त्रिपुरा की जनजातीय भाषा कॉकबरक के उपन्यास “पहाड़ की गोद” पर परिचर्चा

कोलकाता । गत 23 मई 2025 की संध्या को भारतीय भाषा परिषद में साहित्यिकी संस्था द्वारा आयोजित मासिक गोष्ठी में डॉ सुधन्य देव बर्मा द्वारा लिखित उपन्यास ” हाचुक खुरिवो” जिसका हिंदी अनुवाद प्रो. डॉ चन्द्रकला पांडेय एवं मिलन रानी जमातिया ने  “पहाड़ की गोद में” नाम से किया पर सम्यक चर्चा हुई। इस परिचर्चा से वहाँ के आर्थिक व सामाजिक जीवन के बारे में जानने का अवसर मिला। कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ सुषमा हंस जी ने बताया कि उपन्यास का नायक नरेंद्र साम्यवादी व समाजवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है।  शिक्षिका कविता कोठारी ने अतिथि वक्ता डॉ पूजा शुक्ला जी की अनुपस्थिति में पुस्तक पर उनके समीक्षात्मक आलेख का प्रभावपूर्ण शैली में वाचन किया। उन्होंने कहा कि चार खण्डों के इस उपन्यास में लेखक ने वहाँ की मुख्य समस्याओं जैसे शिक्षा की कठिन राह, शराबखोरी की समस्या , शरणार्थी समस्या तथा त्रिपुरा की अन्य जनजातीय समस्याओं का गहराई से विश्लेषण किया है। इस उपन्यास में जनजातीय समाज व बंगाली समाज के मध्य अंतर का विशद वर्णन एवं परस्पर प्रभाव को विभिन्न घटनाक्रमों के माध्यम से उकेरा गया है।

डॉ गीता दूबे जी ने परिचर्चा को विस्तार देते हुए कहा कि   ‘पहाड़ की गोद  में’ उपन्यास का नायक नरेंद्र कोई साधारण नायक नहीं है। वह अत्यंत संघर्षशील व प्रगतिशील है । वह अभावग्रस्त लोगों के साथ रह कर पूरे समाज को ही बदल डालना चाहता है । उन्होंने कहा कि विकास की आँधी बदलाव के साथ बहुत सी धूल -मिट्टी भी लेकर आती है ,उसको साफ करने का हौसला होना भी जरूरी है। सिर्फ फैशन के बदल जाने से विकास नहीं आता।उपन्यास में कहीं भी उलझाव नहीं है।

डॉ चन्द्रकला पांडेय जी ने पूर्वोत्तर भारत के अपने हिन्दी अभियान के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि पहले वहाँ हिन्दी का कोई अस्तित्व ही नहीं था । अब उनके तथा उनकी सहयोगी शिक्षिका मिलन रानी जमातिया जी के सामूहिक प्रयासों से वहाँ के बाइस कॉलेजों ने तथा लगभग सभी स्कूलों ने हिन्दी को अपना लिया है। इन सबके लिए पहले उन्होंने वहाँ की मूलभाषा कॉकबरक सीखी तथा वहाँ की संस्कृति को आत्मसात किया। डॉ चन्द्रकला ने कुछ अनुवादित कविताएँ भी सुनायीं । उन्होंने अपने उद्बोधन  में इस बात पर जोर दिया कि हमारी संस्कृति, संपूर्ण भारतीय संस्कृति है। इसको समग्रता में समझने और स्वीकार करने की आवश्यकता है।

कार्यक्रम की अध्यक्षा डॉ मंजू रानी गुप्ता ने मूल पुस्तक के अनुवाद की तारीफ करते हुए  हुए पूजा शुक्ला को उद्धृत करते हुए कहा कि अनुवाद उतनी ही जटिल प्रक्रिया है जितना इत्र को एक शीशी से दूसरी शीशी में डालना। क्योंकि लाख सावधानी बरतने के बाद भी इत्र का कुछ न कुछ भाग उड़ ही जाता है, लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ है।  विद्या भण्डारी जी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।रिपोर्टिंग मीतू कानोड़िया ने किया और कार्यक्रम की जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

 

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