कविता

औरतें

— कल्पना

 kalpana di

चीखना चाहती है वह,

इतनी जोर से
कि अनंत प्रकाश वर्षों के पार
उसकी पीड़ा  विचलन पैदा  कर दे

पौराणिक चरित्रों के मुँह नोच कर
उनके मुखौटे अपने घरों की  दीवारों पर
टाँग देना चाहती है

सदियों से लांछित नियति का रोष
निकालना चाहती है
पंडों और दलालों के चंगुल मॆं फँसे
ईश्वर की चमकती मूर्तियों पर कालिख पोत कर

विकृत शब्दों मे जडे  पंगु नियमों की
धज्जियां उड़ा  कर
चिपका देना चाहती है आसमान की स्लेट पर

बवंडर लाना चाहती है
प्रलय बरसाना चाहती है
लील जाना चाहती है कुरूपताओं को

और अंततः आदतन चुप हो जाती  है
एक लम्बे मौन पर चली जाती है
जैसे लोग लम्बी यात्राओं पर जाते हैं

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(कवियत्री प्रख्यात रंगकर्मी व गायिका हैं। फिलहाल प्रमुख केन्द्रीय सस्थान में अनुवादक के रूप में कार्यरत)

2 thoughts on “कविता

  1. सुषमा त्रिपाठी says:

    आभार। इसी सहयोग की आकाँक्षा है।

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