-गौरव अवस्थी
बोलियों में बंटी हिंदी भाषा को परिमार्जित करके भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा प्रारंभ किए आधुनिक खड़ी बोली हिंदी आंदोलन को सफलता के शिखर पर स्थापित करने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। अपनी अथक मेहनत के बल पर उन्होंने हिंदी खड़ी बोली में कई संपादक लेखक कवि तैयार किए। आचार्य द्विवेदी को भाषा और व्याकरण में किसी भी तरह की भाषाई अशुद्धि और व्याकरण की अराजकता अस्वीकार थी। हिंदी की इस प्रतिष्ठा के लिए ही अपने समय के प्रतिष्ठित साहित्यकारों से आचार्य द्विवेदी का वाद-विवाद और प्रतिवाद होता रहा। कुछ विवाद तो आधुनिक हिंदी साहित्य में आज भी अमिट हैं। बालमुकुंद गुप्त से अस्थिरता और अनस्थिरता शब्द पर वर्षों चला विवाद हो या नागरी प्रचारिणी सभा की खोजपूर्ण रिपोर्ट को लेकर बाबू श्यामसुंदर दास से हुआ मतभेद या सरस्वती में लेख न छपने पर बीएन शर्मा से हुई लट्ठमलट्ठ। आमतौर पर उनकी छवि कलहप्रिय, क्रोधी, घमंडी और तुनक मिजाज के तौर पर स्थापित करने की समय- समय पर कोशिशें की गईं लेकिन इन विवादों के अंत सौहार्दपूर्ण एवं सौजन्यता के साथ ही हुए। बालमुकुंद गुप्त से चले विवाद का अंत आचार्य के चरणों में सिर रखने से हुआ। आचार्य द्विवेदी ने भी उन्हें गले लगा कर सहृदयता दिखाई।
नागरी प्रचारिणी सभा के काम की आलोचना खोजपूर्ण रिपोर्ट छपने पर बाबू श्यामसुंदर दास से पैदा हुए मतभेद के बाद सभा ने सरस्वती से अपने संबंध समाप्त कर लिए। आचार्य द्विवेदी ने ‘अनुमोदन का अंत’ शीर्षक से लेख लिखा तो सभा के कार्य से बाहर गए पं. केदारनाथ पाठक बहुत नाराज हुए और लौटने पर सीधे कानपुर आचार्य द्विवेदी के पास पहुंचकर अपनी नाराजगी प्रकट की। कोमल हृदय आचार्य द्विवेदी ने उन्हें ससम्मान आसन दिया और घर के अंदर से मिठाई-जल लेकर आए और साथ में एक लाठी भी। शिष्टाचार के बाद उन्होंने पं. पाठक को प्रतिवाद पूरा करने के लिए लाठी देते हुए कहा-‘आपकी लाठी और मेरा सर..’। इस पर पं. पाठक बहुत लज्जित हुए और वह हमेशा के लिए आचार्य जी के भक्त हो गए। इस विवाद का अंत भी श्यामसुंदर दास द्वारा ‘भारत मित्र’ में द्विवेदी जी की उदारता पर लिखे गए लेख के साथ हुआ। सौजन्यता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि बाबू श्याम सुंदर दास द्वारा स्थापित नागरी प्रचारिणी सभा ने आचार्य द्विवेदी के सम्मान में 1933 में ‘अभिनंदन ग्रंथ’ प्रस्तुत किया और आचार्य द्विवेदी ने अपने संपादन से जुड़ी महत्वपूर्ण सामग्री और लाइब्रेरी की हजारों पुस्तकें सभा को ही दान में दीं।
भाषा एवं व्याकरण सुधार के आंदोलन में ऐसे अनेक विवादों के दृष्टांत आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज हैं, जिनका पटाक्षेप सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ। यह इसलिए संभव हुआ कि आचार्य द्विवेदी और संबंधित पक्ष के बीच विवाद के कारण हिंदी भाषा की शुद्धता थी न कि व्यक्तिगत। अपना लेख सरस्वती में न छपने पर बीएन शर्मा ने अवश्य आलोचनापूर्ण लेख में आचार्य द्विवेदी पर व्यक्तिगत आक्षेप किए लेकिन क्षमा प्रार्थना के बाद आचार्य द्विवेदी ने इस विवाद का भी अंत सौजन्यता के साथ कर दिया। ऐसा ही एक प्रकरण महामना पं. मदन मोहन मालवीय के अनुज कृष्णकांत मालवीय के साथ भी हिंदी साहित्य में दर्ज है।
रेलवे की 200 रुपये प्रतिमाह की नौकरी छोड़कर 50 रुपये प्रतिमाह में ‘सरस्वती’ का संपादन स्वीकार करने वाले आचार्य द्विवेदी का इंडियन प्रेस के संस्थापक बाबू चिंतामणि घोष से प्रथम परिचय उनके ही प्रेस से प्रकाशित हिंदी रीडर की कड़ी आलोचना के साथ हुआ था लेकिन फिर भी घोष बाबू ने आचार्य द्विवेदी को सरस्वती का संपादक नियुक्त करना तय किया। उनके संपादक नियुक्त होने पर कुछ साहित्यकारों ने घोष बाबू से कहा कि यह मनुष्य बहुत घमंडी है। तुनुक मिजाज है। इसे संपादक बनाकर बड़ी भूल कर रहे हो। उससे एक दिन भी नहीं पटेगी लेकिन उन्होंने किसी भी आलोचना को कान न देकर आचार्य द्विवेदी को संपादन का दायित्व सौंपा। 18 वर्षों तक सरस्वती के संपादन कार्यकाल में आचार्य द्विवेदी और घोष बाबू में घड़ी भर की अनबन नहीं हुई। सरस्वती के प्रकाशक और सेवक संपादक के बीच के सरस संबंध आज भी मुद्रक-प्रकाशक एवं संपादक के बीच सरस संबंधों का आदर्श उदाहरण है।
बात नवंबर 1905 की है। छतरपुर के राजा ने आचार्य द्विवेदी जी से कहा कि आप प्रतिवर्ष एक अच्छे अंग्रेजी ग्रंथ का अनुवाद किया कीजिए। पारिश्रमिक के रूप में मैं आपको 500 रुपये दिया करूंगा। उन्होंने 1907 में हर्बर्ट स्पेंसर की ‘एजुकेशन’ पुस्तक का अनुवाद ‘शिक्षा’ के नाम से किया और राजा को पत्र लिखा। अपनी बात से मुकरते हुए राजा ने पारिश्रमिक के रूप में केवल 25 रुपये ही देने की बात कही। इस पर नाराज हुए आचार्य द्विवेदी ने राजा को कड़ा पत्र लिखकर अपनी आपत्ति प्रकट करने से परहेज नहीं किया।
जन्म ग्राम दौलतपुर (रायबरेली) की पाठशाला के एक शिक्षक एक पद का गलत अर्थ बता रहे थे। बालक द्विवेदी ने शिक्षक को टोका और सही अर्थ बताया लेकिन शिक्षक अपनी गलती स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। द्विवेदी जी के प्रतिवाद करने पर वह पंडितराज संजीवन के अर्थ को प्रमाणिक मानने को तैयार हुए। तब द्विवेदी जी पंडितराज के घर गए और सही अर्थ लिखाकर लाए। उन्होंने भी द्विवेदी जी के ही अर्थ का समर्थन किया। फिर शिक्षक को बालक द्विवेदी के सामने अपनी गलती स्वीकार ही करनी पड़ी।
दरअसल, बचपन से ही स्वाध्यायी आचार्य द्विवेदी का गलत को गलत कहने का स्वभाव था। गलत को गलत कहने में तनिक भी हिचक न होने का यह स्वभाव आचार्य द्विवेदी में अंतिम समय तक विद्यमान रहा। किसी के आगे झुकना उन्होंने स्वीकार नहीं किया। सामने वाला कोई भी हो या कितना भी बड़ा हो। इसी स्वभाव के बल पर वह आधुनिक हिंदी खड़ी बोली को गद्य और पद्य दोनों की भाषा बनाने में सफल हो सके।
(साभार – हिन्दुस्तान समाचार)





