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सुषमा त्रिपाठी
बेटियाँ तो दूसरे घर में जाने के लिए बनी होती हैं। अब भी भारतीय समाज में लड़कियाँ प्राथमिकता नहीं बल्कि विकल्प ही हैं। अगर बेटा नहीं कमा पाता तो बेटी कमाएगी। कॅरियर और अपनी पहचान अभी भी स्त्रियों की प्राथमिकता नहीं है। दंगल में पहलवान बेटियों की कहाननी दिखायी गयी मगर फर्ज कीजिए कि महावीर फोगट के अगर बेटे होते तो क्या वे अपनी बेटियों को पहलवान बनाने पर ध्यान देते? सुल्तान में बेबी को बेस पसन्द करने वाले सलमान के लिए अनुष्का अपनी मर्जी से अपना गोल्ड जीतने का सपना छोड़ देती हैं और उसे आप त्याग कहते हैं। क्या किसी नायक के दिमाग में इस तरह की बात आ सकती है, अधिकतर परिवारों में लड़कियों का कॅरियर उनकी नहीं बल्कि उनके परिवार, पति और ससुराल की मर्जी से तय होता है।
कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो क्या आपने कभी सुना है कि पति ने अपनी पत्नी ने घर पर बैठकर बच्चों को सम्भालना स्वीकार किया या फिर ससुराल ने उसे प्रोत्साहित किया। हालाँकि हालात सुधरे हैं मगर सोच बदलने में वक्त लगेगा। रात को जब कोई महिला बस में काम से वापस लौटकर भीड़ से भरी बस में अकेली होती है तो आप कई निगाहों को उसकी ओर घूरते हुए पाते हैं। हमारे समाज और शहर को अब भी आदत नहीं हुई है कि वे रात में सड़कों पर या बसों में किसी स्त्री की मौजूदगी को सहजता से स्वीकारें। आपने उसकी आदत ही नहीं पड़ने दी।
राह चलते जब नौजवानों के उद्दंड भाव को देखते हुए फोन पर किसी के साथ उग्र भाषा में गालियों के साथ बात करते देखती हूँ तो लगता है कि लड़कों को असमय मर्द बनाकर उसके साथ कितना बड़ा अन्याय किया जा रहा है। घर में उसे उग्र होने की इजाजत है। देर से घर लौटने पर उससे सवाल नहीं पूछे जाते और न ही उसकी पढ़ाई छुड़वाने की धमकी दी जाती है। वह बिगड़ैल सांड है, शेर है इसलिए वह कुछ भी कर सकता है, उसे मनुष्य बनाया ही नहीं गया तो उससे मनुष्यता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। अभी उदयन दास और आँकाक्षा शर्मा की खबर हर चैनल पर चल रही है जिसने प्रेमिका को मारकर उसे गाड़कर उस पर चबूतरा बना दिया और माता – पिता की हत्या भी कर दी, बगैर लगाम के जब उबड़ – खाबड़ तरीके से आप बच्चों की परवरिश करेंगे तो उसकी परिणिति एक अपराधी ही होगा। आज निर्भया कांड को 5 साल होने जा रहे हैं। जरा याद कीजिए, कि इस केस के अभियुक्त ने इंडियाज डॉटर में किस तरह की ढीठ हरकत की थी और उसके अधिवक्ता ने क्या कहा था…जब देश की न्यायिक व्यवस्था में ऐसे लोग भरे पड़े हों तो आप मानसिकता बदलने की उम्मीद कैसे करेंगे। हर रोज देश के लगभग हर राज्य से महिलाओं के साथ होने वाले अपराध की ख़बर सुनी और पढ़ी जा सकती है। जुर्म की नई-नई शक्ल हमारे सामने आने लगी है मगर वैसी बेचैनी की बात तो छोड़ दें, समाज में थोड़ी सुगबुगाहट भी नहीं दिखाई देती है. जो कुछ दिखता है, वह ज्यादातर ख़बरों में ही नज़र आता है।
क्या स्त्री के साथ अपराध इसलिए होता है क्योंकि वह स्त्री है? दरअसल, यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है। लड़कियों के साथ अपराध इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि बच्चों की परवरिश में संतुलन रखा ही नहीं गया। लड़का हो या लड़की, उनकी परवरिश उनके लड़का या लड़की होने के कारण की जाती रहेगी, विषमता बनी रहेगी। स्त्री होने का मतलब महज देह रहेगा तो हिंसा होती रहेगी क्योंकि पतियों के लिए भी पत्नी एक सम्पत्ति ही है जिस पर वे अधिकार जता सकते हैं, नियन्त्रण रख सकते हैं। इसकी शुरुआत ही घर से होती है जहाँ वे अपने पिता को माँ से झगड़ते हुए देखते हैं, बहन को घर में सिमटकर रहते हुए देखते हैं और यह अन्याय भी कई बार महिलाएं ही करती हैं। माँ अपने बेटे को बहू को नियन्त्रण में रखने की सलाह जब तक देती रहेगी….यह जारी रहेगा। स्त्री जब तक स्त्री को खुद सम्मान नहीं देती और एक समान व्यवहार नहीं करती, आप मानसिकता बदलने की उम्मीद नहीं कर सकते।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) अपराधों का पुलिसिया रिकॉर्ड इकट्ठा करता है। इस रिकॉर्ड के मुताबिक़, 2015 में तीन लाख 30 हज़ार 187 लड़कियों/महिलाओं को महज ‘स्त्री’ होने के नाते कई जुर्म का शिकार होना पड़ा। इस जुर्म में हर तरह की यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, एसिड अटैक, घर के अंदर हिंसा, अपहरण, अनजाना और अनचाहा स्पर्श, भद्दे कमेंट, गालियां, जोर-जबरदस्ती, बलात्कार, बलात्कार की कोशिश, दहेज के लिए हत्या, पति या ससुराल वालों के अत्याचार जैसी सब चीजें हैं। यौन हिंसा और अपहरण से लेकर रैगिंग जैसे अपराध लड़कों के साथ भी होते हैं मगर हम महिला अपराधों पर इतनी बात करते हैं कि इसकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। कोई लड़का अगर ऐसी घटनाओं का शिकार हो तो यह उसके लिए शर्मिन्दगी होती है। नतीजा कुण्ठा बढ़ती है और दबा सकने वाली मनोेवृति के कारण हिंसा भी।
यह साफ है कि सभी लड़कियों के साथ दामिनी जैसी हिंसा नहीं होती है लेकिन वे दामिनी जैसी दिमाग़ी हालत से हर रोज गुजरती हैं। पुलिस के पास दर्ज संख्या सिर्फ महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के बारे में संकेत भर ही देती है।
एक अहम कारण है- हम मर्दों की स्त्री के बारे में सोच। यह सोच क्या है? यह सोच है- मर्द, स्त्री से श्रेष्ठ होता है। बेटा-बेटी बराबर नहीं होते हैं. पुत्र की शक्ल में मर्द ही घर का चिराग है। वंश वही आगे बढ़ाएगा. वह ताकतवर होता है। वही घर-परिवार समाज चलाने वाला होता है। सब चीजों पर उसका ही काबू होता है। मर्द काम कर पैसा लाता है, इसलिए स्त्री को उसकी सेवा करनी चाहिए। मर्द को हर स्त्री को अपने काबू में रखना चाहिए। स्त्रियों को ज्यादा छूट नहीं देनी चाहिए। फिल्मों में आपने डॉयलॉग सुने होंगे – माँ तू बूढ़ी हो गयी है, बहू ला दूँगा मगर वह बेटा कभी यह नहीं कहता है कि माँ मैं यह खुद कर लूँगा। स्त्री का स्थान स्त्री ही लेगी, यह तय कर दिया गया है। लाडला में औरत जात को लेकर बहुत सी नसीहतें दी गयी हैं।
स्त्रियों को इस दुनिया में मर्दों की सेवा के लिए बनाया गया है. स्त्री, मर्द की मनोरंजन का सामान है। स्त्री का अपना कोई वजूद नहीं होता है. जो लड़कियां बाहर दिखती हैं, उनके साथ कुछ भी किया जा सकता है। जो लड़कियां, लड़कों के साथ हंसती-बोलती-घूमती हैं, वे अच्छे चरित्र की नहीं होती हैं. वगैरह… वगैरह… ऐसी ढेर सारी चीजें यहां गिनाई जा सकती हैं.
यह लड़कों और लड़कियों के प्रति समाज का नजरिया है। यह नजरिया कोई मां के पेट में नहीं बनता है। इस नजरिए को धर्म-परम्परा, रीति-रिवाजों से सींचा जाता है। आंख खोलने के बाद होशमंद होते लड़कों को हमारा समाज ‘मर्द’ बनाता है और इनमें माँएं भी शामिल हैं। पग-पग पर उसे मर्द होने का अहसास दिलाता है। उसे मर्द के सांचे में ढालने का दौर शुरू होता है। उसे दुनिया को देखने का इंसानी नजरिया नहीं सिखाया जाता है। उसे ख़ास तरह की ‘मर्दानगी’ वाली आंख दी जाती है। वह उसी की रोशनी से मर्द बन दुनिया देखता है। घर और आस पास भी उसे जो पुरुष दिखते हैं, वे ‘ख़ास तरह के मर्द’ ही नज़र आते हैं।
इस मर्दानगी में स्त्री के साथ किसी तरह की बराबरी की कोई जगह नहीं होती है इसीलिए उनके प्रति किसी तरह का दोस्ताना और इज़्ज़त वाला सुलूक भी नहीं होता है। जहां बराबरी, दोस्ताना, प्रेम, सम्मान की जगह ‘मर्द’ होने का गर्व, ख़ुद के श्रेष्ठ होने का अहसास, ताकत पर यक़ीन, सब कुछ काबू में कर लेने का भरोसा हो… वहां हिंसा ही होगी।
चाहे वह हिंसा किसी पर फब्ती कसने, किसी का पीछा करने, ताक झांक करने, दुपट्टा खींचने, सीटी बजाने, गंदा गाना गाने के रूप में ही क्यों न हो। यह निर्भया जैसी हिंसा की पहली सीढ़ी है।
सभ्य समाज में कुछ चीजें नाकाबिले बर्दाश्त होनी चाहिए। इनमें ग़ैर-बराबरी सबसे अहम है. ग़ैर-बराबरी का रिश्ता हिंसा से है।ग़ैर-बराबरी सामाजिक न्याय के उसूल के भी ख़िलाफ़ है। इसमें हमारी ओर से समाज में बनाई गई स्त्री-पुरुष ग़ैर-बराबरी भी है। इस ग़ैर-बराबरी में पुरुष का दर्जा ऊपर है। वह विचारों से शक्तिशाली बनाया और बताया जाता है।
उसे ही हर चीज को काबू में रखने वाला बनाया जाता है इसलिए वह न सिर्फ़ अपनी बल्कि दूसरों की ज़िंदगी को काबू में रखता है। काबू में रखना चाहता है। उसके लिए वह हर तरीके अपनाता है। इसमें बड़ा हिस्सा हिंसक तरीके का होता है। यह हिंसा सिर्फ़ देह पर होने वाले लाल-नीले निशान नहीं हैं. वे अनेक रूपों में बिना निशान बनाए अपनी शक्ति की करामात दिखाते हैं।
इसलिए महिलाओं या लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा में बड़ी तादाद ऐसी हिंसा की है जिसके निशान सिर्फ़ उनके दिल और दिमाग में असर करते हैं। इसलिए हम आमतौर पर इस हिंसा को अपने आसपास होते देखते हैं और सहज व सामान्य मानकर नज़अंदाज़ करते रहते हैं। ऐसी ही हिंसा, कभी निर्भया के रूप में हमारे सामने खड़ी हो जाती है। तब हमें अपने ही समाज का बदतरीन चेहरा दिखाई देता है। फिर हम महिलाओं के सम्मान की दुहाई देते हैं मगर अपने व्यवहार की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। एक बात तो तय है कि असंतुलन का उत्तर एक और असंतुलन नहीं हो सकता।
सवाल है कि हम इस हिंसा के माहौल को ही ख़त्म करना चाहते हैं या सिर्फ किसी लड़की के निर्भया जैसी हिंसा का शिकार होने के बाद कुछ दिनों के लिए आवाज़ बुलंद करना चाहते हैं? अगर हम वाकई में हिंसा के हर रूप को खत्म करना चाहते हैं तो मर्दों को इस काम में सक्रिय भागीदार और साझीदार बनना होगा। बदलने की जरूरत लड़कों/मर्दों को है मगर उससे भी जरूरी है कि स्त्री इस मामले में आगे बढ़े। लड़के, मर्द बनाए जाते हैं। चूंकि वे मर्द बनाए जाते हैं, इसलिए बदले भी जा सकते हैं। बदलने की कोशिश घर से शुरू हो तो बेहतर है। उनके लालन-पालन पर अलग से गौर करने की जरूरत है। मर्द वाला सांचा तोड़ना होगा। लड़कों को इंसान के सांचे में ढालने की जरूरत है और उसे बताने की जरूरत है कि घर सिर्फ लड़कियों की ही नहीं लड़कों की जिम्मेदारी भी है। घर उसका भी अपना है और वह बाहरी नहीं है इसलिए घर में उसकी भागीदारी भी उतनी महत्वपूर्ण है। तब ही शायद लड़कियाँ लड़कों के लिए अजूबा न बनें और जब समान मानसिकता होगी तो अपराध खुद ही कम होंगे।
(इनपुट – बीबीसी हिन्दी)