हर रूप में हर सम्बन्ध निभाने वाले श्रीकृष्ण

भगवान विष्‍णु के अवतार श्रीकृष्‍ण का जीवन किसी सबक से कम नहीं. उनके सबक समझने में आसान होने के बावजूद बेहद अर्थपूर्ण हैं। श्री कृष्ण ने अपने जीवन में हर सम्बन्ध को उदारता, स्नेह व प्रेम से परिभाषित किया है और उसे ईमानदारी से निभाया है। सबसे अच्छी बात यह है कि उनके सम्बन्धों में बन्धन नहीं है..अपने अस्तित्व बनाये रखने के लिए जगह है..आइए सीखे श्रीकृष्ण से सम्बन्धों को निभाना
मैत्री – भगवान श्रीकृष्‍ण और सुदामा की मित्रता हमें बचपन से इसलिए पढ़ाई-सिखाई जाती है, क्योंकि वो हमें रिश्तों की कद्र करना और दोस्तों के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहने के लिए प्रेरित करती हैं, साथ ही ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी, छोटे-बड़े की पाबंदियों से दूर दोस्ती सबसे अहम रिश्ता भी यह कृष्‍ण-सुदामा ने हमें सिखाया। सुदामा, कृष्ण के बचपन के मित्र थे। वह बहुत ही गरीब व्‍यक्ति थे, लेकिन कृष्ण ने अपनी मैत्री के बीच कभी धन व हैसियत को नहीं आने दिया। वे अर्जुन के भी बहुत अच्छे मित्र थे और द्रौपदी के भी बहुत अच्‍छे सखा गोविन्द थे।
प्रेम – कृष्‍ण के बहुत सारे प्रशंसक और प्‍यार करने वाले थे. लेकिन वृंदावन में राधा के प्रति उनका प्‍यार जीवन का सबसे महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा रहा है, जहाँ वह नंद और यशोदा द्वारा लाए गए थे। वृन्दावन में कृष्ण ने राधा के साथ प्रेम लीला रचाई. केवल राधा ही कृष्ण की दीवानी नहीं थी, बल्कि वृन्दावन की कई गोपियां कृष्ण को मन ही मन ही मन अपना मान चुकी थी। वे राधा व गोपियों के साथ मिलकर रास लीला रचाते थे। कृष्ण के प्रेम में सम्मान था, आधिपत्य की भावना नहीं इसलिए वह आज भी अलग हैं।
माता-पिता  – भले ही श्री कृष्ण देवकी व वासुदेव के पुत्र कहलाते हैं, लेकिन उनका पालन-पोषण यशोदा व नंद ने किया था। भगवान कृष्ण ने देवकी व यशोदा दोनों मांओं को अपने जीवन में बराबर का स्थान दिया और दोनों के प्रति अपने कर्तव्यों को बखूबी निभाया।
गुरू के प्रति आदर – भगवान विष्णु का अवतार रूप होने के बावजूद, श्री कृष्ण के मन में अपने गुरुओं के लिए बहुत सम्मान था। अपने अवतार रूप में वे जिन भी संतों से मिले उनका उन्होंने पूर्ण सम्मान किया। आश्रम में कृष्ण-बलराम और सुदामा ने एक साथ वेद-पुराण का अध्ययन प्राप्त किया था। दीक्षा के उपरांत कृष्ण ने गुरुमाता को गुरु दक्षिणा देने की बात कही। इस पर गुरुमाता ने कृष्ण को अद्वितीय मान कर गुरु दक्षिणा में उनका पुत्र वापस माँगा, जो प्रभास क्षेत्र में जल में डूबकर मर गया था। गुरुमाता की आज्ञा का पालन करते हुए कृष्ण ने समुद्र में मौजूद शंखासुर नामक एक राक्षस का पेट चीरकर एक शंख निकाला, जिसे “पांचजन्य” कहा जाता था। इसके बाद वे यमराज के पास गए और संदीपन ऋषि का पुत्र वापस लाकर गुरुमाता को सौंप दिया।
श्रीकृष्ण बतौर गुरू – महाभारत के रण में श्रीकृष्ण ने बतौर गुरू पांडवों का साथ दिया था. अर्जुन को युद्ध की बारीक रणनीतियां श्रीकृष्ण ने ही बताई थी। पांडवों की जीत में श्रीकृष्ण की सबसे अहम भूमिका रही थी इसलिए श्रीकृष्ण को एक अच्छा गुरू कहना गलत नहीं होगा।
भाई – कृष्ण और बलराम के बारे में सब जानते हैं मगर अपनी बहन सुभद्रा के प्रति भी वे उदार रहे। सुभद्रा के प्रेम का सम्मान करते हुए अर्जुन से विवाह को न सिर्फ सहमति दी बल्कि उसके सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए चट्टान बनकर खड़े रहे।
प्रजा के रक्षक – मथुरा से दूर अपनी प्रजा की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने न सिर्फ द्वारका बसायी बल्कि उसे समृद्ध भी बनाया। यही कारण है कि युग बीत जाने पर भी द्वारका एक महत्वपूर्ण स्थान रही है।

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