उन्होंने आनंद में काम करते हुए देखा कि गरीब और अशिक्षित किसानों को दूध के वितरकों के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। पोलसन डेयरी 1930 में स्थापित की गई, जोकि आनंद जिले और गुजरात में एकमात्र डेयरी थी। हालांकि उनके उत्पाद उच्च गुणवत्ता वाले थे। लेकिन भारतीय किसानों का शोषण किया जा रहा था। प्रथम, उन सभी को दूध का अच्छी तरह से भुगतान नहीं किया जा रहा था। दूसरा, उन्हें सीधे विक्रेताओं को दूध बेचने की अनुमति नहीं थी। काम करते समय, कुरियन नेता त्रिभुवनदास पटेल से प्रेरित हुए जो इस शोषण के खिलाफ सहकारी आंदोलन पर काम कर रहे थे। कुरियन ने पटेल के साथ मिलकर खेड़ा जिले में सहकारी समितियों पर काम करना शुरू किया। इससे यह हुआ कि 14 दिसंबर 1949 को अमूल की स्थापना हुई। आरम्भ में इसे केडीसीएमपीयूएल (कैरा जिला सहकारी दूध उत्पादक संघ लिमिटेड) के रूप में जाना जाता था और यह उचित आपूर्ति श्रृंखला के बिना दूध और अन्य डेयरी उत्पादों की आपूर्ति करता था। जब यह शुरू हुआ तो इसमें दो सहकारी समितियां थी जिसमें प्रतिदिन 247 लीटर दूध का उत्पादन होता था। वर्तमान में अमूल 15 मिलियन लीटर दूध का उत्पादक और देश भर में 1,44,246 डेयरी सहकारी समितियों का संरक्षक है।
अमूल नाम कैसे मिला?
डॉ कुरियन ने दूध सहकारी आंदोलन शुरू किया और इसका नाम कैरा जिला सहकारी दूध उत्पादक संघ लिमिटेड (केडीसीएमपीयूएल) रखा, जिसे बाद में अमूल के रूप में जाना जाने लगा क्योंकि श्री कुरियन एक सरल और आसान उच्चारण वाला नाम चाहते थे। इसके अलावा ऐसा नाम होना चाहिए जो संघ के विकास में मदद करे। नाम के बारे में सुझाव कर्मचारियों और किसानों से पूछा गया। तब गुणवत्ता नियंत्रण पर्यवेक्षक द्वारा ‘अमूल्य’ की सिफारिश की गई थी यह एक संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ ‘अनमोल’ है। बाद में इस संगठन को सम्मिलित करने के लिए इसका नाम बदलकर अमूल कर दिया गया, वहाँ से ब्रांड अमूल-आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड अस्तित्व में आया। अमूल को पूर्ण सफलता तब मिली जब डॉ. कुरियन के दोस्त एच.एम. दलाया ने गाय के दूध के बजाय भैंस के दूध से मलाई निकाले हुए दूध का सूखा पाउडर और गाढ़ा दूध बनाने की प्रक्रिया का आविष्कार किया। अमूल सहकारी योजना पर काम कर रहे थे, यह इतना लोकप्रिय हो गया कि इसने सरकार का ध्यान खींच लिया।
सहकारी समितियाँ कैसे काम करती हैं?
गाँवों के समूह के लिए कई सहकारी समितियों का गठन किया गया था। इन गाँवों के किसानों का मुख्य कार्य दिन में दो बार दूध इकट्ठा करना था। जहाँ तक भुगतान का संबंध था, उसमें दूध और वसा सामग्री की गुणवत्ता निर्णायक कारक थी। अप्रत्याशित जाँचें, किसानों को शिक्षित करना और वसा मापने की आधुनिक मशीनें इस प्रक्रिया को सरल बनाने और इसमें आने वाली परेशानियों को दूर करने का अहम हिस्सा थीं। इसी समय दूध के प्रतिदिन संग्रह करने वाले केन को दूध को ठंडा रखने वाली इकाइयों में स्थानान्तरित कर दिया गया था। इसके कुछ समय बाद पास्चुरीकरण (दूध में रोगों और कमियों से नष्ट करना), ठंडा करने और पैकिंग का कार्य किया जाता था। पैक किए गए दूध को पहले थोक वितरक और उसके बाद खुदरा विक्रेताओं के पास ले जाया जाता है और अंत में उपभोक्ताओं को भेजा जाता है। इस आपूर्ति श्रृंखला में संशोधन के साथ अमूल ब्रांड एक प्रसिद्ध नाम बन गया है।
दुग्ध क्रांति – श्वेत क्रांति
1964 में, अमूल के नये पशुपालन संयंत्र का उद्घाटन करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को आनंद में आमंत्रित किया गया था। वे पूरी प्रक्रिया से बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने डॉ. कुरियन से देश भर में इस प्रतिरूप की नकल करने को कहा चूँकि यह प्रतिरूप किसानों को उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद कर रहा था। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए, वर्ष 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) का गठन किया गया और डॉ. कुरियन को इस बोर्ड का प्रभारी बनाया गया था। उस समय दूध की मांग बढ़ रही थी जो आपूर्ति को भी पार कर गई। धन की कमी एक और बड़ी समस्या थी। एनडीडीबी ने इसको हल करने के लिए विभिन्न विश्व बैंकों से बिना किसी शर्त के दान में पैसा माँगने की कोशिश की। 1969 में, जब विश्व बैंक के अध्यक्ष भारत आए तब डॉ. कुरियन ने उनसे कहा कि “मुझे पैसे दे दो और इसके बारे में भूल जाओ” (अर्थात दूध की कमी को) कुछ दिन बाद बिना किसी शर्त के ऋण मंजूर हो गया और जो कि बाद में दुग्ध क्रांति के रूप में जाना जाने लगा। इसका मुख्य उद्देश्य पूरे भारत में आनंद परियोजना के काम को दोहराना था। दुग्ध क्रांति को क्रमिक तीन चरणों में कार्यान्वित किया गया था।
पुरस्कार
दुनिया भर के विश्वविद्यालयों ने उन्हें सम्मानित किया, उन्होंने 12 मानद डिग्री प्राप्त कीं। 1999 में उन्हें पद्म विभूषण, 1993 में इंटरनेशनल पर्सन ऑफ द इयर, 1989 में विश्व खाद्य पुरस्कार, 1986 में वटलर शांति पुरस्कार, 1986 में कृष्णा रत्न पुरस्कार, 1966 में पद्म भूषण, 1965 में पद्म श्री और 1963 में रैमन मैगसेसे पुरस्कार मिला। इस तरह के उल्लेखनीय प्रयासरत इंजीनियर का 9 दिसंबर 2012 को गुजरात के आनंद के करीब नडियाड़ में निधन हो गया। डॉ. कुरियन को हमेशा उनके महान प्रयासों और डेयरी क्षेत्र में योगदान देने और किसानों का उत्थान करने के लिए याद किया जाएगा।
(साभार – मेन इंडिया)