प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राजसिंहासन
मुसलमानों के शासनकाल में जिन वीरों ने अपने सर्वस्व का बलिदान करके अपनी जाति, धर्म, देश और स्वतंत्रता की रक्षा की, उनमें अधिक संख्या राजपूत वीरों की ही देख पड़ती है, जैसे मुसलमानों की दुर्दम शक्ति का प्रतिरोध करने कि लिए उन वीर राजपूतों की शक्ति-रेखा विधाता ने खींची हो। दैव के काल्पनिक क्रम के भीतर जितनी मात्रा में बहिजंगत को सत्य का प्रकाश मिलता है, उतनी ही मात्रा में आध्यात्मिक गौरव की उज्ज्वलता भी प्रस्फुटित होकर हमारी मानस-दृष्टि को आश्चर्यचकित और स्तब्ध कर देती है।
स्वतंत्रता की सिंहवाहिनी के इंगित मात्र से देश के बचे हुए राजपूत-कुल-तिलक-वीरों की आत्माहुति, जलती हुई चिताग्नि में अगणित राजपूत कुल-ललनाओं द्वारा उज्ज्वल सतीत्व रत्न की रक्षा तथा लगातार कई शताब्दियों तक ऐसे ही रक्तोष्ण शौर्य के प्रात्यहिक उदाहरण, इन सजीवमूर्ति सत्य घटनाओं के अनुशीलन से वर्तमान काल की शिरश्चरणविहान, जल्पना मूर्तियाँ भारत के अशान्त आकाश में तत्काल विलीन हो जाती हैं और उस जगह वह चिरन्तन सत्यमूर्ति ही आकर प्रतिष्ठित होती है। तब हमें मालूम हो जाता है कि जातीय जीवन में साँस किस जगह चल रही है। वास्तव में उन वीरों के अमर आदर्श की जड़ भारतीय आत्माओं के इतने गहन प्रदेश तक पहुँची हुई है कि वहाँ उस जातीय वृक्ष को उन्मूलित कर, इच्छानुसार किसी दूसरे पौधे की जड़ जमाना बिल्कुल असंभव, अदूरदर्शिता की ही परिचायक कहलाती है।
हम जिस समय का इतिहास लिख रहे हैं, उस समय भारत के सम्राट् ‘दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा’ मुगल बादशाह अकबर थे। इनके पहले दिल्ली के सिंहासन पर जितने मुसलमान सम्राट् बैठे थे, उनकी नीति हिन्दुओं के प्रति खासकर वीर राजपूतों के प्रति मुसलमान-स्वभाव के अनुकूल, प्रत्यक्ष विरोध करने वाली थी, परन्तु सूक्ष्मदर्शिता अकबर ने उस नीति को ग्रहण नहीं किया। साम्राज्य-विस्तार की लालसा अकबर में उन लोगों की अपेक्षा बहुत बढ़ी-चढ़ी थी, परन्तु ये उन लोगों की तरह दुश्मन को दबाकर न मारते थे, इनकी नीति थी मिलाकर शत्रु को अपने वशीभूत करना। इस नीति के बल पर इनको सफलता भी खूब मिली। प्राय: सम्पूर्ण राजपूताना इनके अधीन हो गया। उस समय जिस महावीर पुरुष ने अकबर का सामना किया, हिन्दुओं की कीर्ति-पताका मुगलों के हाथ नहीं जाने दी, आज हम उसी लोकोज्ज्वल-चरित्र महावीर महाराणा प्रतापसिंह की कीर्ति-गाथा अपने पाठकों को भेट करते हैं ।
उस समय भारत वर्ष में जितने मानवीय क्षत्रियवंश थे, उनमें ‘सिसोदिया वंश’ विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, आज भी इस वंश की इज्जत वैसी ही की जाती है। इस वंश में किसी प्रकार के कलंक की कालिमा नहीं लग पायी। मुसलमानों ने छाया-स्पर्श से भी इस वंशवालों को घृणा थी और वे अन्त तक दूध के धोये ही बने रहे।
महाराणा प्रतापसिंह के पिता उदयसिंह अपनी छोटी रानी को और-और रानियों से ज्यादा प्यार करते थे। इसका फल यह हुआ कि उन्हें संतुष्ट करने के लिए मृत्यु के समय उदयसिंह ने उन्हीं के लड़के को राजगद्दी दी। उनका नाम जगमल था। उदयसिंह का यह कार्य नीति के खिलाफ हुआ। क्योंकि राजगद्दी के हकदार प्रतापसिंह थे। ये जगमल से बड़े थे। उदयसिंह के इस कार्य की प्रजाजनों में बड़ी समालोचना हो चली और भीतर-ही-भीतर वे लोग इस अनीति की निन्दा करने लगे। वास्तव में प्रेम के वशीभूत होकर, दायित्वपूर्ण उत्तराधिकारी-क्रम पर महाराणा उदयसिंह का इस तरह स्वेच्छाचार करना, राज-पद्धति के बिलकुल विपरीत हुआ था।
यह जहर फैलता गया। धार्मिक विचारों से तो राज्य के अधिकारी प्रतापसिंह ठहरते ही थे, इसके अलावा प्रजाजनों का प्रेम भी उनके ऊपर बहुत ही गहरा था। प्रतापसिंह का दिल लुभा लेनेवाला अकृत्रिम बर्ताव, प्रजाजनों को समदृष्टि से देखना, अपने को प्यारी प्रजा का सेवक समझना, देश और धर्म के नाम पर अपने सर्वस्व का त्याग, इस तरह के और भी अनेक सद्गुण उनमें थे। जगमल के राजगद्दी पाने पर और सभी लोगों को क्लेश हुआ, परन्तु दृढ़व्रत प्रताप के चेहरे पर शिकन भी न पड़ी। वे पूर्ववत् ही प्रसन्न रहते और जैसे स्नेह की दृष्टि से जगमल को पहले देखते थे, वैसे ही अब भी देखते।
महाराणा उदयसिंह का कार्य जिन राजपूत-सरदारों को खटकता था, उनमें झालवाड़ के महाजन और चन्दावत कृष्णजी प्रमुख थे। प्रताप झालावाड़ महाराज के भानजे थे। अपने भानजे को अपने प्राप्य अधिकार से वंचित होते देखकर झालावाड़-नरेश से न रहा गया। उन्होंने कृष्णजी के साथ अन्यान्य सरदारों को एकत्र कर सलाह की और फिर राज्य की प्रजा का रुख देखा। कुमार प्रतापसिंह को उनका उचित अधिकार देने के लिए सब लोग उतावले हो गये और सबने महाराणा उदयसिंह की दुर्बलता की निन्दा की। राज्य के सामन्त सदस्यों और प्रजा-समष्टि की राय के अनुसार प्रतापसिंह को गद्दीनशीन करने की तैयारियाँ भीतर-ही-भीतर होने लगीं। जगमल का पक्षपात करने वाले इने-गिने लोग ही थे।
इधर जिस मुहुर्त से राज्य का शासन भार जगमल के हाथ में आया, उसी मुहुर्त से उसे राजमद का भयंकर नशा हो गया। वह सीधे पैर ही न रखता था। स्वभाव का उद्दण्ड, राजनीति में अनजान, लोगों के स्वभाव से अपरिचित, लड़ाई के नाम से घबड़ाने वाला महामूर्ख जगमल सभासदों को संतुष्ट न कर सकता था। उसके रूखे और अमानुषिक बर्ताव से सब लोग तंग आ गये। उसने भी शासन की बागडोर अपने हाथ में पाते ही अनियंत्रण का घोड़ा तेजी से बढ़ाया। फल यह हुआ कि अपने सवार को लेकर घोड़ा कुराह चलने लगा, काँटों और झाड़ियों में अड़ने लगा। जगमल की स्वतंत्रता ने घोर अत्याचार का रूप धारण किया। उससे सभासद सरदार-राजपूतों के दिलों में सख्त चोट लगी। कुछ एक ने तो घबड़ाकर राज्य में ही रहना छोड़ दिया।
राज्य में इस तरह के उपद्रव देखकर स्वदेश के सहृदय भक्त प्रताप से न रहा गया। एक दिन वे जगमल के पास गये और बड़े स्नेहपूर्ण शब्दों में समझाते हुए कहा, ‘‘जगमल, ईश्वर की इच्छा से आज तुम विशाल जन समूह के शासक हो। लाखों मनुष्यों के भाग्य-विधाता हो। परन्तु तुम्हें स्मरण रखना चाहिए, अधिकार के माने ये नहीं हैं-कि स्वेच्छाचार किया जाय, निरपराध मनुष्यों से तुम अपनी शक्ति की थाह लो। देखो तो सही, तुम्हारे अनेक सभासद राज्य छोड़कर चले जा रहे हैं। क्या अत्याचार करके अपनी प्रजा को सन्तुष्ट करोगे ? तुम्हें अपना स्वभाव बदलना चाहिए। समय बड़ा नाजुक है। अगर तुम नहीं सुधरे तो तुम्हारा और तुम्हारे राज्य का भविष्यफल बड़ा विषमय होगा।’’
प्रताप की संवेदनासूचक उक्तियों से मदान्ध जगमल होश में नहीं आया, बल्कि उसने इसे अपनी राजसी शान के खिलाफ अपमान समझा। कड़ककर उसने कहा, ‘‘तुम मेरे बड़े भाई हो सही, परन्तु तुम्हें स्मरण रहे कि तुम्हें मुझे उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं हैं। तुम मेरी आज्ञा के अनुचर हो। मैं नादान नहीं हूँ और न किसी बनिये के घर से उठाकर लाया हुआ, महाराणा उदयसिंह का गोद लिया लड़का ही हूँ। राजा-महाराजओं के यहाँ का बर्ताव उनके कार्य मुझे न सिखलाओ, पिताजी ने कुछ समझकर ही मुझे राजगद्दी दी है।’’
प्रताप- ‘‘जगमल।’’
जगमल- ‘‘प्रताप, तुम महाराणा की शान के खिलाफ पेश आये हो। तुम्हें मैं इसका यथोचित दण्ड दूँगा। तुम आज ही मेरे राज्य की सीमा से बाहर हो जाने का प्रबंध करो।’’
एक प्रकार के सम्मान के ज्ञान के प्रताप की आँखों को बरबस झुका दिया। वे चुपचाप वहाँ से चल दिये। उस समय इधर-उधर से कुछ नौकर प्रताप और जगमल की बातों को कान लगाये सुन रहे थे। जगमल की कठोर दण्डाज्ञा को सुनकर सब चौंक उठे। यह सबको बुरा लगा। वे आपस में जगमल की नीचता की समालोचना करने लगे। धीरे-धीरे फैलती हुई बात सरदारों के कानों तक पहुँची। उधर प्रताप ने किसी दूसरे से कुछ भी न कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो। परन्तु उनकी मुखाकृति उत्तरोत्तर गंभीर होती चली गया, जैसे प्रभात के सूर्य-रश्मि पर मेघों की छाया आ पड़ी हो। प्रताप अपने अशवागार में गये और घोड़े को कसने की आज्ञा दी। इधर सरदारों को जगमल की नुष्ठुर आज्ञा का हाल मालूम होते ही सबके-सब प्रताप को खोजने लगे। प्रताप नगर को पारकर कुछ दूर चले गये थे। उस एकान्त स्थान में चन्दावत कृष्ण ने प्रताप को पीछे से पुकारा, प्रताप ने भी घोड़े को रोक लिया। बहुत समझाने पर चन्दावत कृष्ण के साथ वे लौटे।
प्राय: सभी सरदार जगमल से नाराज थे, प्रताप के लौटने पर चन्दावत कृष्ण ने जगमल की नीचता का प्रमाण पेश करते हुए उसे राज्य-संचालन करने के आयोग्य ठहरा, गद्दी से उतार उस पवित्र सिंहासन पर सिसोदिया-कुल-सूर्य, पावन चरित्र महाराणा प्रतापसिंह को बैठाया और उनकी अधीनता में रहकर राज्य का संचालन और अपनी जाति, धर्म और देश की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। सब सरदारों ने एक स्वर से महाराणा प्रतापसिंह की जय घोषणा की। महाराणा प्रतापसिंह के शासन-भार ग्रहण करने का संवाद पा राज्य की समस्त प्रजा को हर्ष हुआ। सब लोग अपने नवीन महाराणा को अनेक प्रकार की भेंटे देते हुए अपने हृदय की निश्चल सेवा की सूचना देने लगे। महाराणा प्रताप के राजसिंहासन पर बैठते ही मानो राज्य के शरीर में एक नवीन जीवन का संचार हो गया, चारों ओर सजीव स्फूर्ति का कलरव होने लगा।