मालदा : ‘लड़कियों के मामले में पहले मैं भी दूसरे लड़कों की तरह था…अब मुझे महसूस हुआ है कि वे भी हमारी तरह हैं।’ तलाश में युवा प्रशिक्षक बनकर अपनी उम्र के दूसरे लड़कों को सन्देश देते असीम अकरम से हम मिलते हैं तो एक उम्मीद सी बँधती है। हम चाहते हैं कि ऐसे और भी असीम हों जो लड़कियों को मनुष्य समझें और उनके साथ मिलकर बगैर हिचक के काम करें। बेहद पिछड़ा जिला माने जाने वाले मालदा में जब इन युवाओं की सोच और मजूबती से भरे आत्मविश्वास से हमारी मुलाकात हुई तो यह एक अद्भुत अनुभव बन गया और स्मरणीय भी। जागरुकता की मुहिम एक गैर सरकारी संगठन तलाश ने छेड़ी है और मजबूती के साथ इस मुहिम को सफल बना रहा है यूनिसेफ। देखिए…क्या कहता है असीम
जिला प्रशासन के सहयोग से इनमें से कई बच्चों ने तस्करी जैसी समस्या का न सिर्फ सामना किया बल्कि अपने गाँव के अन्य बच्चों और युवाओं को लेकर तस्करी के खिलाफ इन सबने अभियान छेड़ रखा है। कई लड़कियाँ ऐसी हैं जिन्होंने न सिर्फ कम उम्र में अपनी शादी रोकी बल्कि अन्य लड़कियों को भी बचा रही हैं। परिवार और समाज के तमाम विरोधों को सहती हुई वे मजबूती से चट्टान की तरह अपने इरादों को लेकर अडिग हैं और मशाल लेकर चल रही हैं।
इनमें से एक हैं मरियम बानो..। मरियम 2012 से ही तलाश में हैं, आत्म सुरक्षा और कानूनी जागरुकता लाने के लिए काम कर रही हैं। इनकी बहनों के विवाह कम उम्र में ही हो गये थे। 16 साल की उम्र में मरियम का भी विवाह तय कर दिय़ा गया था मगर मरियम के आगे बढ़ने की जिद ने उनको हौसला दिया। मरियम कहती हैं कि मेरा विवाह मेरे चयन का अधिकार है, जब भी होगा..मेरी इच्छा से होगा। मरियम ने 2015 में चाइल्ड लाइन में फोनकर दो बहनों की तस्करी होने से रोका था। असीम बताते हैं कि तस्करी को लेकर कहला, मानिकचक जैसे इलाकों सामाजिक कल्याण विभाग ने भी इन बच्चों की सहायता ली है और उनको नजर रखने को भी कहा गया है। मरियम कहती हैं कि 2012 और 2020 की मरियम में जमीन -आसमान का अन्तर है। तब शादी ही सब कुछ लगती थी और अब आत्मनिर्भर रहकर समाज के लिए, दूसरी लड़कियों के लिए कुछ करने की ख्वाहिश है। अणिमा मण्डल को तो घर से निकलने ही नहीं दिया जाता था। तलाश में आने से पहले बाल विवाह उनकी नजर में गलत नहीं था मगर इस संस्था से जुड़ने के बाद बाल विवाह के नुकसान पता चले। अणिमा के मुताबिक उन्होंने खुद को अभिव्यक्त करना सीखा और आत्मरक्षा भी। अब ये दूसरी लड़कियों को ये सब सिखा रही हैं। सुनिए क्या कहती हैं मरियम और अणिमा।
सागरिका कहती हैं कि पहले उनके परिवार में उनको दायित्व नहीं मिलता था मगर अब सब बदल रहा है। मुस्कुराकर वह कहती हैं – ‘अब मुझे भी महत्व मिलता है और जिम्मेदारी भी।’ समूचे मालदा में ऐसे 800 से अधिक युवा समूह हैं और इनकी सोच हमारी उम्मीद ही नहीं बढ़ा रही बल्कि हौसला भी बढ़ा रही है।