हम कितने अंजान
हम कितने नादान
सब कुछ जान
फिर भी अंजान
हम आभासी इस दुनिया के
जीते जागते एक खिलौने
चाबी भी रहस्यमय ताला भी
ऋषि मुनियों ने हमें सिखाया
जीव – जगत क्षणभंगुर है
कान से बहरे बन हम
करते रहे तबाही अपनी
जंगल पेड़ नदी मैदान पहाड़ में
ईंटो की अराजकता आई
सादा जीवन जटिल हो गया
स्त्री-पुरुष में विभेद हो गया
लिंग भाषा और धर्मों में
चलने लगे युद्ध अनवरत
किस दुर्गा की बात करें
लौकिक – अलौकिक के भंवर जाल में
स्त्री को बिठा दिया मंदिर में
सृष्टि का संचालक बन
पुरुष बना सत्ता शासक
स्वयं फंस गयी स्त्री जाति
पूजा-अर्चन के जंगल में
मनुष्यता के मूल मंत्र भूल
आडंबर में हुई लीन
पुरुषों की माया में घिर
भूल गई स्त्रीत्व शक्ति को
भूल गई दुर्गा के अर्थों को
हाथ पैर मन की शक्ति को
शंख चक्र गदा शक्ति त्रिशूल धारिणी
स्त्री के ये अस्त्र-शस्त्र हैं
सृष्टि वाहिनी शक्तिशालिनी
मिट्टी की मूरत में क्यों सिमटी
फेंक सभी बाह्य आवरण
आत्म स्वरूप का ज्ञान कर
सभी रक्त बीज महिषासुर की संहारक बन
हे कल्याण दायिनी!
आभासी दुनिया से निकल
रूप जय यश को पाकर जीवित दुर्गा बन
इस नश्वर संसार को
पुरुष और प्रकृति को जी लो
आभासी इन एहसासों को पल पल भावों में भर लो
स्त्री-पुरुष एक जाति है
पुरुष और प्रकृति के बंधन को
नए अध्याय से जुड़ कर
दुर्गा में स्वयं उतर कर
जीवित जीवन के छिपे रहस्य को पहचानो
हम सब आभासी दुनिया के वरदान।
One thought on “आभासी स्त्री बनाम दुर्गा”
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शुभजिता में प्रकाशित वसुंधरा जी की कविता में तकनीकी दुनिया के आभासीय हस्तक्षेप का मनुष्य और प्रकृति पर पड़ते प्रभाव का चित्रण बख़ूबी उभरा है। जटिल से जटिलतर होता हमारा जीवन बनावटी और सच से दूर होता जा रहा है। ‘आभासी स्त्री बनाम दुर्गा’ कविता हमारे जीवन के इस सच को उजागर करते हुए कई बड़े सवाल खड़े करती है। यह कविता की सार्थकता है।