कोलकाता प्रेस क्लब तथा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा हाल ही में कार्यरत पत्रकारों के लिए तीन दिवसीय पत्रकारिता कार्यशाला आयोजित की गयी थी। कार्यशाला में कुलपति प्रो. जगदीश उपासने तथा कुलसचिव प्रो. संजय द्विवेदी के साथ विश्वविद्यालय की रीवा परिसर के प्रभारी प्रो. जयराम शुक्ल ने बदलती पत्रकारिता और उसकी जरूरतों के बारे में बताया। हम अपराजिता में तीनों ही वक्तव्य आपके सामने रख रहे हैं और उम्मीद है कि पत्रकारों के साथ पत्रकारिता के विद्यार्थियों को भी यह एक नयी दिशा देंगे।
पहली कड़ी में प्रस्तुत है, विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. संंजय द्विवेदी का वक्तव्य –
एक समय था जब पत्रकार कंटेंट तय करते थे। बाकी शहर में में वह बाद में जाता था मगर 1990 के बाद दुनिया बदली। 1991 के बाद उदारीकरण का दौर आया तो जीवन बदला। आज हमारा जीवन वैसा नहीं है जो 90 के दशक में हुआ करता था। आज हम बदले हुए मनुष्य हैं। पूरी दुनिया बदल गयी है और आज मीडिया को बदले हुए समय को सम्बोधित करना है। अब हम खबरों के प्रथम प्रस्तोता नहीं हैं। आज के पत्रकार फॉलो करते हैं क्योंकि खबर तो लोगों को अन्यान्य स्त्रोतों से मिल चुकी होती है। हम खबरें दोहराते हैं। कहा जा रहा है कि 2040 में अमेरिका में अंतिम अखबार छपेगा। अगर नये समय में मीडिया को प्रासंगिक बने रहना है तो सूचना देना काफी नहीं है। अब पत्रकारों को समय से आगे देखना होगा। आज सामान्य संवाददाता की जरूरत खत्म हो चुकी है। अगर बदलते मीडिया के दौर में हम नहीं बदले तो हमारी प्रासंगिकता खत्म हो जायेगी। आज सूचना का विश्लेषण व प्रभाव की जानकारी आवश्यक है। लोग अब अखबार पढ़ नहीं रहे, वे पन्ने पलटते हैं। पहले और अब की पढ़ने की आदतों में बदलाव आया है। अखबार पढ़ने का समय अब सोशल मीडया पर शिफ्ट हो रहा है। पहले लोग कुछ भी पढ़ते, लिखते और सुनते थे मगर अब सम्पादकीय पर भी तस्वीर लगानी पड़ रही है।
आज का समय शॉट्र्स का समय है। 60 और 200 शब्दों में खबरें लिखी जा रही हैं। सोशल मीडिया नहीं होता तो इस सृजनात्मकता का पता नहीं चलता। फेसबुक ने हमें खुद से प्यार करना सिखाया है। आज सूचनायें त्वरित गति से पहुँच रही हैं। आज स्थिति यह है कि हर बड़े अखबार या मीडिया संस्थान को अपना वेब पेज बनाना पड़ रहा है। सूचना को कहने का तरीका बदला है और सम्पादकों का आत्मविश्वास खत्म हो रहा है। अच्छा दिखना महत्वपूर्ण हो गया है। अखबार का पाठक भी दर्शक में बदल गया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के बाद उससे मुकाबले की होड़ में प्रिंट मीडिया भी अपनी मूल छवि भूलकर टीवी – टीवी खेलने लगा। हम टीवी के शीर्षकों की नकल करने लगे। अखबार में साहित्य कम होने लगा। आज सोशल मीडिया तय करता है कि अखबार क्या लिखेगा। अब न्यूज रूम का माहौल बदल गया है।
अब आपको देखना होगा कि कंटेंट कैसे रखेंगे। शीर्षक तथा इन्ट्रो पर ध्यान देना जरूरी है। हर खबर को 10 अलग दृष्टिकोणों से देखना होगा। आपको घटनाओं से आगे की ओर देखना होगा क्योंकि अब कवरेज और सूचनाओं की जरूरत नहीं रह गयी है। आज ओपिनियन मेकर की जरूरत है। अखबार को बचाना हमारी जिम्मेदारी है। भाषा को बचाने की जरूरत है। अच्छे कंटेंट के साथ अच्छी प्रस्तुति की जरूरत है। व्यक्तित्व की तरह खबरों को सजाने तथा खबरों को अपग्रेड करने की जरूरत है। खबर सजकर नहीं आयेगी तो पढ़ी नहीं जायेगी। खबरों को टुकड़ों में लिखने की आदत डालें। आज सम्पादक का आत्मविश्वास धरातल पर है। सारे अखबार एक जैसे दिख रहे हैं। मुख्य धारा के हाथ में तो चमचमाती हुई स्क्रीन है।
फिर भी उम्मीद है क्योंकि अखबार आज भी हमारे समाज का स्टेटस सिम्बल है मगर स्थिति यह है कि लोग पढ़ना कुछ और चाहते हैं और मँगवाते कुछ और हैं। पहले एक पान की दुकान से एक अखबार से सब पढ़ लिया करते थे और परिवार में भी एक ही अखबार आया करता था। वहीं आज एकल परिवार के दौर में सबके अपने -अपने अखबार हैं। आज हकीकत यह है कि भाषायी अखबार अँग्रेजी अखबारों की तुलना में आगे हैं। अँग्रेजी के आतंक के बावजूद लोगों का अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़ाव बचा हुआ है। आज क्षेत्रीय चैनल सारी दुनिया में देखे जा रहे हैं। क्षेत्रीय भाषा वैश्विक होती जा रही है।
भारत में सर्वश्रेष्ठ तकनीक वाले अखबार निकल रहे हैं। क्षेत्रीय अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है। जरूरी है कि अखबार अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व दिखायें। अखबारों में स्थानीयता बनी रहनी चाहिए। भाषा संस्कृति की संवाहक होती है और अखबारों में यह लोकतत्व बने रहना चाहिए।