस उन द्वीपों में गए और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप और निकोबार का स्वराज द्वीप रखा गया । 30 दिसंबर 1943 को ही अंडमान निकोबार में पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने तिरंगा फहराया था । ये तिरंगा आज़ाद हिंद सरकार का था । सुभाष चंद्र बोस भारत की पहली आज़ाद सरकार के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री थे. वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को और महिला संगठन कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया । आज़ाद हिंद सरकार को 9 देशों की सरकारों ने अपनी मान्यता दी थी जिसमें जर्मनी, जापान फिलीपींस जैसे देश शामिल थे । आजाद हिंद सरकार ने कई देशों में अपने दूतावास भी खोले थे ।
आज़ाद हिंद सरकार में हर क्षेत्र के लिए योजना
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आज़ाद हिंद सरकार ने हर क्षेत्र से जुड़ी योजनाएं बनाई थीं । इस सरकार का अपना बैंक था , अपनी मुद्रा थी, अपना डाक टिकट था, अपना गुप्तचर तंत्र था । नेताजी ने देश के बाहर रहकर, सीमित संसाधनों के साथ, शक्तिशाली साम्राज्य के खिलाफ व्यापक तंत्र विकसित किया । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने बैंक और स्वाधीन भारत के लिए अपनी मुद्रा के निर्माण के आदेश दिए । आजाद हिंद सरकार का अपना बैंक था जिसका नाम आजाद हिंद बैंक था । आजाद हिंद बैंक ने दस रुपये के सिक्के से लेकर एक लाख रुपये का नोट जारी किया था । एक लाख रुपये के नोट पर सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर छपी थी । सुभाष चंद्र बोस ने जापान और जर्मनी की मदद से आजाद हिंद सरकार के लिए नोट छपवाने का इंतजाम किया था । जर्मनी ने आजाद हिन्द सरकार के लिए कई डाक टिकट जारी किए थे जिन्हें आजाद डाक टिकट कहा जाता था । ये टिकट आज भारतीय डाक के स्वतंत्रता संग्राम डाक टिकटों में शामिल हैं । आजाद हिंद सरकार सशक्त क्रांति का अभूतपूर्व उदाहरण था । नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजी हुकूमत यानी एक ऐसी सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था, दुनिया के एक बड़े हिस्से में जिसका शासन था ।
नेताजी थे आज़ाद हिंद सरकार के प्रधानमंत्री
आज़ाद हिंद सरकार ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगा को चुना था । रवींद्र नाथ टैगोर रचित ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान बनाया था । एक दूसरे से अभिवादन के लिए जय हिंद का प्रयोग करने की परंपरा शुरू की गई थी । 21 मार्च 1944 को ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ आज़ाद हिंद सरकार का हिंदुस्तान की धरती पर आगमन हुआ । आजाद हिंद सरकार के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए नेताजी ने ऐलान किया था कि लाल किले पर एक दिन पूरी शान से तिरंगा लहराया जाएगा । आजाद हिंद सरकार ने देश से बाहर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी और आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी । इस सरकार ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के लोग अब अपनी जमीन पर बाहरी हुकूमत को किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे ।आजाद हिंद सरकार की स्थापना के 75वीं वर्षगांठ पर 2018 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से तिरंगा झंडा फहराया था ।
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा बुलंद करने वाले महान देशभक्त सुभाष चंद्र बोस एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने न सिर्फ देश के अंदर बल्कि देश के बाहर भी आज़ादी की लड़ाई लड़ी । राष्ट्रीय आंदोलन में नेताजी का योगदान कलम चलाने से लेकर आज़ाद हिंद फौज का नेतृत्व कर अंग्रेज़ों से लोहा लेने तक रहा है । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने कॉलेज के शुरुआती दिनों में ही बंगाल में क्रांति की वो मशाल जलाई, जिसने भारत की आज़ादी की लड़ाई को एक नई धार दी ।
फॉरवर्ड अखबार के संपादक के तौर पर काम
सुभाष चंद्र बोस अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ वो एक बुलंद और सशक्त आवाज़ थे । आईसीएस की नौकरी छोड़कर लंदन से भारत लौटने के बाद नेताजी की मुलाकात देशबंधु चितरंजन दास से हुई । उन दिनों चितरंजन दास ने फॉरवर्ड नाम से एक अंग्रेज़ी अखबार शुरू किया हुआ था और अंग्रेज़ों के जुल्मों-सितम के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी । सुभाष चन्द्र बोस से मिलने के बाद चितरंजन दास ने उन्हें फॉरवर्ड अखबार का संपादक बना दिया । नेताजी उस अखबार में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ ज़ोर-शोर से लिखकर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ माहौल तैयार कर रहे थे। कलम से शुरू की गई इस मुहिम की वजह से नेताजी को साल 1921 में छह महीने की जेल भी हुई।
1939 में मतभेद की वजह से कांग्रेस से हुए अलग
चितरंजन दास के साथ स्वराज्य पार्टी के लिए काम करते हुए और उसके बाद भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जेल आने-जाने का सिलसिला ज़ारी रहा । नेताजी ने साल 1928 में कलकत्ता की सड़कों पर सेना की वर्दी में दो हजार भारतीय युवकों के साथ परेड कर ब्रिटिश खेमे को हिला कर रख दिया था। 1938 में हुए हरिपुरा अधिवेशन में नेताजी कांग्रेस के प्रमुख बनाए गए । नेताजी ने कांग्रेस को आज़ादी की तारीख़ तय करने के लिए कहा. तय तारीख़ तक आज़ादी नहीं मिलने पर सुभाष चन्द्र बोस अंग्रेज़ों के खिलाफ़ ज़ोरदार आंदोलन छेड़ना चाहते थे लेकिन महात्मा गांधी इसके लिए तैयार नहीं हुए । आखिरकार उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर 1939 में फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की और अंग्रेज़ी साम्राज्य के खिलाफ नए सिरे से मोर्चा खोल दिया ।
नेताजी ने भारतीय युद्ध बंदियों से मुक्ति सेना बनाई
क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से प्रभावित होकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ादी की लड़ाई के लिए विदेशी मदद जुटाने की ठान ली थी । कलकत्ता में पुलिस की नज़रबंदी को चकमा देकर नेताजी काबुल के रास्ते जर्मनी पहुंचे । जर्मनी में उनकी मुलाकात हिटलर से हुई जिसने ब्रिटिश हुकूमत को कमज़ोर करने के लिए नेताजी को हर संभव मदद मुहैया कराने का वादा किया । नेताजी का ये विश्वास था कि भारत की आज़ादी तभी संभव है जब ब्रिटेन पर दूसरे विश्व युद्ध के वक्त ही निशाना साधा जाए । इसी कड़ी में उन्होनें इटली और जर्मनी में कैद भारतीय युद्ध बंदियों को आज़ाद करवा कर एक मुक्ति सेना भी बनाई ।
1943 में आज़ाद हिंद फौज़ का नेतृत्व संभाला
साल 1943 में नेताजी जब जापान पहुंचे, तब उन्हें कैप्टन मोहन सिंह की ओर से स्थापित आज़ाद हिंद फौज़ का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गयी । उनका चुनाव खुद रासबिहारी बोस ने ही किया था । 1943 में ही नेताजी ने आजाद हिंद फौज की सेना की सलामी लेने के बाद दिल्ली चलो और जय हिंद का नारा दिया । नेताजी के कमान संभालने से पहले आजाद हिंद फौज में सिर्फ चार विभाग थे लेकिन सुभाष चंद्र बोस ने उन चार विभागों को बल प्रदान करने के लिए सात नए विभागों का गठन किया ।
महिलाओं के लिए झांसी की रानी रेजीमेंट
आजाद हिंद फौज यानि इंडियन नेशनल आर्मी का मुख्य आधार एकता, त्याग और निष्ठा रखा गया और इसी भावना से संगठन में नए आदर्शों की भावना का विकास किया गया । इसके साथ ही महिलाओं के लिए झांसी की रानी रेजीमेंट का गठन किया गया जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन (लक्ष्मी सहगल) को सौंपी गयी ।
आज़ाद हिंद फौज़ ने ब्रिटिश सेना पर हमला किया
आज़ाद हिंद फौज़ ने साल 1944 की फरवरी में ब्रिटिश सेना पर हमला कर दिया । इस फौज़ ने पलेल और तिहिम समेत कई भारतीय प्रदेशों को अंग्रेज़ों से मुक्त करा दिया था । सितंबर 1944 में शहीदी दिवस के भाषण में ही नेताजी ने आज़ाद हिंद सैनिकों को कहा था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा । ये सुभाष चंद्र बोस का ही असर था, जिसने अंग्रेज़ी फौज़ में मौजूद भारतीय सैनिकों को आजादी के लिए विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया था ।
23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में जन्म
‘जय हिन्द’ का नारा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में हुआ । बोस के पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माँ का नाम ‘प्रभावती’ था । जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे । सुभाष चंद्र बोस 14 भाई-बहन थे जिसमें 6 बहनें और 8 भाई थे. सुभाष चंद्र अपने माता-पिता की नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे । संपन्न बंगाली परिवार में जन्मे नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में की । इसके बाद उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई । देशभक्ति की भावना का उदाहरण तो उनके शुरुआती जीवन में ही देखने को मिल गया था । बचपन में उन्होने अपने शिक्षक के भारत विरोधी बयान पर घोर आपत्ति जताई थी और तभी सबको अंदाजा लग गया था कि वो गुलामी के आगे सिर झुकाने वालों में से नहीं है ।
आईसीएस की नौकरी छोड़ आजादी की लड़ाई में कूदे
सुभाष चंद्र बोस एक मेधावी छात्र थे जो हमेशा परीक्षा में अव्वल आते थे । 1919 में उन्होने स्नातक किया । भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया । अंग्रेज़ी शासन के जमाने में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था लेकिन उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा न सिर्फ पास की बल्कि चौथा स्थान भी हासिल किया । स्वतंत्र विचारों वाले सुभाष का मन अंग्रेजों की नौकरी में कहां लगने वाला था । भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया । सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए । उनके मन में पहले से ही एक मजबूत और निडर व्यक्तित्व था । वे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दासता से भारत का उद्धार चाहते थे । दिसंबर 1927 में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के बाद 1938 में उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया लेकिन नेता जी के क्रांतिकारी विचारों और आकर्षण की वजह से अपने ही वरिष्ठ नेता उनकी निंदा करने लगे । विचारों में मतभेद और बोस की लोकप्रियता पार्टी के कई नेताओं को नहीं भा रही थी । इसे भांपते हुए सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई ।
महात्मा गांधी के विचारों से असहमति
सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे. वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे, वहीं सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे । महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार अलग-अलग थे लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गांधी और उनका मक़सद एक है यानी देश की आज़ादी. नेता जी के मन में गांधी जी के लिए अपार श्रद्धा थी. तभी तो सबसे पहले गांधीजी को राष्ट्रपिता कह कर नेताजी ने ही संबोधित किया था । हालांकि गांधीजी के विरोध के चलते इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ ने त्यागपत्र देने की आवश्यकता महसूस की । गांधी के लगातार विरोध को देखते हुए उन्होंने स्वयं कांग्रेस छोड़ दी ।
जर्मनी पहुंचकर बनाई रणनीति
जब दूसरा विश्व विश्व युद्ध के शुरू हुआ तब बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आज़ादी हासिल की जा सकती है । उनके विचारों को देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में नज़रबंद कर दिया लेकिन वे अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से वहां से भाग निकले । वह अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुए जर्मनी जा पहुंचे ।
हिटलर से भी मिले थे सुभाष चंद्र बोस
सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की । उन दोनों की एक अनीता नाम की एक बेटी भी हुई. विदेशी प्रवास के दौरान नेताजी हिटलर से भी मिले । उन्होंने 1943 में जर्मनी छोड़ दिया. वहां से वे जापान पहुंचे , फिर जापान से सिंगापुर पहुंचे । 18 अगस्त 1945 को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास एक हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया। नेताजी की मौत का सही कारण आज तक पता नहीं चल पाया है. नेताजी सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्र भारत की अमरता का जयघोष करने वाला राष्ट्रप्रेम की दिव्य ज्योति जलाकर अमर हो गए ।