कोलकाता : नाटक और फिल्म विधाएँ इस समय व्यावसायिकता की मार झेल रही हैं लेकिन समाज को जोड़ने और सचेतन करने में इनकी एक बड़ी भूमिका है। दोनों के बीच एक समान चीज है अभिनय। भरत ने अपने नाट्य शास्त्र में यह विद्या विशेष कर समाज के साधारण वर्गों को इस उद्देश्य से दी थी कि वे इसके माध्यम से अपना दुख-सुख कह सकें। भारतीय भाषा परिषद और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा आज आयोजित साहित्य संवाद में विचारकों ने यह बात कही। आरंभ में इबरार खान ने अपने शोध पत्र में हिंदी और उर्दू नाटकों का तुलनात्मक विवेचन किया। इसके अलावा मधु सिंह ने हिंदी कथा साहित्य के फिल्मीकरण पर अपना आलेख पाठ किया।
आयोजन के दूसरे सत्र में युवा कवियों का काव्यपाठ हुआ। इसमें प्रियंकर पालीवाल, निर्मला तोदी, राज्यवर्द्धन, विश्वबंधु, सुरेश शॉ और नीलम कुमारी ने हिस्सा लिया। लेखों और कविताओं पर डॉ.अवधेश प्रसाद सिंह, जितेंद्र जीतांशु और रामप्रवेश रजक ने अपने विचार व्यक्त किए। अध्यक्षीय भाषण देते हुए डॉ.शंभुनाथ ने कहा कि हमें आत्मप्रलाप से संवाद की ओर बढ़ना होगा। इसमें सबसे अधिक सहायक हो सकता है साहित्य। साहित्य राष्ट्र की भावात्मक एकता का मंच है जहाँ किसी भेद-भाव के लिए स्थान नहीं होता। आयोजन का संचालन करते हुए विद्यासागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. संजय जायसवाल ने कहा कि हमारे समय में सर्जनात्मकता और सामाजिकता के बीच संबंध आवश्यक है। मोबाइल के युग में आमने-सामने बैठ कर कविताएँ सुनना और विचारों का आदान-प्रदान करना हमारी मानवता को सींचेगा। यह आयोजन इसीलिए है।
आरंभ में भारतीय भाषा परिषद की मंत्री बिमला पोद्दार ने विद्वानों और कवियों का स्वागत करते हुए कहा कि साहित्य संवाद नई पीढ़ी का मंच है जहाँ युवा पीढ़ी का हमेशा स्वागत है। राहुल शर्मा ने धन्यवाद दिया। इस आयोजन के लिए डॉ.कुसुम खेमानी ने अपना शुभकामना संदेश भेजा था।